HARSH TRIPATHI

Drama Crime Thriller

4  

HARSH TRIPATHI

Drama Crime Thriller

दस्तूर - भाग-10

दस्तूर - भाग-10

52 mins
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अगले 2-3 सालों में, जब तक इमरजेंसी रही थी, और सारी ताक़त बड़े अफसरों के हाथों में ही थीं, मिर्ज़ा हैदर से चौधरी साहब के साथ मिलकर पेट्रोल पम्प के धंधे में रिकार्डतोड़ कमाई की थी. चौधरी साहब भी पेट्रोल पम्पों से होने वाले इस मुनाफे से बहुत खुश थे, और होते भी कैसे नहीं?......मुनाफे में साठ फीसदी हिस्सेदारी उन्हीं की थी. दो पेट्रोल पम्पों की जगह अब कुल दस पेट्रोल पम्प उनकी कम्पनी के नाम से चल रहे थे, या कहें कि नोट छाप रहे थे. पहले के आठ पेट्रोल पम्पों के अलावा मिर्ज़ा ने दिल्ली में एक और सौघरा में भी एक और पेट्रोल पम्प खोलने के लिये ज़रूरी लाइसेंस और परमिट भी हासिल कर लिये थे, और ज़मीन पर कंस्ट्रक्शन भी शुरु कर दिया गया था. कागज़ पर नाम चौधरी साहब और उनकी बेटी का चल रहा था. ऊपरी कमाई छिपाने के लिये सूरजगढ़ फार्महाउस और उसकी पाँच एकड़ ज़मीन तो मिर्ज़ा के पास पहले से ही मौजूद थी.

अब तक चौधरी साहब की उम्र भी काफी हो चली थी और फिर उनको टी.बी. की पुरानी बीमारी भी थी. शराब ज़्यादा पीने की वजह से लीवर भी काफी ज़ख्मी हो चुका था, नतीजतन चौधरी साहब की कारोबारी व्यस्तता और भाग-दौड़ काफी कम हो गयी थी और अब अपने हर फैसले के लिये वह अपने इकलौते दामाद मिर्ज़ा हैदर बेग पर ही निर्भर हो गये थे. दोनों ही कम्पनियों की असल ताकत अब चौधरी साहब के हाथ से निकलकर मिर्ज़ा के हाथ में पहुँच चुकी थी. अब सिर्फ पेट्रोल पम्प ही नहीं बल्कि चौधरी साहब के बरसों पुराने फलों और सूखे मेवों के कारोबार में भी मिर्ज़ा का दखल काफी बढ़ गया था.

काबिल आदमी अपनी छाप हर जगह छोड़ता ही है. मिर्ज़ा चाहे जैसे भी रहे हों, इस बात में तो कोई शक़-शुबहा नहीं था कि वह बे-इंतेहा काबिल इंसान थे, और हर मुश्किल काम को आसान बना देने की गज़ब की कुव्वत थी उनके अंदर. चौधरी साहब के साथ कारोबार करते हुए न सिर्फ मिर्ज़ा ने खूब पैसे बनाये थे, बल्कि चौधरी साहब को भी काफी फायदा हुआ था. मिर्ज़ा ने जब से उनके पुराने फलों और सूखे मेवों के कारोबार में दिलचस्पी दिखानी शुरु की, तब से उसमें भी लगातार मुनाफा बढ़ता जा रहा था, जबकि इस कारोबार में मिर्ज़ा को कोई भी तजुर्बा नहीं था. अपने घर के जालंधर वाले प्रोजेक्ट पर भी वह पूरी नज़र रखते थे, हाँलाकि कुछ भी कहने या करने से हमेशा बचते थे, जिससे फरीद से उनके रिश्ते ठीक-ठाक बने रहें. फरीद से जालंधर वाले प्रोजेक्ट का जुड़ाव वह अच्छी तरह जानते थे. दिल्ली वाले प्रोजेक्ट में ज़रूर मिर्ज़ा पूरा दखल रखते थे, और यहाँ फरीद ज़्यादातर चुप रहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि ये प्रोजेक्ट मिर्ज़ा की वजह से ही मुकम्मल हुआ था और बेहतरीन काम कर रहा था. सैयद साहब की कम्पनी की सभी यूनिटों में से अब दिल्ली वाली यूनिट सबसे ज़्यादा मुनाफा कमाकर दे रही थी, और इस मामले में उसने सौघरा और जयपुर वाली यूनिटों को भी पीछे छोड़ दिया था. मिर्ज़ा की इस कामयाबी से उनकी जानशीन बनने की दावेदारी भी मज़बूत हुई थी, और इस बात को उनके बाकी तीन भाई भी कहीं न कहीं समझ रहे थे. सैयद साहब ने भी कभी अपने बेटों से इस बारे में तो कोई भी बात नहीं की थी लेकिन अंदर ही अंदर वह भी जानते थे, कि अगर ऐसी कोई बात छेड़ी गयी, तो मिर्ज़ा की कारोबारी कामयाबियों को नज़रंदाज़ करना आसान नहीं होगा.

और बात केवल इतनी सीधी सी नहीं थी. बात यह थी कि मिर्ज़ा की इन कारोबारी कामयाबियों का असर नीचे, स्टाफ तक भी महसूस किया जा रहा था. दिल्ली वाली यूनिट जो बाकी यूनिटों के मुकाबले अभी नयी ही थी, वहाँ के कर्मचारी, बाकी के यूनिटों के स्टाफ की बजाय ज़्यादा तनख्वाह, ज़्यादा इंक्रीमेंट और ज़्यादा बोनस पा रहे थे. इस बात को फरीद और कस्तूरिया साहब यह कहकर टाल देते थे, कि वह यूनिट दिल्ली में है, और दिल्ली में महँगाई भत्ता सौघरा, लखनऊ, या जयपुर, कानपुर से ज़्यादा है, इसलिये वहाँ के स्टाफ को ज़्यादा पगार या इंक्रीमेंट मिल रहा है. लेकिन असल बात तो यही थी कि केवल महँगाई भत्ते की वजह से ही वेतन और इंक्रीमेंट में फर्क इतना ज़्यादा नहीं होना था. ये फर्क ज़्यादा इसलिये दिख रहा था कि क्योंकि दिल्ली वाली यूनिट बाकी यूनिटों की बजाय वाकई में ज़्यादा मुनाफा कमा रही थी, साथ ही मिर्ज़ा के पेट्रोल पम्प वाले कारोबार का भी फायदा उसे मिल रहा था. उस यूनिट का पूँजी आधार बढ़ता जा रहा था, इसलिये मिर्ज़ा अपने स्टाफ को ज़्यादा पैसा दे पा रहे थे और उनका स्टाफ भी उनसे बहुत खुश रहता था, जबकि सौघरा, जयपुर या कानपुर की यूनिट के स्टाफ में यह बात रह-रहकर सामने आती थी कि उन्हें मिलने वाली तनख्वाह, इंक्रीमेंट या बोनस दिल्ली वाली यूनिट की तर्ज पर बढ़ाया जाना चाहिये.

इमरजेंसी खत्म होने के बाद मिर्ज़ा का तबादला अचानक अमृतसर कर दिया गया था. लेकिन मिर्ज़ा भी घाघ ठहरे, तबादले के तुरंत बाद अपने जान-पहचान के सीनियर अफसरों और सियासतदानों से जुगत भिड़ानी शुरु कर दी थी, और अमृतसर में सिर्फ आठ-दस महीने का ही वक़्त बिताकर एक दफा फिर से दिल्ली ट्रांसफर लेने में कामयाब रहे. इस बार वह 'मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स' में डिप्टी सेक्रेटरी होकर वापिस आये थे. वैसे एक बात के लिये और तारीफ करनी होगी मिर्ज़ा की, कि अब तक की करीब 25 साल की नौकरी में कुछ-एक मौकों को छोड़ दिया जाये, तो मिर्ज़ा की तैनाती हमेशा या तो किसी ज़िले के कलेक्टर के तौर पर या फिर किसी मलाईदार डिपार्टमेंट या मिनिस्ट्री में ही हुई थी, अब ऐसी बुलंद उनकी किस्मत थी या कुछ और, पता नहीं.

अब वक़्त गुज़रने के साथ-साथ, सैयद साहब की तबियत में भी गिरावट आ रही थी. अब वह काफी बूढ़े हो चले थे. अब तक जो दवाएं असर दिखा रहीं थी, अब धीरे-धीरे उनका असर कम होने लगा था. दवा की डोज़ अगर बढ़ा देते थे, तो और दूसरी तरह की परेशानियाँ उभर आती थीं. मिर्ज़ा के पास दिल्ली ले जाकर उन्हें और कई नामचीन डॉक्टरों को भी दिखाया गया था, लेकिन उनकी सेहत में सुधार बहुत कम था. घर में सभी लोग उनकी सेहत को लेकर फिक्रमंद रहा करते थे. इन्हीं हालातों में एक दिन शाम के वक़्त जब दफ्तर बंद होने वाला था, फरीद, अपने भाइयों मुराद और शुज़ा के पास पहुँचे और कहा "आप लोग आज शाम को घर पर मेरे कमरे में आ जाइयेगा चाय पीने......कुछ ज़रूरी बातें भी करनी हैं आप लोगों से." इस पर शुज़ा और मुराद ने 'हाँ' में सिर हिलाया.

फरीद के जाने के बाद मुराद ने शुज़ा से कहा "ये अचानक फरीद भाई को क्या बात करनी है हमसे?"

"पता नहीं, वो तो इनसे मिलकर ही पता चलेगा." शुज़ा ने कहा.

"यहाँ पर भी तो बात कर ही सकते थे."

"दफ्तर और कारखाना भी बंद होने वाला है.....हो सकता है इस वजह से न की हो यहाँ पर बात.....या फिर हो सकता है कोई लम्बी बात हो, घर पर तफ्सील से करना चाहते हों." शुज़ा ने अंदाज़ा लगाया.

"आपको क्या लगता है भाईजान, मिर्ज़ा को लेकर डरे हुए हैं क्या फरीद भाई?" मुराद ने पूछा.

शुज़ा ने उन्हें झिड़का "आपके दिमाग में हमेशा यही खुराफातें क्यों चलती हैं?.....मिर्ज़ा से क्यों डरेंगे फरीद भाई......या फरीद भाई की बात छोड़िये, मिर्ज़ा से कोई भी क्यों डरेगा?......अरे भाई हैं मिर्ज़ा अपने, दुश्मन थोड़ी हैं?"

"वो बात तो अपनी जगह ठीक है भाईजान, लेकिन इतनी ताकतवर नौकरी, पेट्रोल पम्प का सोना उगलने वाला कारोबार, एक इतना आलीशान फार्महाउस, उसके पास की पाँच एकड़ ज़मीन, और दिल्ली वाली यूनिट का ज़बरदस्त मुनाफा......क्या फरीद भाई की सिरदर्दी बढ़ाने के लिये इतनी चीज़ें कम हैं?"

शुज़ा और मुराद एक-दूसरे की ओर देखने लगे. शुज़ा ने फिर मुराद से पूछा "मुराद, आपको तो डर नहीं लग रहा मिर्ज़ा की कारोबारी कामयाबियों से?"

"मुझे क्यों लगेगा?.....मिर्ज़ा भाई हैं हमारे!!....आखिर उनका फायदा मतलब हमारा फायदा." कंधे उचकाकर मुराद ने जवाब दिया.

"फिर यह क्यों कह रहे हैं आप?"

"फरीद भाई हम लोगों में सबसे बड़े हैं......अब्बू की तबियत भी खराब रहती है अब.......कहीं अगर अब अब्बू ने अपना जानशीन बनाने की बात की तो ज़ाहिर सी बात है, सबसे बड़े बेटे को तो यही उम्मीद होगी कि जानशीन उसे ही बनाया जाये........जालंधर वाले प्रोजेक्ट को लेकर वैसे ही अब्बू उनके मुरीद हो चुके हैं.......जबकि दिल्ली वाली यूनिट कहीं ज़्यादा अच्छी परफॉरमेंस कर रही है." मुराद ने कहा.

कुछ देर तक शुज़ा चुप रहे, फिर मुराद से उन्होनें कहा "चलिये मुराद, दफ्तर बंद होने का वक़्त हो गया है."

