HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy Thriller

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HARSH TRIPATHI

Drama Tragedy Thriller

दस्तूर - भाग-12

दस्तूर - भाग-12

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दस्तूर – भाग-12

कारोबार सम्भालते ही मुराद को तुरन्त कस्तूरिया जी ने मुबारकबाद देने के लिये फोन किया. उसके बाद मुराद ने एक दिन मिर्ज़ा को दिल्ली फोन किया और कहा "दफ्तर में आज कस्तूरिया जी का फोन आया था भाईजान."

"अब वो तो आना ही था....." मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया. ".....आपने वहाँ धरमपुर में बात ही कुछ ऐसी की थी."

"क्या करें भाईजान अब?.......सरवर को हटा दें जालंधर से?" मुराद ने मिर