दफ्तर से वापस आते वक़्त और गुसलखाने में नहाते समय शुज़ा और मुराद यही सोच रहे थे – फरीद के पास जालंधर की यूनिट थी, उसके लिये उन्होनें सरवर को वहाँ रखा था, मिर्ज़ा के पास एक तरीके से दिल्ली की पूरी यूनिट थी, आठ-आठ पेट्रोल पम्प भी उनके चल रहे थे और फलों और मेवों का कारोबार भी चोखा चल रहा था, जयपुर को कस्तूरिया जी और सैयद साहब खुद देख रहे थे, जबकि सौघरा की यूनिट के साथ-साथ कानपुर, लखनऊ और माधवपुर के मामले भी सैयद साहब ही देख रहे थे, और सैयद साहब क्या देख रहे थे, दरअसल इसका यह मतलब था कि खुद फरीद ही मलिक थे इन सभी यूनिटों के. ऐसे में इन सब में शुज़ा और मुराद कहाँ खड़े थे?.......उन दोनों के पास क्या था?......इतने दिनों तक अपने घर के कारोबार में सिर खपाने का क्या हासिल मिला था उनको?

…..और रही मिर्ज़ा से डर की बात, तो क्या उन दोनों को मिर्ज़ा की कारोबारी कामयाबियों से डर लगता था?......शायद लगता ही होगा.....या फिर नहीं भी लगता होगा......लगता भी होगा तो भी चेहरे से तो वे कभी ज़ाहिर होने नहीं देते थे.

उन्होनें एक दूसरे से ज़्यादा कुछ बात नहीं की, और नहा-धो कर फरीद के कमरे में चले गये. जाते समय ही रसोई में बोल दिया था कि चाय फरीद भाई के कमरे में ही भिजवा दें.

फरीद उन दोनों के साथ अपने कमरे में सोफे पर बैठे, और तभी शगुफ्ता चाय ले आई थी. चाय रखकर जब वह चली गयी, तब फरीद ने शुज़ा से पूछा "शुज़ा एक बात बतायें आप."

"जी भाईजान, पूछिये."

"तीन दिन पहले जो लेदर की सप्लाई आयी है कलकत्ते से, किस भाव में आयी है?.....पता है आपको?

"जी भाई, साठ के भाव से आयी हैं."

"पिछले महीने किस भाव से आयी थी सप्लाई?"

"इतना तो याद नहीं भाई."

"मैं बताता हूँ, पिछले महीने की सप्लाई पैंतीस के भाव से आयी थी."

"क्या?" शुज़ा ने ताज्जुब किया "....इतना फर्क, सिर्फ एक महीने में?"

"जी....सिर्फ यही नहीं, आपको पता है कि पिछले के पिछले महीने की सप्लाई किस रेट से आयी थी?"

"नहीं भाईजान.....तीन महीने पुरानी बात तो याद नहीं है."

"उस महीने की सप्लाई पचपन के भाव से आयी थी." फरीद ने कहा.

शुज़ा ने कहा "ऐसा कैसे हो रहा है?.....किसी महीने सप्लाई पचपन के भाव से, फिर कभी पैंतीस के भाव से, फिर कभी साठ के भाव से.....यह चल क्या रहा है वहाँ कलकत्ते में?"

"सिर्फ कलकत्ते में ही नहीं, बल्कि सूरत से जो पिछले चार-पाँच महीने से लेदर सप्लाई आ रही है, हर बार अलग-अलग रेट से आ रही है, और हर बार के रेट में इतना फर्क कि पूछिये मत!!.........और असल में यही हमारी फिक्र की वजह है, जिसके लिये हमने आपको यहाँ बुलाया है."

"फिक्र की बात तो है ही भाईजान.......कभी पैंतीस, कभी साठ.....कोई सिर-पैर ही नहीं इसका तो." मुराद बोले.

"फिर तो जयपुर, कानपुर, दिल्ली सब जगह इसी मनमाने रेट पर सप्लाई जा रही होगी ना?" मुराद ने पूछा.

"बात तो यही है. जालंधर फोन करके मैंने पता भी किया सरवर से." फरीद बोले.

"कहीं कलकत्ते और सूरत में हमारा काम गलत हाथों में तो नहीं चला गया है?......जिन पर हम यहाँ भरोसा किये बैठे हैं, पता नहीं क्या गुल खिला रहे हैं वे लोग वहाँ पर." शुज़ा ने अंदेशा ज़ाहिर किया.

"यही मुझे भी लग रहा है." फरीद के माथे पर परेशानी की लकीरें उनके दोनों भाई साफ देख रहे थे.

कुछ देर बाद फरीद ने कहा "देखिये, ये कारोबार हमारा है......जो भी नफा-नुकसान उठाना होगा, वह हमें ही उठाना पड़ेगा, सप्लायर का क्या है?.....उस को मिल ही जा रहे मुँहमाँगे पैसे सही टाइम पर ना?"

उन्होनें आगे कहा ".....इसीलिये आप दोनों को यहाँ बुलाया है. हम ये चाहते हैं कि आप लोग में से एक आदमी सूरत और एक कलकत्ते जाकर थोड़ा पता करे कि माजरा क्या है?......और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी, कि सप्लायरों से सीधे-सीधे बात करे कि ऐसा क्यों हो रहा है पिछले तीन-चार महीनों से, कभी पैंतीस के रेट पर सप्लाई आ रही है, तो कभी पचपन-साठ के रेट पर?......आखिर ये कारोबार तो हम भी कर रहे हैं पिछले 30-35 साल से, और केवल सौघरा ही नहीं, बल्कि लखनऊ से पंजाब तक‍!!.....ऐसे बेवकूफ तो नहीं हैं हम कि सप्लायर कुछ भी रेट लगाता रहे और हम पैसे फेंकते रहें!!."

"बिल्कुल सही कह रहे हैं आप भाईजान!!!.......हम लोग गुलाम तो हैं नहीं उनके ना!!....फ्री में सप्लाई थोड़े ही करते हैं वो लोग!!!" शुज़ा और मुराद ने रज़ामंदी दी, फिर मुराद ने ही पूछा "....लेकिन भाईजान, क्या इस वक़्त हमारा सूरत या कलकत्ते जाना ठीक होगा?.....हमारा मतलब है कि अब्बू की तबियत पिछले काफी समय से जैसी चल रही है, क्या हमें जाना चाहिये वहाँ?......मेरे खयाल से अब्बू की तबियत में कुछ सुधार हो जाये, क्या तब हम चले जायें?"

"मेरे खयाल से शुज़ा भाईजान गलत नहीं कह रहे हैं." शुज़ा ने कहा.

फरीद ने कहा "आपकी बात सही है मुराद, लेकिन हम आपसे कहना चाहते हैं कि अब्बू की फिक्र आप लोग मत कीजिये......हम लोग यहाँ उनकी देखभाल कर ले रहे हैं, फिर बगल में दिल्ली में मिर्ज़ा भी तो हैं ही. आप ये कीजियेगा कि आप लोग कलकत्ता और सूरत में जहाँ भी रुकियेगा, हमें फोन नम्बर ज़रूर दे दीजियेगा, जिस से अब्बू की सेहत के बारे में हम आपको लगातार इत्तला देते रहेंगे."

"ठीक है भाईजान, आप कहते हैं तो हम लोग चले जाते हैं......बताइये कहाँ किसको जाना है?" शुज़ा ने पूछा.

शुज़ा, मेरे खयाल में आप तो कलकत्ते चले जाइये, कलकत्ते के कारोबार से आप अच्छी तरह वाकिफ भी हैं. पहले भी कई बार कलकत्ते जाकर आप काफी अच्छा नतीजा ला चुके हैं, और मुराद, आप सूरत निकल जाइये." फरीद ने कहा.

"कितने दिनों का काम होगा ये वैसे?" शुज़ा ने पूछा.

"हफ्ते भर से ज़्यादा तो क्या ही होगा?"

इस बात पर तीनों भाईयों के बीच रज़ामंदी हुई कि अगले हफ्ते इतवार के रोज़ मुराद और शुज़ा सूरत और कलकत्ते के लिये गाड़ियाँ पकड़ लेंगे. फिर अगले इतवार मुराद एक हफ्ते के लिये सूरत और शुज़ा कलकत्ते के लिये निकल गये.

कलकत्ता शुज़ा के लिये कोई नयी जगह नहीं थी, इस से पहले भी वह कम्पनी के काम से कई दफा कलकत्ता जा चुके थे, और कारोबारी मसले भी सुलझा चुके थे. यही नहीं, कलकत्ता शहर के बारे में वह यह दावा कर सकते थे कि कलकत्ता की सड़कों को वह कलकत्ता में रहने वाले किसी आम बंगाली से बेहतर जानते थे.

मुराद के लिये ज़रूर सूरत एक नयी जगह थी. वैसे उनके लिये सारी जगहें नयी ही होती थीं. काम तो वो कहीं भी अच्छा कर नहीं पाते थे, क्योंकि कड़ी मेहनत करने की उनकी नीयत भी नहीं होती थी, ऐसे में फरीद और सैयद साहब उन्हें इस उम्मीद में नई-नई जगहों पर भेजते रहते थे कि शायद किसी जगह पर तो मुराद कामयाब हो जायें, और उनके पास भी कुछ कहने को हो जाये, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं था. मुराद के हिस्से हमेशा नाकामी ही आती थी, और ये बात भी फरीद और सैयद साहब अच्छी तरह जानते थे. जिसको मेहनत नहीं करनी वो क्या खाक़ कामयाब होगा?.......फिर भी उन्हें इसलिये नई-नई जगहों पर भेजा जाता था जिस से मुराद के अंदर ये अफसोस नहीं रहे कि घर में उन्हें कोई तवज्जो नहीं दी जा रही, और उन्हें कारोबार में कोई बड़ा काम नहीं दिया जा रहा. उनको बाहर नई-नई जगह कम्पनी के काम से भेजने से घर के अंदर भी सैयद साहब की चारों बहुओं के बीच, और सैयद साहब के नाती-पोतों के बीच, सम्बंध अच्छे-भले बने रहते थे और मुराद की बीवी रुबैदा को भी गिला-शिक़वा नहीं रहता था. बाकी यह बात फरीद अपने दिल में अच्छी तरह जानते थे कि किसी जगह मुराद को भेजने का कोई खास फायदा नहीं है.

यहाँ भी फरीद ने यही सोचा था कि अगर मुराद कामयाब होकर लौटते हैं, तब तो बहुत अच्छा होगा कि एक ही समय में दोनों जगह के काम निपट गये, लेकिन अगर मुराद नाकाम रहते हैं, तो कुछ वक़्त बाद शुज़ा को फिर से सूरत भेजेंगे.  

इसी बीच महाराष्ट्र में औरंगाबाद में गृह मंत्रालय की ओर से 15 दिन की एक ट्रेनिंग और कॉन्फ्रेंस होनी थी, जिसमें मिर्ज़ा का जाना ज़रूरी बताया गया था. मिर्ज़ा ने दिल्ली छोड़ते समय औरंगाबाद का फोन नम्बर अपने घर में अपने भाइयों और अपनी सभी बीवियों को भी दे दिया था, जिस से ज़रूरत पड़ने पर उनसे सीधे बात की जा सके और वे भी उन सभी का हाल-चाल लेते रहें, खासतौर पर अपने अब्बू की सेहत को लेकर मिर्ज़ा खासे फिक्रमंद थे. मिर्ज़ा अब औरंगाबाद में थे.

कलकत्ते में शुज़ा अपने सप्लायरों से बात करके मामला सुलझाने की कोशिश कर रहे थे. मामला थोड़ा ज़्यादा पेचीदा था. सौघरा से कलकत्ते की दूरी भी ज़्यादा थी, और बार-बार आया-जाया नहीं जा सकता था. सप्लायर भी यह जानते थे इसलिये शुज़ा के आगे नई-नई मुश्किलें खड़ी कर रहे थे. 6-7 दिन इसी पेचीदगी को सुलझाने में निकल गये थे. उन्होनें फरीद को फोन किया और कहा "भाईजान, यहाँ मामला थोड़ा फँस रहा है,……कुछ दिन और लग जायेंगे शायद.....ये लोग यहाँ हमारी शराफत का नाजायज़ फायदा उठाने की फिराक़ में हैं......नये-नये नियम-कानून समझा रहे हैं. मैं अभी यहाँ 4-5 दिन और रुकूंगा." फरीद ने भी इस बात की रज़ामंदी दे दी.

उधर सूरत में मुराद भी इसी पेचीदगी का सामना कर रहे थे. उन्होनें भी फरीद को फोन करके सूरत के लेदर मार्केट और सप्लायरों का हाल बयान किया और कहा कि वे लोग ज़्यादा नखरे दिखा रहे हैं, और बेवजह भाव खा रहे हैं. मुराद ने 4-5 और रुकने की मोहलत माँगी थी, जिस पर फरीद ने हामी भर दी थी.

सूरत और कलकत्ता उन दिनों चमड़े के बहुत बड़े बाज़ार हुआ करते थे. चमड़े की यहाँ कई बहुत बड़ी-बड़ी मंडियां थीं जिनमें न केवल हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों से ही, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सो से भी यहाँ चमड़ा आता रहता था और लगातार देश-दुनिया भर में भेजा भी जाता रहता था. करोड़ों का कारोबार होता था यहाँ. ऐसे में इस कारोबार की निगरानी की भी बहुत ज़रूरत थी और इसी के मद्देनज़र सरकार की तरफ से सूरत और कलकत्ता दोनों जगहों पर चमड़े के इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट और चमड़े की सप्लाई के कारोबार की निगरानी करने और ज़रूरी नियम-कानून बनाकर इनकी देख-रेख करने के लिये लेदर सप्लायर रेगुलेशन ऑफिसों की स्थापना की गयी थी. जिस वक़्त शुज़ा और मुराद अपने-अपने काम में मशगूल थे लगभग उसी समय, सूरत और कलकत्ता के लेदर सप्लायर रेगुलेशन ऑफिसों में एक टेलीग्राम पहुँचा जिसने वहाँ, उस दोनों जगहों पर नया तूफान खड़ा कर दिया था.

सूरत और कलकत्ता के सरकारी लेदर रेगुलेशन ऑफिसों में जो टेलीग्राम पहुँचा था, दरअसल वह सैयद साहब की कम्पनी. एस.जे. लेदर कम्पनी की ओर से भेजा गया था. उस टेलीग्राम में साफ-साफ लिखा था कि "एस.जे. लेदर कम्पनी के मालिक सैयद सरफराज़ बेग की तबियत जो पिछले काफी समय से खराब चल रही थी अब और भी खराब हो गयी है. इसी वजह से अब वह कम्पनी से कारोबार से जुड़े फैसले नहीं कर सकते हैं, लिहाज़ा कम्पनी के सभी कारोबारी फैसले लेने का पूरा इख्तियार उन्होनें अपने सबसे बड़े बेटे फरीद अली बेग को दे दिया है. अब एस.जे. कम्पनी की तरफ से सभी को यह सूचना दी जाती है कि कम्पनी के सारे मामले अब से फरीद अली बेग की निगरानी में ही होंगे, और उन्हीं की मुहर और दस्तखत से ही कोई भी फैसला मुकम्मल समझा जायेगा, इसलिये फरीद अली बेग और सैयद सरफराज़ बेग के अलावा किसी की भी मुहर या दस्तखत से एस.जे. कम्पनी का कोई भी फैसला न माना जाये. किसी दूसरे इंसान के मुहर या दस्तखत भी तभी मुकम्मल माने जायेंगे जब फरीद अली बेग या फिर सैयद सरफराज़ बेग की तरफ से इस बात की तस्दीक कर दी जाये.

यह संदेश अथवा सूचना को, इसी प्रकार से टेलीग्राम के ज़रिये, जहाँ कहीं भी एस.जे. कम्पनी कारोबार में शामिल है, वहाँ के सरकारी विभागों में, और एस.जे. कम्पनी की प्रत्येक औद्योगिक ईकाई तक भेज दिया गया है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश के सभी व्यापार मंडलों को भी तार के ज़रिये और प्रदेश की जनता को प्रदेश के प्रमुख समाचार-पत्रों के माध्यम से भी यह सूचित कर दिया गया है. एस.जे. कम्पनी की तरफ से इसे अंतिम निर्णय माना जाये और तत्काल प्रभाव से लागू समझा जाये."

इसका मतलब यही था कि बिल्कुल ऐसा ही टेलीग्राम सूरत और कलकत्ता के अलावा कम्पनी की जयपुर, जालंधर, दिल्ली सहित बाकी सभी यूनिटों के दफ्तर में पहुँच गया था. इसके अलावा यू.पी. ट्रेड एंड कॉमर्स एसोसियेशन, यू.पी. लेदर ट्रेडर्स एसोसियेशन, उत्तर प्रदेश सरकार के उद्योग मंत्रालय व चमड़ा विभाग के दफ्तरों में भी बिल्कुल ऐसा ही तार भेज दिया गया था.

दरअसल हुआ ये था कि शुज़ा और मुराद के सौघरा से निकल जाने के बाद से ही सैयद साहब की तबियत में गिरावट आनी शुरु हो गयी थी, और बहुत ही जल्दी उनकी तबियत इतनी बिगड़ गयी थी कि फरीद ने नवजीवन अस्पताल में उन्हें तुरंत भर्ती कराया जहाँ फौरन उन्हें ऑक्सीज़न सिलेंडर चढ़ा दिया गया था. उन्हें अस्पताल ले जाये जाने के ठीक पहले ही सैयद साहब ने फरीद और उनके बेटे सुलेमान से तुरंत ही यह तार लिखने को कहा था, जिस से उनके अस्पताल में रहने के दौरान भाईयों में किसी तरह का कोई वाद-विवाद न हो.

यह टेलीग्राम जब कम्पनी की यूनिटों में पहुँचा तो किसी को भी कोई समस्या नहीं हुई थी, क्योंकि यह बात सभी जानते-समझते थे कि देर-सबेर ऐसा होना ही था. फरीद पर ही सैयद साहब और बाकी लोग भी सबसे ज़्यादा भरोसा करते थे और उन्हीं के हाथ में बागडोर आनी थी. लेकिन दिल्ली, सूरत, और कलकत्ता में कुछ लोग ज़रूर थे, जिनके कान खड़े हो गये थे.  

यह टेलीग्राम जब कलकत्ता में शुज़ा और सूरत में मुराद को दिखाया गया तो उनके पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गयी थी. जिस चीज़ को लेकर वह डर रहे थे, वही बात हो गयी थी. कहाँ तो वह अपनी कम्पनी की ओर से बात करने और लेदर सप्लाई के रेट का मसला सुलझाने आ रखे थे, और कहाँ तो वे अब कुछ भी नहीं थे. लेदर सप्लायरों ने अब उन दोनों से बात करने से भी अपने हाथ पीछे खींच लिये थे. यह शुज़ा और मुराद के लिये घोर बे-इज़्ज़ती थी, और इस से उनको बहुत बुरा लगना, और बहुत गुस्सा आना लाज़मी था.

मुराद को समझ में आ गया था कि शुज़ा को को भी यह जानकारी मिल ही गयी होगी. उन्होनें तुरंत ही शुज़ा को फोन मिला दिया. शुज़ा भी कलकत्ता में इसी बे-इज़्ज़ती का सामना कर रहे थे. उन्होनें झुंझलाते हुए फोन उठाया "हैलो?....कौन है?"

"भाईजान, मै हूँ, मुराद!"

खुद को काबू करते हुए शुज़ा ने कहा "कहिये मुराद.....सूरत में काम हुआ आपका?"

"काम तो क्या ही होना?.......अलबत्ता कांड ज़रूर हो गया है.........फरीद भाई ने बम फोड़ दिया है."

"यही तो समझ नहीं आ रहा है......इतने घटिया दर्जे तक कैसे गिर सकते हैं वो?.......या फिर किसी ने पाठ न पढ़ा दिया हो उनको!" शुज़ा ने अंदेशा जताया.

"कौन हो सकता है?"

"कोई भी हो सकता है......सुलेमान को देखा है? छटाँक भर का है, और खुद को शहज़ादे से कम नहीं समझता है.......या फिर दफ्तर का कोई आदमी भी हो सकता है. वैसे भी दफ्तर में फरीद भाई के आगे-पीछे घूम-घूम कर उनके तलवे चाटने वाले कम तो हैं नहीं......किसी ने उनके कान में बात फूँक दी होगी."

मुराद ने कहा "फिर भी भाईजान, इतना तो सोचना चाहिये था ना उनको कि मुराद और शुज़ा कुछ कारोबारी मामले सुलझाने गये हुए हैं.......थोड़ा हमारे लौटने का इंतज़ार ही कर लेते तो क्या बिगड़ जाता?"

शुज़ा ने कहा "मुझे लगता है कि आप सही कह रहे थे उस वक़्त कि अब्बू को उस हाल में छोड़कर हमें आना ही नहीं चाहिये था........फरीद भाई इसी मौके का शायद इंतज़ार ही कर रहे थे."

"बिल्कुल कर ही रहे थे.....उनकी तैयारी ज़रूर रही होगी, इसीलिये हमें हमारे मना करने के बावजूद भेजा......क्या खूब चालाकी दिखायी है फरीद भाई ने, मिर्ज़ा वहाँ औरंगाबाद में हैं अभी 15 दिन के लिये, मैं यहाँ सूरत में फँसा हूँ, और आप वहाँ कलकत्ते में. फरीद भाई को बिल्कुल खुला मैदान मिल गया था."

"मुझे तो डर लग रहा है अब्बू के बारे में.....उनकी बड़ी फिक्र हो रही है मुझे. कहीं फरीद भाई ने अब्बू को........" इतना बोलकर शुज़ा रुक गये. "......उनके साथ कहीं कुछ बुरा तो नहीं कर दिया इन्होनें?" शुज़ा ने फिर चिंता ज़ाहिर की.

"पता नहीं भाईजान, जब इंसान की नीयत ही खराब हो जाये तो वह कुछ भी कर सकता है, किसी भी हद तक नीचे गिर सकता है......फिर वह न बाप को गिनता है, ना ही भाई को." मुराद ने कहा.

"हम्म्म्म्म.....ठीक कह रहे हैं आप. मिर्ज़ा से बात हुई क्या?" शुज़ा ने पूछा.

"नहीं, अभी तक तो नहीं.....वैसे यह टेलीग्राम दिल्ली भी गया ही होगा मिर्ज़ा की यूनिट में. मिर्ज़ा तो दिल्ली से काफी दूर हैं अभी, और औरंगाबाद में भी व्यस्त होंगे अपने डिपार्टमेंट के कामों में."

"रुबैदा से कुछ खबर मिली क्या?"

"उनसे क्या मिलेगी खबर?.....औरत ज़ात हैं वो तो, फरीद भाई की कमीनापंती उनकी समझ में कहाँ आयगी?" मुराद ने जवाब दिया.

"मुझे बहुत बुरा लग रहा है, मेरे दिल में आ रहा है कि एक बार फरीद भाई को फोन करूँ और अपने अन्दर की पूरी भड़ास निकालूँ.......कितना बड़ा हरामखोर निकला ये आदमी!!" शुज़ा के मुँह से अपने बड़े भाई के लिये गाली निकल गयी.

"भड़ास निकालना तो एक बात है, उस से क्या हासिल होगा?.......अब वह करना होगा जिसके लिये मैं आपको काफी पहले से समझा रहा था." मुराद बोले.

"क्या?"

"यही कि अपने मामले हमें अब अपने हाथों में लेने होंगे........अपने बीवी-बच्चों को हम फरीद भाई के रहम-ओ-करम पर कतई नहीं छोड़ सकते........आज हमें रुसवा किया है इन्होनें सरेआम, कल हमारे परिवारों को ठोकर मार कर बाहर निकाल देंगे........ऐसा होने से पहले हमें कोई सख्त कदम उठाना होगा."

"जैसे?....क्या सख्त कदम?" शुज़ा ने जानना चाहा.

"पहले तो रुबैदा और शगुफ्ता भाभीजान को फोन कर दिया जाये कि बच्चों को लेकर वे दोनों सीधे अपने-अपने मायके निकल जायें......उसके बाद ही हम लोग मिलकर कुछ करेंगे. अकेले कोई काम करना ठीक नहीं रहेगा, फरीद भाई लच्छेदार बातें करने में हाकिम हैं.....उनकी बातों में नहीं आयें, इसलिये मिलकर ही उनको सबक सिखाना होगा."

"हाँ, मगर करेंगे क्या हम?" शुज़ा ने पूछा.

उधर दिल्ली वाली यूनिट में जब वह टेलीग्राम पहुँचा तो वहाँ यूनिट में माहौल खराब हो गया था. यूनिट के लोग मिर्ज़ा को बहुत पसंद करते थे, और उन्हीं की सरपरस्ती में काम करना चाहते थे. मिर्ज़ा की सरपरस्ती में ही वहाँ का स्टाफ मलाई खा रहा था, ऐसे में किसी और की बात वह क्यों सुनते? वहाँ के मैनेजर ने औरंगाबाद फोन करके मिर्ज़ा को उस टेलीग्राम में लिखी बातों के बारे में तफ्सील से बताया और कहा कि यूनिट का स्टाफ किसी और का ऑर्डर मानने को कतई तैयार नहीं है. मिर्ज़ा ने सारी बात ध्यान से सुनी और उन्हें बिना कोई शोर मचाये, बगैर किसी धरना-प्रदर्शन के पहले की तरह काम जारी रखने को कहा. मिर्ज़ा ने कहा कि दिल्ली आकर फिर वह सारा मामला खुद देख लेंगे.

शाम को चाय पर जब फरीद अपने बच्चों के साथ बैठे तो शुज़ा और मुराद के बच्चे नज़र नहीं आये. उन्होनें हँसकर पूछा "अरे!! फौज के बाकी सिपाही कहाँ हैं?"

रसोई में से परेशान होकर निकलती हुई नादिरा ने जवाब दिया "रुबैदा और शगुफ्ता बिना कुछ भी बताये, बच्चों के साथ अपने-अपने मायके चली गयीं हैं आज दोपहर में ही."

"क्यों भला? बच्चों की तो ऐसी कोई छुट्टियाँ भी नहीं हैं अभी तो?....खैरियत तो है सब?"

"पता नहीं, मैंने पूछा तो दोनों ने ही कोई जवाब दिया नहीं

इधर शाम को ही शुज़ा ने गुस्से में आकर फरीद को फोन लगा दिया था. फरीद अस्पताल में थे, घर पर सुलेमान ने फोन उठाया "हैलो?"

"हाँ, मैं बोल रहा हूँ शुज़ा, कलकत्ते से."

"जी चचाजान, अस्सलाम वालेक़ुम."

"तुम्हारे अब्बू कहाँ हैं?....बुलाओ उनको, कुछ ज़रूरी बात करनी है." शुज़ा ने उखड़ी हुई आवाज़ में कहा.

"अब्बू तो अस्पताल में हैं चचाजान, दादा जी के पास."

"अच्छा, तो ज़िंदा हैं दादाजी?"

"क्या मतलब?.....मैं समझा नहीं चचाजान."

"तुम क्यों समझोगे बरखुरदार?....जिस इन्सान की औलाद हो तुम. सभी के आगे बहुत सीधे और पाक साफ बने रहते हैं तुम्हारे अब्बू, और दिल में इतना ज़हर भरा है उनके अंदर!!" दाँत पीसते हुए शुज़ा ने कहा.

"चचाजान क्या बोल रहे हैं आप?" गुस्से में सुलेमान ने कहा.

"तुम दोनों बाप-बेटे को तो मैं वहाँ आकर समझाता हूँ." यह कहकर शुज़ा ने फोन रख दिया.

थोड़ी देर के बाद बिल्कुल इसी तरह की जली-कटी सुलेमान ने मुराद के मुँह से भी सुनी. मुराद ने भी थोड़ी देर बाद फरीद से बात करने के लिये सूरत से फोन किया था.

रात को जब फरीद अस्पताल से वापस आये तो सुलेमान ने उन्हें सारी बात बताई. फरीद समझ गये थे कि टेलीग्राम भेजे जाने से मुराद और शुज़ा दोनों ही बहुत गुस्से में आ गये थे. दोनों की बीवियाँ भी मायके क्यों चली गयीं थीं, उनकी समझ में अब धीरे-धीरे यह बात भी आ रही थी. उन्होनें तुरंत ही मुराद को फोन किया. मुराद ने फोन उठाया "हैलो?"

"हैलो मुराद, मैं फरीद."

फरीद का नाम सुनते ही मुराद आपा खो बैठे "अच्छा,……अब किसलिये फोन किया है आपने?......जानने के लिये कि ज़िंदा हैं या मर गये?......तो सुनिये, ज़िंदा हैं हम और इतनी जल्दी नहीं मरने वाले."

फरीद ने कहा " पहले हमारी बात तो सुनिये...." लेकिन फरीद अपनी बात खत्म भी नहीं कर पाये थे कि मुराद बीच में ही गरजे "…….हो गया आपके मन का?....पड़ गयी कलेजे पर ठंडक?......अब तो खुश हैं ना आप? बीच बाज़ार हमें नंगा करके छोड़ दिया आपने फरीद भाई!!.....जायदाद और कारोबार पर ही नज़र थी आपकी तो हमें पहले ही बता दिया होता आपने......लेकिन ये जो किया है ना आपने, ये बहुत ही घटिया काम किया है......और इसकी कीमत चुकानी होगी आपको."

"क्या मतलब?.....धमकी दे रहे हैं मुराद आप हमें?.....वो भी एक टेलीग्राम के लिये?.....अरे अब्बू ने ही लिखवाया था वो हमसे." फरीद ने गुस्से मे कहा.

"झूठ बोल रहे हैं आप?....अब्बू को जान से मार दिया है आपने!!.....और यही मौका देख रहे थे आप कि हम दोनों कब सौघरा से दूर जायें, मिर्ज़ा कब दिल्ली से दूर जायें, और कब आपको अपनी घिनौनी साजिश अंजाम देने का मौका मिले, और आप हम तीनों भाईयों को बेदखल करके खुद ही पूरे कारोबार और जायदाद पर कब्ज़ा कर लें......और आपने बिल्कुल यही किया हम सबकी गैर-हाजिरी में!!!.......आप सा कमीना नहीं देखा फरीद भाई, बिल्कुल नहीं देखा."

"होश में तो हैं मुराद?....अपनी घटिया ज़बान को लगाम दीजिये.....शायद आप अभी नशे में धुत्त हैं, हम कल बात करेंगे आपसे." फरीद ने डाँटा.

मुराद ने ऊँची आवाज़ में कहा "कोई नशे में धुत्त नहीं हूँ मैं फरीद भाई!!!.....नशे में तो अभी तक धुत्त था कि हमारा बड़ा भाई कितना नेकदिल और शरीफ है.....हमें क्या पता था कि उसके अंदर ऐसा ज़हर भरा पड़ा है.....लेकिन एक बात सुनिये फरीद भाई, इस बात का बदला तो ज़रूर लेंगे हम आपसे.....छोड़ेंगे नहीं आपको हम!!!.....कतई नहीं छोड़ेंगे!!.....हमें सड़क पर लाने का आपका ख्वाब कभी पूरा नहीं होगा, बल्कि हम आपको और आपके उस सुलेमान को ले आ देंगे सड़क पर!!!.......आप जैसे कमीने इंसानों की जगह सड़क पर ही है!!"

सुलेमान का ज़िक्र सुनकर फरीद का पारा चढ़ गया. फरीद ने तैश में आकर कहा "आपको क्या लगता है मुराद?.....हमारे हाथ में दही जमी हुई है?.......या फिर हमने चूड़ियाँ पहन रखी हैं हाथों में?......गौर से सुनिये मुराद, सुलेमान यतीम नहीं है.......उसका बाप ज़िंदा है अभी!!.....और एक बात और कान खोलकर अच्छी तरह से सुन लीजिये, और समझ भी लीजिये.......कि ये कारोबार और जायदाद हमारी थी और हमारी ही रहेगी!!!.......किसी दारूबाज़ के हाथ, जो खुद को भी नहीं सम्भाल सकता है, पैमाने तक नहीं सम्भाल सकता है, उसे इतने बड़े कारोबार की बागडोर किसी कीमत पर नहीं दी जा सकती है, इसीलिये शायद अब्बू ने वो टेलीग्राम लिखवाया था……अब मेरी समझ में आ रहा है, उन्हें आप लोगों की नाकाबिलीयत और बदनीयती का ज़रूर अंदाज़ा रहा होगा. यही वजह है मुराद कि आज तक कारोबार में आपको केवल नाकामियाँ ही मिली है.......कारोबार में कोई बरकत नहीं की है आपने.......अब्बू का हाथ हटा दिया जाये, तो किसी लायक ही नहीं हैं आप!!.......सपने मत देखिये, औकात नहीं है आपकी!!"

मुराद ने कहा "ये तो वक़्त ही बतायेगा फरीद भाई!!......कारोबार में आपने अपने दम पर क्या बरकत की है वो सब हमें भी पता है......किसकी औकात कितनी है, हम खूब जानते हैं.....और रही बात अब्बू के हाथ की, तो वो तो हमारे ऊपर से आपने हटा ही दिया है........अब आप हमारे सौघरा आने का इंतज़ार कीजिये फरीद अली बेग!!!......और गौर से एक बात अपने ज़ेहन में बहुत अच्छी तरह से उतार लीजिये......कि कारोबार के मालिक आप नहीं होंगे………कतई नहीं होंगे, बल्कि मालिक वह होगा जो मालिक होने के काबिल होगा!!!" और यह कह कर मुराद ने फोन नीचे रख दिया.

हैरान और परेशान होकर फरीद ने कलकत्ता में शुज़ा को फोन किया. शुज़ा से भी फरीद को वही सब सुनने को मिला जो मुराद से उन्होनें सुना था, बल्कि शायद उस से भी बुरा और भी बहुत कुछ. मुराद और शुज़ा ने यही समझा था कि सैयद साहब को फरीद ने मार दिया है और उन दोनों से झूठ बोला जा रहा है कि वह टेलीग्राम सैयद साहब ने लिखवाया था. असल में कारोबार और जायदाद पर शुरु से ही फरीद की बुरी नज़र थी और शुज़ा और मुराद के बाहर जाते ही फरीद को सुनहरा मौका मिल गया था. अपने भाईयों की इस समझ पर और फोन पर उन लोगों से जो बात हुई थी, उससे फरीद बिल्कुल दंग रह गये थे. वह इतने हैरान थे कि वह यह भी भूल गये थे कि उनका एक और भाई है, जो अभी औरंगाबाद में है, और उसको भी फोन करना चाहिये था. मिर्ज़ा को फरीद फोन नहीं कर सके थे.

रात को खाने के बाद फरीद ने नादिरा और सुलेमान से इस बारे में बात की. नादिरा और सुलेमान इस बात से काफी डर गये थे और गुस्से में आ गये थे. खास तौर पर नादिरा को यह बात बहुत नागवार गुज़री थी कि शुज़ा और मुराद, फरीद के साथ-साथ सुलेमान को भी नुकसान पहुँचाने की बात कर रहे थे. नादिरा ने चिढ़कर कहा "सूप बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें हज़ारों छेद!!!.....मुराद और शुज़ा की औकात ही क्या है आपके आगे? क्या हम लोग नहीं जानते उनकी असलियत?.....वो हैं ही किस लायक?.......कारोबार चलायेंगे वो?.....जिसके खुद के कदम सही नहीं पड़ते हैं, वो इतना बड़ा कारोबार चलाने का ख्वाब देख रहा है?.......करोबार के लिये आज तक किया ही क्या है मुराद ने?........मुराद की शादी ही इसलिये की गयी ताकि वह सही राह पर आ जायें, नहीं तो एकदम नाकारा, निकम्मे और नालायक ही थे वो……और अभी भी हाल कुछ अलग नहीं है उनका, बस जो पहले सौ था, अब पचास है.......और सुलेमान के बारे में कैसे बोल गये वो?......इतनी बड़ी हिम्मत कैसे हो गयी उनकी?" उन दोनों को ही मुराद और शुज़ा के इरादे ठीक नहीं लग रहे थे. उन्हें लग रहा था कि शुज़ा और मुराद करोबर की पूरी ज़िम्मेदारी फरीद को दिये जाने से खफा हैं, और वे लोग फरीद या सुलेमान को नुकसान पहुँचाने की कोशिश ज़रूर कर सकते हैं. वो दोनों बार-बार फोन पर बदला लेने की बात कर रहे थे. इसी वजह से बीवी ने फरीद को सलाह दी कि भाईयों को समझाना-बुझाना अपनी जगह है, और अपनी और अपने परिवार की हिफाज़त करना अपनी जगह है. सुलेमान उनका सबसे बड़ा बेटा है और उसकी तरफ गलत नीयत से बढ़ने वाले हर हाथ को रोकना उसके माँ-बाप का फर्ज़ है. 

24 बरस के जवान बेटे सुलेमान के तेवर ही कुछ अलग थे. उसने गुस्से में कहा "मुराद और शुज़ा चचाजान सम्भालेंगे कारोबार?.......मिर्ज़ा चचाजान कहते तो एक बारी समझ में भी आता, लेकिन ये दोनों?......ये दोनों किस लायक हैं?......दादाजी ने एक भी यूनिट की ज़िम्मेदारी इन दोनों को नहीं दी है अभी तक. पता है क्यों?.....क्योंकि दादाजी को इनकी कुव्वत के बारे में खूब पता है. दादाजी जानते हैं कि ये दोनों नालायक थे, नालायक ही हैं, और नालायक ही रहेंगे........ये कारोबार आपने खड़ा किया है अब्बू, और इस पर सबसे पहला हक़ आपका ही है, और आपका यह हक़ आपसे कोई छीन नहीं सकता है.....और रही बात आपको नुकसान पहुँचाने की तो मैं भी देखता हूँ कि मुराद और शुज़ा चचाजान अपने इस मंसूबे में कैसे कामयाब होते हैं!!!.......आपकी ओर उठने वाले हर हाथ को काट दूँगा!!.....हर बुरी नज़र को फोड़ दूँगा अब्बू मैं!!!......एस.जे. कम्पनी के मालिक फरीद अली बेग यानि हमारे अब्बू ही होंगे, बस!!!!"  

नादिरा ने फरीद से कहा कि जयपुर से कस्तूरिया जी को सूरत जाकर मुराद को समझाना चाहिये, और अगर इसके लिये ज़ोर-ज़बरदस्ती भी करनी पड़े तो वो भी करने में कोई हर्ज नहीं है. मुराद और शुज़ा भले ही फरीद के छोटे भाई हों, भले ही फरीद उनसे कितना भी प्यार करते हों, फरीद और सुलेमान को नुकसान पहुँचाने की इजाज़त किसी को, किसी भी सूरत में नहीं दी जा सकती.

रात भर फरीद, मुराद और शुज़ा के बारे में सोचकर करवटें ही बदलते रहे. उनकी आँखों में नींद नहीं थी. अपने भाईयों के इस रवैये से वह काफी दु:खी और गुस्से में भी थे. उम्र भर हमेशा उन्होनें इन दोनों भाइयों की तमाम गलतियाँ सैयद साहब से, और दुनिया भर से छिपायी थीं. कारोबारी मामलों में अपने भाईयों की नाकामियों का भी फरीद ने हमेशा बचाव ही किया था. हर कोई जानता था कि ये दोनों भाई किसी लायक नहीं थे फिर भी फरीद हमेशा इन्हें साथ लेकर ही चले थे. कहीं अगर किसी मौके-बेमौके, किसी बात पर अगर इन्हें अली साहब या सैयद साहब की डाँट पड़नी हुई, वहाँ भी फरीद इन लोगों की ढाल बनकर खड़े हो जाते थे, और इन्हें बचा ले जाते थे. उनके बच्चों को अपने बच्चों से भी ज़्यादा प्यार करते थे फरीद, जिस से किसी तरह की कोई गलतफहमी घर-परिवार में न पनपने पाये. क्या कुछ नहीं किया था उन्होनें इन दोनों के लिये? लेकिन आज जो कुछ उनके साथ इन दोनों भाईयों ने किया था, उस से वह काफी सदमे में थे.

लेकिन एक बात जो अभी-अभी उनके दिमाग में आ रही थी, उस बात से वह और परेशान हो गये थे कि मिर्ज़ा से अब तक उनकी बात नहीं हो पायी थी. मिर्ज़ा ने भी उन्हें फोन नहीं किया था, जबकि वह टेलीग्राम तो सुबह ही दिल्ली पहुँच गया होगा, और वहाँ के लोगों ने भी मिर्ज़ा को ज़रूर खबर कर दी होगी, फिर आज पूरा दिन बीत गया, रात बीतने चली है, मिर्ज़ा ने एक भी फोन तक क्यों नहीं किया?..........आखिर मिर्ज़ा क्या सोच रहे होंगे?.....मिर्ज़ा का क्या इरादा होगा?......वह क्या योजना बना रहे होंगे?........क्या वह भी ऐसा ही सोच रहे होंगे जैसे शुज़ा और मुराद सोच रहे हैं?......क्या उन्होनें शुज़ा या मुराद से बात की होगी?.......क्या मिर्ज़ा भी एस.जे. कम्पनी के मालिक बनने की ख्वाहिश रखते होंगें?.......और अगर वाकई में वो ऐसी ख्वाहिश रखते होंगे, तो फिर मिर्ज़ा को रोक पाना तो नामुमकिन है.......दौलत, ताकत, अकलमंदी और हिम्मत, चारों ही मामलों में फरीद तो क्या, घर में कोई भी मिर्ज़ा के आगे टिक नहीं सकेगा. क्या मिर्ज़ा शुज़ा और मुराद के सथ मिलकर कुछ खेल कर करहे हैं?......" अभी तक शुज़ा और मुराद के बारे में सोचने वाले फरीद अब मिर्ज़ा के बारे में सोचकर परेशान थे.

यही सब सोचते-सोचते कब सुबह हो गयी, उन्हें पता भी न चला.

सुबह उठते ही फरीद ने पहला फोन कस्तूरिया जी को किया. कस्तूरिया जी को सारी बातें बताकर फरीद ने पूछा "क्या हो सकता है इसमें कस्तूरिया जी?.....मेरे अपने छोटे भाई हैं वो दोनों, मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि हमारे हाथ से गलती से भी ऐसा कुछ हो जिस से हमारे दरम्यान गलतफहमियाँ और भी ज़्यादा बढ़ जायें."

"फिर भी फरीद, उन्होनें आपको और सुलेमान को नुकसान पहुँचाने की धमकी दी है......अपने बीवी-बच्चों को भी मायके भिजवा दिया है.....ये सब क्या है?......जबकि आपने तो कभी कुछ नहीं बोला ऐसा कि उनके बीवी-बच्चों को आप कुछ नुकसान पहुँचाने वाले हैं.......ये तो जाहिलियत है!!.......और फिर जब तार सैयद साहब ने ही लिखवाया था तो दिक्कत क्या है इसमें?" कस्तूरिया जी ने गुस्से से कहा.

"उन्हें लगता है कि मैंने अब्बू को मार दिया है, और उनसे झूठ बोला है.....वो सोचते हैं कि कारोबार और जायदाद पर मेरी नज़र थे और उन्हें यहाँ से दूर भेजकर मैंने अपना मंसूबा पूरा करने की साजिश रची है."

"क्या वाहियात बात है ये?....उन्हें अपना सिर फोड़ लेना चाहिये." कस्तूरिया जी अभी भी गुस्से में थे.

"वो सब छोड़िये, वो बातें तो हो चुकीं.....रास्ता बताइये कि क्या करना है?"

"मेरे कुछ लोग सूरत में हैं, मैं बात करता हूँ उनसे किस वे लोग जाकर मुराद को समझायें और उनकी गलफहमी दूर करें."

रात फरीद से फोन पर झगड़ा होने के बाद मुराद को मिर्ज़ा का फोन आया था. मुराद ने फोन उठाया "हैलो?"

"अस्सलाम वालेकुम मुराद, मैं मिर्ज़ा औरंगाबाद से."

"वालेकुम अस्सलाम भाईजान......कैसे हैं आप वहाँ?"

"सरकारी दामाद कैसा होता है किसी भी जगह?" मिर्ज़ा ने हँसकर कहा, फिर पूछा "आप कैसे हैं वहाँ?.....सप्लायर वाला मसला हल हुआ?"

गुस्से में भरे बैठे मुराद ने सारी बात मिर्ज़ा को बता दी और कहा "यही माजरा है भाईजान, फरीद भाई ने अपनी औकात दिखा दी."

"और आपने भी फोन पर सुना दिया उन्हें?" मिर्ज़ा ने हँसकर कहा.

"तो आप ही बताइये भाईजान, मेरी जगह कोई भी इंसान होता तो क्या करता?.......बीच बज़ार में नंगा करके छोड़ दिया हमें हमारे बड़े भाई ने......और तेवर देखिये, वो कह रहे थे कि कारोबार और जायदाद पर सिर्फ उनका हक़ है......ऐसा कैसे हो सकता है?......मुझसे बोल रहे थे कि हमने चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं हाथों में."

मिर्ज़ा ने कहा "मैं यह कतई नहीं कह रहा कि आपने गलत किया......आपने बिल्कुल सही किया, लेकिन अब्बू का हाथ हमेशा ही फरीद भाई के साथ रहता था......इसलिये फरीद भाई की गलती कोई नहीं मानेगा. उनसे निपटने के लिय आपको और शुज़ा को साथ आना होगा."

"क्यों?....हमें और शुज़ा को ही क्यों?....क्या आप नहीं देंगे हमारा साथ?"

"हम बिल्कुल आपके साथ हैं मुराद, लेकिन हमारा रिकॉर्ड घर-परिवार और शायद समाज, और कम्पनी के स्टाफ की नज़र में भी खराब ही माना जाता है.......हमारी तीन-तीन शादियों के चलते अब्बू हमें पसंद भी नहीं करते थे, और इसलिये बाकी लोग भी हमें पसंद नहीं करते हैं.....अब्बू ने तो कुलसूम और नूर के घर में आने पर भी रोक ही लगा रखी है. हमारे बच्चों को भी वह देखना नहीं चाहते हैं. हमें डर है कि हमारे आपके साथ आने से शायद आपको समस्या हो जाये......लेकिन ये याद रखिये, हम हमेशा ही आपके और शुज़ा भाईजान के साथ हैं.......आपको जो भी मदद की दरकार हमसे होगी, आप हमें बताइयेगा. हम आपकी हर मुमकिन मदद करेंगे......और आपने सही कहा कि कारोबार का मालिक वही होगा जो मालिक होने के काबिल होगा......और वो काबिलियत आपके अंदर है मुराद........फरीद भाई कितने काबिल हैं, क्या हम लोगों को पता नहीं है? कानपुर, माधवपुर का मामला सुलझाते-सुलझाते इनका दम निकल गया था. जालंधर का भी प्रोजेक्ट इन्होनें नहीं बल्कि कस्तूरिया जी और हमारी वजह से मुकम्मल हुआ था......और वैसे भी, इनकी जालंधर वाली यूनिट से ज़्यादा मुनाफा तो हम लोगों की दिल्ली वाली यूनिट दे रही है. फरीद भाई की काबिलियत का बखूबी अंदाज़ा है हमें, आज से नहीं बल्कि बचपन से ही. उस दिन कारखाने में आग लगी थी, बड़ी आपा और रुखसार आपा लपटों में घिर गयीं थीं, तब ये कहाँ थे?......सीधे दुम दबा कर भाग खड़े हुए थे ये......और ये आपको काबिलियत का पाठ पढ़ा रहे हैं?.........आप और शुज़ा मिलकर काम कीजिये, उसके बाद हम लोग कोई तरकीब निकालकर शुज़ा को बैठा देंगे, और आप ही एस.जे. कम्पनी के मालिक होंगे." मिर्ज़ा ने कहा.

मुराद सुन रहे थे.

"लेकिन ये बात सिर्फ हमारे और आपके बीच रहनी चाहिये मुराद......शुज़ा से इस बाबत कोई ज़िक्र ना कीजियेगा. हम दिल से चाहते हैं कि कारोबार और जायदाद के मालिक आप हों." मिर्ज़ा ने आगे कहा.

"जी बिल्कुल. ठीक है, हम शुज़ा से कुछ नहीं कहेंगे. क्या फरीद भाई से बात हुई आपकी?" मुराद ने पूछा.

"नहीं, मैं यहाँ होम मिनिस्ट्री के कामों, ट्रेनिंग और वर्कशॉप वगैरह में काफी बिज़ी हूँ.....मेरी फरीद भाई से कोई भी बात नहीं हुई है, अलबत्ता दिल्ली के हमारे स्टाफ ने हमें उस टेलीग्राम के बारे में बताया था."

"आपसे मुलाकात कब होगी भाईजान?" मुराद ने पूछा.

"अभी तो यहाँ ट्रेनिंग के चार दिन हैं, फिर आखिरी दिन कॉन्फ्रेंस है………दिल्ली से होम मिनिस्टर साहब खुद ही आयेंगे होम सेक्रेटरी के साथ…….वो सारा तामझाम खत्म हो, उसके बाद ही हम यहाँ से फारिग हो पायेंगे. ऐसा करते हैं कि हम यहाँ से दिल्ली न जाकर आपके पास सूरत ही आते हैं."

"बहुत अच्छे भाईजान, आपके आने से हमें भी काफी हिम्मत मिल जायेगी." मुराद ने कहा.

"ठीक है भाईजान, अपना ख्याल रखियेगा......खुदा हाफिज़!!" मुराद ने यह कहकर फोन रख दिया.

"आप भी अपना ध्यान रखियेगा." मिर्ज़ा ने भी मुस्कुराते हुए फोन नीचे रखा था.

इसके बाद मिर्ज़ा ने शुज़ा को भी फोन करके वही सब बातें की थीं और शुज़ा को भी हर मुमकिन मदद का भरोसा दिलाया था. मिर्ज़ा ने यह भी कहा था कि कारोबार और जायदाद का मालिक बनने के लिये शुज़ा ही चारों भाइयों में सबसे बेहतर हैं. मिर्ज़ा ने यह भी कहा कि अभी वक़्त है कि शुज़ा और मुराद मिलकर फरीद को सबक सिखाने का काम करें, फिर आगे चलकर कोई तरकीब निकालकर मुराद को बैठा दिया जायेगा, और पूरी एस.जे. कम्पनी के मालिक शुज़ा ही होंगे. मिर्ज़ा ने यह भी कहा था कि यह बात सिर्फ उनके और शुज़ा के बीच में ही रहनी चाहिये और किसी भी हाल में मुराद को इसकी खबर न हो. शुज़ा ने भी उनसे वायदा किया था कि मुराद से वह कुछ नहीं बतायेंगे कि मिर्ज़ा के साथ उनकी क्या बात हुई.

मिर्ज़ा ने शुज़ा को यह नहीं बताया था कि ट्रेनिंग और कॉन्फ्रेंस खत्म होने के बाद उनका मुराद के पास सूरत जाने का प्लान है. मुस्कुराते हुए फोन रखने के बाद मिर्ज़ा ने आराम से खाना खाया जो एक नौकर उनके कमरे में पहुँचा गया था. खाना खाने के बाद मिर्ज़ा आराम से अपने मखमली बिस्तर पर सो गये. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि उनके तीनों भाई उस रात सो नहीं सके थे.

अगली सुबह मिर्ज़ा ने ट्रेनिंग पर जाने से ठीक पहले फरीद को फोन किया. फरीद ने फोन उठाया "हैलो?"

"अस्सलाम वालेकुम भाईजान, मैं मिर्ज़ा औरंगाबाद से."

"वालेकुम अस्सलाम भाई, कैसे हैं आप वहाँ?"

"मैं ठीक हूँ भाईजान. आप लोग कैसे हैं?.....सब खैरियत?.....सूरत और कलकत्ता में ठीक हैं दोनों भाई हमारे?"

परेशान फरीद ने सारी बातें मिर्ज़ा को बतायीं. उन्होने कहा "बताइये मिर्ज़ा, अभी अब्बू ज़िंदा हैं, अस्पताल में हैं....हम सब उनके सेहतयाब होने की दुआ कर रहे हैं, लेकिन इन दोनों बेवकूफों के बारे में अब क्या ही कहा जाये?.......ये इतनी घटिया बात सोच भी कैसे सकते हैं?.....मैं मारूँगा इनके बीवी-बच्चों को?.......मैं मारूँगा अपने अब्बू को?.....वो भी इस कारोबार और जायदाद के लिये?......अरे मिर्ज़ा, सब यहीं रह जायेगा, कुछ साथ नहीं जायेगा.......गीता में कहा है भगवान ने......"

मिर्ज़ा ने कहा "जी, जी, बिल्कुल जायज़ बात है यह तो.......वैसे भाईजान, इन लोगों को दिक्कत क्या है?.....जब तार अब्बू ने लिखवाया था, और अभी जबकि अब्बू अस्पताल में ही हैं, इनको क्या प्रॉब्लम हो रही है?......अब्बू की मर्ज़ी है ये तो, कारोबार और जायदाद का मालिक जिसे चाहें बनायें वो. आखिर हमारे कारोबार, हमारे घर-परिवार की बेहतरी अब्बू से बढ़कर और कौन सोच सकता है?......अब्बू के फैसले पर इन्हें शक क्यों है? और वैसे भी भाईजान, जब अब्बू ने आपको कारोबार का मालिक मुकर्रर किया है, तो कुछ सोच-समझ कर ही किया होगा ना!!......अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिये इन दो बेवकूफों को, कि कारोबार को आगे बढ़ाने के लिये इन्होने क्या किया है आज तक? हमारी इतनी सारी यूनिटें काम कर रही हैं, मुराद और शुज़ा को एक भी यूनिट का मालिक बनाने लायक नहीं समझा अब्बा हुज़ूर ने......ये बात इनको समझ में क्यों नहीं आती?......अब्बू जानते हैं कि इन दोनों के पास वह काबिलियत बिल्कुल भी नहीं है कि ये दोनों अच्छी तरह से इतना बड़ा कारोबार चला सकें. जालंधर का जैसा प्रोजेक्ट आपने पूरा किया, दस जन्मों में भी नहीं कर सकते ये दोनों.......अरे ये हमारे भाई हैं, बचपन से ही देखते आ रहे हैं हम लोग इनको, और अच्छी तरह वाकिफ हैं इनकी कुव्वत से!!!......दुनिया का हर बाप अपने बच्चों की काबिलियत के बारे में अच्छी तरह से जानता है, और उसी के मुताबिक उन्हें ज़िम्मेदारियाँ देता है. लखनऊ से जयपुर, जालंधर तक के मसले सुलझाने होंगे, और वो सारे काम शुज़ा या मुराद के बस के नहीं है भाईजान.......ये काम केवल आप ही कर सकते हैं, इसीलिये अब्बू ने आपको ही जानशीन चुना है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है."

"अब क्या बोलूँ मैं इन दोनों से?" फरीद निराश लग रहे थे. उन्होनें आगे कहा "...और वो लोग अगर मेरे तक रहते तब भी बात थी मिर्ज़ा.....वो लोग सीधे सुलेमान तक पहुँच गये.....बताइये, कितनी गलत बात है यह?.....बात हम भाईयों के बीच की है, बच्चों को निशाना क्यों बनाया जाये इसमें?......क्या मैंने उनके बीवी-बच्चों को लेकर कुछ कहा क्या?.......उनके बच्चों को तो हम अपने बच्चों से भी ज़्यादा प्यार करते हैं मिर्ज़ा.....फिर भी यह बात कही उन्होनें."

"मुराद का तो दिमाग शुरु से खराब है ही.....लेकिन शुज़ा से यह उम्मीद नहीं थी......ये तो कतई गलत बात है. बच्चों का ज़िक्र तो बीच में आना ही नहीं चाहिये था." मिर्ज़ा ने कहा.

"वही तो मिर्ज़ा!!....हम और नादिरा डर गये हैं जब से यह बात हुई है. रात भर कल हम सो नहीं पाये." फरीद ने चिंता ज़ाहिर की.

"तो कुछ सोचा है आपने?.....इस मसले को कैसे सुलझाया जाये?....उनके दिल से गलतफहमियाँ कैसे निकाली जाये?"

"कस्तूरिया साहब से बात की थी हमने. उनकी जान-पहचान के लोग हैं सूरत में......वो लोग मुराद के पास जाकर सारी बात तफ्सील से समझायेंगे उनको और उनकी गलतफहमियाँ दूर करने की कोशिश करेंगे." फरीद ने कहा.

"और शुज़ा भाईजान के लिये?"

"कलकत्ते में भी हमारी अच्छी जान-पहचान है, उसके ज़रिये हम शुज़ा को भी राज़ी करने की कोशिश करेंगे." फरीद बोले.

"ठीक है भाईजान, हमारी आज की ट्रेनिंग का वक़्त हो रहा है. शाम को वापिस आकर आपसे बात करते हैं." इतना कहकर मिर्ज़ा ने जल्दी फोन नीचे रखा और तुरंत ही मुराद को फोन मिलाया. मुराद ने फोन उठाया "हैलो?"

मिर्ज़ा बहुत जल्दी में लग रहे थे "हैलो, मुराद......मैं मिर्ज़ा...जल्दी में हैं हम, ट्रेनिंग का वक़्त हो रहा है........आप हमारी बात सुनिये. अभी खबर मिली है हमें कि सूरत में कस्तूरिया जी की जान-पहचान के कुछ लोग रहते हैं, उन्हीं के ज़रिये हो सकता है फरीद भाई आप पर हमला करवाने की कोशिश करें, जिस से आप सौघरा न आ सकें, और अगर आ भी गये, तो कुछ कर न सकें.......आप अपना ख्याल रखियेगा और अपनी लोकेशन बदलते रहियेगा.....अपनी लोकेशन के बारे में किसी को मत बताइयेगा, सिर्फ हमें और शुज़ा को बताते रहियेगा......और सुनिये, अपने कुछ खास आदमी आप भी तैयार कर लीजिये, जिससे किसी भी अनहोनी से आप निपट सकें......अच्छा मैं निकलता हूँ क्लास के लिये, देर हो रही है." और मिर्ज़ा ने फोन नीचे रख दिया.

उसके बाद बिल्कुल ऐसा ही फोन उन्होनें कलकत्ता में शुज़ा को किया और उन्हें भी बहुत एहतियात बरतने की हिदायत दी. उन्होने शुज़ा से कहा कि वह भी अपनी जगह बदलते रहें और मिर्ज़ा और मुराद के सम्पर्क में रहें, साथ ही अपने आस-पास कुछ हथियारबंद लोग ज़रूर रखें.

मिर्ज़ा ने उसके बाद अपने सबसे खास आदमी दीवान को फोन किया जो उस समय सौघरा में था. मिर्ज़ा ने दीवान को साफ हिदायत दी कि वह और उसके खास लोग फरीद और सुलेमान पर पैनी नज़र रखें और लगातार मिर्ज़ा को बताते रहें. मिर्ज़ा जानते थे कि फरीद या सुलेमान कितने ही शरीफ और तमीज़दार क्यों न हो, इन बदले हुए हालातों में वे कुछ न कुछ गलती ज़रूर कर बैठेंगे, इसलिये मिर्ज़ा ने दीवान को सारे बातें समझा कर उन बाप-बेटे पर नज़र रखने को कह दिया था.

मिर्ज़ा का फोन आने के बाद मुराद और शुज़ा की नफरत अपने बड़े भाई के लिये और भी बहुत ज़्यादा बढ़ चुकी थी. मुराद ने शुज़ा को फोन करके कहा "देखा आपने भाईजान!!!.....अब ये नौबत भी आ ही गयी इस घर में कि छोटे भाईयों को मारने के लिये बड़ा भाई गुंडे भेज रहा है." शुज़ा ने कहा "हाँ, यही हो रहा है....मुझे भी उड़ती-उड़ती खबर मिली है कि कलकत्ते में फरीद भाई अपने आदमियों से हम पर हमला करवा सकते हैं.....ये कमज़र्फ, नालायक आदमी इतना गिर जायेगा, ये सपने में भी नहीं सोचा था."

दोनों भाईयों के बीच यही तय हुआ कि अब फरीद को उसी ज़बान में जवाब दिया जायेगा जिसमें वो समझना चाहते हैं.

पिछले दो दिन में दो अलग-अलग होटलों में मुराद कमरे बदल चुके थे, साथ में अपने साथ कुछ हथियारबंद आदमी भी मुस्तैद रखे थे. अगले दिन वह रात में सो रहे थे, जब अचानक होटल के पास ही गोलियों की तड़तड़ाती आवाज़ें आने लगीं थीं. मुराद की नींद खुल गयी थी, और अपनी पिस्तौल निकालकर वह भी बिल्कुल तैयार हो गये थे. अचानक उनके दरवाज़े पर बहुत तेज़ दस्तक हुई. अंदर से मुराद ने ऊँची आवाज़ में कहा "कौन है?"

बाहर से दूसरे आदमी की हाँफती हुई आवाज़ आयी "मुराद भाई!!.....मैं रहमत हूँ.....कुछ अनजान आदमियों ने हम पर हमला कर दिया है......हम लोग लड़ रहे हैं......आप बस अंदर ही रहियेगा, कतई बाहर न आइयेगा.....हम सब सम्भाल लेंगे." फिर वह आदमी चला गया.

करीब आधे घंटे तक रुक-रुक कर गोलियों की आवाज़ें आती रहीं, फिर बंद हो गयीं. देर तक जब कोई आवाज़ नहीं आयी तब मुराद ने चुपके से अपने कमरे का दरवाज़ा खोला, और होटल के गलियारे में दोनों तरफ देखा. सन्नाटा था बिल्कुल. उन्होनें तभी कुछ कदमों की आहट सुनी और झट से दरवाज़ा बंद कर दिया. उनके दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई "मुराद भाई, मैं रहमत." यह सुनकर मुराद ने दरवाज़ा खोल दिया. रहमत और 4-5 दूसरे आदमी अंदर आये और दरवाज़ा बंद कर दिया. "क्या हुआ था?" घबराये हुए मुराद ने पूछा.

रहमत ने बताया "कुछ आदमी नीचे बाज़ार में आ रहे थे इसी होटल की ओर, उनकी आँखों और चलने-फिरने के तरीके से हमने अंदाज़ा लगाया कि ये ठीक लोग नहीं हैं. फिर हम उनका पीछा करने लगे. यह देखकर वो लोग हमें अपने पीछे-पीछे गलियों में घुमाने लगे जिससे हमारा शक यकीन में बदलने लगा था. फिर जब दो-तीन होटलों में जाकर उन्होनें आपका नाम लेकर रिसेप्शन पर पूछा तो हमें पक्का यकीन हो गया कि ये आपको नुकसान पहुँचाने आये हैं और वही लोग है, जिनके बारे में आप बता रहे थे. फिर हमने उनसे सीधे पूछ-ताछ की और जब उन लोगों की कोई बहानेबाज़ी नहीं चली तो उन्होनें हम पर हमला कर दिया......फिर हमने भी मुँहतोड़ जवाब दिया उनको.....वो 5 लोग आये थे, तीन को तो ढेर कर दिया हमने, 2 हरामखोर बच कर निकल भागे."

"तुम लोगों को कोई नुकसान?"

"दो आदमियों को बस गोली छूकर निकली है....हम लोग ठीक हैं."

मुराद ने उनका शुक्रिया अदा किया और जाकर बिस्तर पर लेट गये, मगर उनकी आँखों में नींद नहीं थी. आज मौत उनके बिल्कुल करीब से गुज़री थी.

अगली सुबह फरीद के घर फोन की घंटी बजी. वह अस्पताल जाने के लिये निकल ही रहे थे. उन्होने फोन उठाया, दूसरी तरफ आग उगलते हुए कस्तूरिया साहब थे "ये सब क्या हो रहा है फरीद?.....आपके कहने पर हमारे आदमी आपके उस कमीने भाई को समझाने गये थे, लेकिन वो सुअर मुराद....पता है क्या किया उसने?....अपने हथियारबंद गुंडों से हमारे लोगों पर गोली चलवा दी उसने......हमारे तीन आदमियों की जान चली गयी फरीद!!!....अब आपके कहने से हम किसी को भी नहीं भेजेंगे कहीं......बताइये क्या जवाब दें हम उन तीनों लड़कों के परिवारों को?"

"क्या?.....ऐसा किया मुराद ने?" फरीद परेशान हो गये थे.

"अभी तक हमारे आदमी उन्हें समझाने गये थे, अबकी सच में मारने जायेंगे फरीद." कस्तूरिया जी बहुत गुस्से मे थे.

"अरे नहीं, नहीं कस्तूरिया जी.....ये मत कीजियेगा.....बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार हो गये हैं मुराद.....लेकिन कत्ल-ओ-गारद, पुलिस-फौजदारी करने की कोई ज़रूरत नहीं है कस्तूरिया जी.......बात को बिगाड़ना नहीं है, सम्भालना है." कुछ देर बात करने के बाद फरीद ने कस्तूरिया जी को कुछ न करने के लिये मना लिया उन तीनों लड़कों के घर मदद भेजने का भरोसा दिया. उन्होनें कस्तूरिया जी से केवल मुराद पर बराबर नज़र रखने की दरख्वास्त की. कस्तूरिया जी ने भी इसे मान लिया था और मुराद पर उनके आदमी अब सिर्फ नज़र रख रहे थे.

जो कुछ मुराद के साथ वहाँ रात में हुआ था, वही सब कलकत्ते में शुज़ा के साथ तब हो रहा था जब सौघरा में फरीद सुबह-सुबह फोन पर कस्तूरिया जी की मान-मनौवल कर रहे थे. कलकत्ता में बड़ा बाज़ार के जिस होटल में शुज़ा रुके थे, वहाँ पर कुछ लोगों ने शुज़ा के बारे में पता करते-करते शुज़ा के आदमियों पर हमला कर दिया था. सुबह-सुबह दुकानें खुलते ही बाज़ार गोलियों की आवाज़ से सराबोर हो गया था. रात देर से सोने वाले शुज़ा सुबह देर से ही उठे थे और उस वक़्त वह नहा रहे थे. हमलावर और शुज़ा के आदमियों के बीच यह मुठभेड़ धीरे-धीरे उस गलियारे तक जा पहुँची थी जहाँ शुज़ा का कमरा था. गलियारे में गोलियाँ चल रहीं थीं और धुआँ ही धुआँ भरा हुआ था. ऐसी हालत में शुज़ा के आदमियों ने अपनी जान पर खेलकर किसी तरह उन्हें उनके सामान सहित कमरे से बाहर निकाला और एक गाड़ी में उन्हें लेकर निकल भागे. इस भीषण, अंधाधुंध गोलीबारी में एक गोली शुज़ा के बाज़ू पर भी लग गयी थी लेकिन खुदा के करम से ज़्यादा नुकसान नहीं हुआ. उनके आदमी तुरंत उनको लेकर हावड़ा पहुँचे जहाँ जल्दी से एक होटल के कमरे में उन्हें रखवाया गया और उनके आदमी बाहर से ही जल्दी डॉक्टर भी बुला लाये थे, जिसने शुज़ा की मरहम-पट्टी की. शुज़ा बुरी तरह से दहशतज़दा थे. ऐसे मंज़र से वह आज ज़िंदगी में पहली दफा हकीकत में रू-ब-रू हुए थे. उनके मुँह से तो जैसे आवाज़ ही नहीं निकल रही थी. सीधे मौत से ही आमना-सामना हुआ था आज उनका.

दोपहर तक वह ऐसे ही बैठे रहे. नाश्ते के नाम पर केवल चाय पी थी अब तक. दोपहर को अपने होटल के कमरे से ही उन्होनें कुछ सोचकर अपने घर, सौघरा फोन किया. दोपहर का खाना खाने फरीद उस वक़्त घर आये हुए थे. फोन की घंटी बजने पर सुलेमान ने फोन उठाया "हैलो?"

"अपने बाप को फोन दे लड़के!" गुस्से में शुज़ा ने कहा.

"कौन बोल रहा है बदतमीज़?" सुलेमान को भी गुस्सा आ गया था. फरीद वहीं बैठे थे.

"फोन दे उसको....सवाल मत पूछ!!!...औकात नहीं है तेरी." शुज़ा ने चिल्लाकर कहा.

अब तक बात करके सुलेमान समझ गया था कि ये शुज़ा हैं. "चचाजान, आप कम से कम सलीके से तो बात कर सकते हैं ना!!" उसने गुस्से में कहा.

फरीद ने झट से अपने बेटे से रिसीवर छीन लिया और कहा "हैलो?....कौन है?"

"मैं वही बोल रहा हूँ, जिसे खत्म करने के लिये आपने आदमी भेजे थे फरीद अली बेग!! ये काम अच्छा नहीं किया आपने!!.....मुझे मारने के लिये किराये के गुंडे भेजे आपने?.....मुझसे इतनी नफरत हो चुकी है आपको?......मैं क्या समझता था आपको, और आप क्या निकले?....दो कौड़ी के नाकारा, निकम्मे और निहायत ही कमीने और कमज़र्फ इंसान निकले आप!!!" शुज़ा ने गुस्से में कहा.

"अरे, मैंने तो उन्हे आपको समझाने भेजा था, जिस से हमारे बीच की जो गलतफहमियाँ हैं, वह दूर हो जायें......क्या किया उन्होने वहाँ?" फरीद ने पूछा.

"वाह!!!....गिरगिट भी शरमा जाये, ऐसे तेज़ी से रंग बदलते हैं आप......हमें कभी-कभी तो शक हो जाता है कि वाकई आप हमारे भाई हैं भी या नहीं......मेरी शराफत है फरीद भाई कि मैं आपको 'आप' कह रहा हूँ, वरना आप सिर्फ गालियों के ही लायक हैं......और गालियों के नहीं, असल में गोलियों के लायक हैं आप!!" दाँत पीसते हुए शुज़ा ने कहा.

रिसीवर में से शुज़ा की खरज़दार आवाज़ सुनाई पड़ रही थी. इस से पहले कि फरीद कुछ बोलते, पास खड़े सुलेमान ने ऊँची आवाज़ में कहा "चचाजान, ज़बान सम्भाल कर बात कीजिये ज़रा, क्या वाहियात बात कर रहे हैं आप?" फरीद ने उसे तुरंत धक्का देकर अपने पास से हटाया और घूर कर देखा. अब तक घबरायी हुई नादिरा भी वहाँ आ गयीं थीं. रिसीवर पर से शुज़ा की आवाज़ आयी "अच्छा, तो अब तेरी आवाज़ भी निकलने लगी ना सपोले!!!.....अब हम तेरे बाप के साथ-साथ तेरी बात भी सुने हरामखोर?....इतना बड़ा हो गया है तू कमीने?.....सुनना चाहता है तो सुन साले, मैंने कहा कि तू और तेरा बाप गालियों के नहीं, गोलियों के लायक हैं बहनचोद!!!.....मैं आ रहा हूँ सौघरा, और वहीं घर में ही मैं गोली मारूँगा तुम दोनों बाप-बेटे को!!!....खून का बदला तो खून से ही लिया जायेगा साले सुअर की औलाद!!!...यहाँ मेरा खून बहा है, अब जब तक वहाँ तेरा और तेरे बाप का खून नहीं बहता, तब तक ये कहानी पूरी नहीं होगी."

फरीद और नादिरा वह सब सुनकर पूरी तरह दंग रह गये थे जो कुछ भी शुज़ा कह रहे थे. उन मियाँ-बीवी के मुँह से बोल भी नहीं फूट रहे थे. यह देखकर सुलेमान फिर से रिसीवर के पास आया और चीखकर कहा "तो फिर आकर देख ले हरामखोर!!! गद्दार!!! नालायक और निकम्मे आदमी!!!!.......बोटियाँ काटकर फेंक देंगे तेरी हम यमुना में, तू सौघरा में एक कदम रख तो सही!!!" इतने में फरीद ने एक ज़ोरदार थप्पड़ सुलेमान को रसीद किया जिस से वह ज़मीन पर गिर पड़ा. फरीद ने खुद पर काबू किया और कहा "शुज़ा अब चुप हो जाइये, बहुत हो गया.....बहुत सुन ली आपकी बात.....अब एक लफ्ज़ भी आगे ना बोलियेगा आप." शुज़ा भी पागल हो गये थे "हाँ, मैं चुप हो जाऊँ!!!.....मैं चुप हो जाऊँ?.....जिससे तुम दोनो हरामखोर बाप-बेटे के लिये रास्ता साफ हो जाये?......जिस से तुम दोनों कुत्ते इस कारोबार और जायदाद पर कब्ज़ा करने और हमें बेदखल करने का मंसूबा पूरा कर सको?......इसलिये चुप हो जाऊँ मैं?.....जिस से हमारे बीवी-बच्चे दर-दर की ठोकरें खायें, और फिर तुम दोनों सुअरों के आगे हाथ फैलायें?....बोलो, क्या इसलिये चुप हो जाऊँ मैं?......अब हम में से कोई एक ही चुप होगा फरीद अली बेग!!!.....वो भी ज़िंदगी भर के लिये. अब या तो मैं चुप हो जाऊँगा, या फिर तुम और तुम्हारा वो कुत्ता जो बगल में खड़ा है. समझ गये ना?" और इतना कहकर शुज़ा ने फोन नीचे रख दिया.

फरीद ने फोन नीचे रखा और अपनी चप्पल लेकर सुलेमान के ऊपर पिल पड़े थे. नादिरा लगातार रोक रही थी, लेकिन फरीद उसे जानवरों की तरह पीट रहे थे "साले, हरामखोर!!.....यही परवरिश दी थी तुझे इतने सालों में?.......अपने से बड़ों से ऐसे बात करते हैं?...."

मार खाते हुए सुलेमान ने कहा ".....वो भी तो आपसे कैसे बात कर रहे थे?"

चीख-पुकार सुनकर अब तक दौड़ते हुए रुखसार भी कमरे में आ गयीं थी. "क्या हो रहा है ये सब?....फरीद!!.....सुलेमान!!....भाभी!!....क्या है ये?"

फरीद ने अपने बेटे को मारते हुए कहा "....वो भाई है मेरा....वो मुझसे जैसे मर्ज़ी होगी वैसे बात करेगा. तू कौन होता है हम भाईयों के बीच में बोलने वाला?......हम भाई हैं, जैसी भी बात होगी आपस में निपट लेंगे, लेकिन तेरी हिम्मत कैसे हो गयी शुज़ा से ऐसे बात करने की?.....मेरा तो भाई है वो, लेकिन तेरा तो चाचा है ना?"

किसी तरह नादिरा और रुखसार ने उन दोनों को अलग किया, और वह दोनों फरीद को शांत करने की कोशिश करने लगीं. सुलेमान ज़मीन पर सिर नीचे किये रो रहा था. इस घर में बहू बन कर आने के बाद आज नादिरा ने इस पहली बार फरीद को ऐसे जानवरों की तरह बर्ताव करते देखा था. रुखसार ने भी अपनी ज़िंदगी में फरीद को इस हाल में कभी नहीं देखा था.

फरीद ने फिर फौरन कलकत्ता अपने खास लोगों को फोन किया और ये गोलीबारी का तमाशा करने के लिये जमकर लताड़ लगायी. फिर फरीद ने उन लोगों को शुज़ा से दूरी बनाये रखने को कहा, साथ ही शुज़ा पर गहरी नज़र बनाये रखने को भी कहा जिस से शुज़ा की हर हरकत की मालूमात उन्हें मिलती रहे. फरीद अपने बच्चों और परिवार को लेकर अब काफी डर गये थे. 

लेकिन ऐसा मंज़र देखने वाली केवल वो दोनों औरतें ही नहीं थीं. एक और इंसान कमरे की खिड़की की ओट से यह सब देख रह था.

सूरत, कलकत्ता और सौघरा के इस कोलाहल से बहुत दूर, उस शाम मिर्ज़ा हैदर बेग अपने साथी अफसरों के साथ औरंगाबाद की मशहूर अजंता-एलोरा की खूबसूरत गुफाएं, औरंगज़ेब का मकबरा, और देवगिरि का शानदार किला देखने में मशगूल थे. सरकारी गेस्ट हाउस वापिस लौटते हुए उन्होनें औरंगाबाद के बेहद मशहूर रेशम के कपड़ों की खरीददारी भी की थी.

रात के वक़्त दीवान ने मिर्ज़ा को फोन करके सारी जानकारी दी. मिर्ज़ा ने उसे शाबाशी दी और कहा कि इसी तरह से वह फरीद और सुलेमान पर नज़र बनाये रखे.

रात में ही जब मिर्ज़ा खाना खा रहे थे उसी वक़्त उनके कमरे के फोन की घन्टी बजी. "हैलो?" मिर्ज़ा ने फोन उठाकर कहा.

"हैलो!!....मिर्ज़ा मैं हूँ, रुखसार."

"जी आपा, बतायें. इतनी रात को किया फोन?.....सब खैरियत तो है?"

 "खैरियत तो क्या होनी, कुछ बहुत बड़ा होता हुआ लग रहा है यहाँ."

"क्यों?...क्या हो गया?"

"आज शुज़ा और फरीद भाईजान के दरम्यान बहुत ज़्यादा लड़ाई हो गयी थी फोन पर. कुछ दिन पहले शायद मुराद से भी इनकी ज़ोरदार बहस हो गयी थी....और तो और, सुलेमान की भी अच्छी-खासी कहा-सुनी हुई है अपने दोनों चाचा लोगों से.....इसी के बाद फरीद ने सुलेमान को काफी मारा भी है."

"अच्छा, क्यों?" मिर्ज़ा ने अनजान बनकर पूछा.

"पता नहीं, लेकिन आसार अच्छे नहीं लग रहे हैं. बहरहाल, आप अपनी सुनाइये?......कब खत्म होगी ट्रेनिंग?.....यहाँ ज़रूरत है आपकी मिर्ज़ा." रुखसार ने कहा.

"मेरी ज़रूरत क्यों है वहाँ?....उन लोगों के बीच लड़ाई हुई, इसमे मैं क्या कर सकता हूँ?"

"ये वक़्त है, कि आप शुज़ा को अपनी ओर कर सकते हैं.......फरीद के खिलाफ आपकी दावेदारी तगड़ी हो जायेगी. फिर आप मुराद को भी अपनी तरफ मिला सकते हैं." रुखसार बोलीं.

"वो तो ठीक है आपा, मगर मुझे लगता है कि जल्दबाज़ी करना ठीक नहीं है.....फरीद, शुज़ा भाईजान और मुराद की हालत कहीं हवाई जहाज़ के उस मौलवी और तोते जैसी न हो जाये." मिर्ज़ा मे हँसकर कहा.

"क्या मतलब?"

"एक दफा का ज़िक्र है, कि एक हवाई जहाज़ में एक मौलवी साहब और एक तोता साथ में सफर कर रहे थे. तोता बहुत बदतमीज़ था और एयरहोस्टेस को बहुत ही गंदी गालियां देता जा रहा था और वह भी डर के मारे उसे चाय, पानी, नाश्ता, पकौड़ियाँ, जो भी वह माँग रहा था, देती जा रही थी. मौलवी साहब ने बहुत अदब से उन मोहतरमा से एक कप चाय माँगी थी जो काफी देर से नहीं आयी थी. तोते की आवभगत होते देख मौलवी साहब नाराज़ हो गये और उन्होनें भी एयरहोस्टेस को बहुत भद्दी गालियाँ देनी शुरु कर दीं. वह मोहतरमा नाराज़ हो गयीं और पायलट से शिकायत कर दी कि एक तोते और एक मौलवी साहब ने अपनी बदतमीज़ियों से जीना हराम कर रखा है. पायलट ने अपने साथी को जहाज़ की कमान सौंपी और मौलवी साहब और तोते की सीट पर पहुँचकर उसने उन दोनों को जहाज़ से बाहर फेंक दिया. अब हवा में मौलवी साहब गिरने लगे, और तोता उड़ने लगा. हवा में उड़ते-उड़ते तोता मौलवी साहब के पास आया और प्यार से पूछा "मौलवी साहब, पंख हैं आपके पास?" बेचारे मौलवी साहब ने कहा "नहीं." तोते ने फिर पूछा "उड़ना आता है आपको?" मौलवी साहब ने रोते हुए कहा "नहीं." फिर तोते ने कहा "साले बैल-बुद्धि, हरामखोर!!! फिर जहाज़ में इतनी शेखी क्यों बघार रहा था तू?" , और इतना कहकर वह मौलवी साहब के मुँह पर थूक कर उड़ गया और बेचारे मौलवी साहब अल्लाह को प्यारे हो गये."

"इसके मायने क्या हुए?"

"इसका यह मतलब आपा कि इंसान को वही काम करने चाहिये जिसके वह लायक हो, और तभी करना चाहिये जब उसके पास ऐसा करने के रास्ते और ज़रिया मौजूद हों. बदकिस्मती से फरीद, शुज़ा और मुराद, इस तीनों ने ही जल्दबाज़ी कर दी है......न ही ये लोग इस काबिल हैं, और ना ही इनके पास इस काम को करने के रास्ते मौजूद हैं......बहुत बड़ी लकड़ी उठा ली है इन तीनों ने, और वह भी बगैर किसी तैयारी के.......और इसकी कीमत ये तीनों चुकायेंगे. जब ऐसे लोग मौजूद हों, तो आपको ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती है, सिर्फ इंतज़ार करना होता है. सारी चीज़ें खुद-ब-खुद हो जाती हैं." मुस्कुराते हुए मिर्ज़ा ने कहा.

"मतलब आपकी ताजपोशी हम जल्द देखेंगे?" हँसते हुए रुखसार ने कहा.

"इंशाअल्लाह!!.....वैसे हम ट्रेनिंग खत्म करके सूरत जायेंगे आपा. यहाँ से सूरत ज़्यादा दूर नहीं है, अगर नहीं गये तो मुराद को लगेगा इस इस नाज़ुक वक़्त में हमने हाथ खींच लिया."

"बिल्कुल दुरुस्त बात है मिर्ज़ा, आप चले जाइयेगा सूरत. चलिये हम फोन नीचे रखते हैं, और अल्लाह से आपकी कामयाबी की दुआ करते हैं." यह कहकर रुखसार ने फोन रख दिया.

मिर्ज़ा भी खाना खाकर सो गये.

करीब तीन दिन बाद फरीद को उनके कलकत्ता के मुखबिरों ने खबर दी कि यहाँ शुज़ा ने सौघरा जाने वाली ट्रेन का टिकट हासिल करने की भरसक कोशिश की थी, जो कि उन्हें नहीं मिला था और इसलिये शुज़ा दो गाड़ियों में भरकर, अपने करीब 10-12 हथियारबंद आदमियों के साथ ,सड़क के रास्ते सौघरा के लिये अगली सुबह निकलने वाले थे. उन लोगों ने शुज़ा की गाड़ी का मॉडल, रंग और नम्बर भी फरीद को बता दिया था.

जिस दिन यह खबर मिली, उसी दिन रात में फरीद ने अपने एक बेहद भरोसेमंद आदमी ज़मील को अकेले में मिलने के लिये अपने घर के नज़दीक की एक सुनसान जगह पर बुलाया था. जमील के आने पर फरीद ने उसे गले लगाते हुए कहा "जमील, एक बहुत ही ज़रूरी बात करनी है तुमसे....और ये बात इस यहाँ से बाहर, किसी तीसरे शख्स तक नहीं जानी चाहिये....वादा करो हमसे."

"आज तक आपसे किया कौन सा वादा तोड़ा है फरीद भाई?....आप बतायें भाई, मैं ज़बान देता हूँ कि मरते दम तक किसी को कुछ नहीं पता लग सकेगा."

"भरोसा है तुम पर जमील, इसीलिये बुलाया है तुमको, वरना किसी को भी बुला सकते थे हम."

"हुकुम कीजिये भाई."

फरीद ने सारी बात जमील से बताई और कहा "अब हम ये चाहते हैं कि तुम अपने करीब 20 हथियारबंद आदमी इकट्ठा करो…..कम से कम 2-3 गाड़ियाँ तो रखो ही, और कल सुबह ही चुपके से कलकत्ते की ओर निकल जाओ..." फिर फरीद ने शुज़ा की गाड़ी का मॉडल, रंग और नम्बर भी जमील को दिया और कहा "किसी भी हाल में शुज़ा को ज़िंदा नहीं बचना चाहिये......जब तक बात हमारी-उनकी थी तब तक ठीक था, लेकिन अब वह हमारे बेटे के खून के प्यासे हैं जमील, और यह बात हमें कतई गवारा नहीं है." यह कहकर रुपयों की एक मोटी सी गड्डी फरीद ने जमील की ओर बढ़ाई. जमील ने वह गड्डी पकड़ते हुए कहा "जैसे कहा है आपने भाई, वैसा ही होगा." और उसके बाद वह दोनों अपने-अपने रास्ते निकल गये.

फरीद की जानकारी के बगैर उनका बेटा सुलेमान उस रात साये की तरह अपने बाप का पीछा करता रहा था, और अब उसे यह पता लग चुका था कि फरीद ने जमील और उसके आदमियों को शुज़ा को मारने के काम पर लगा दिया है।   


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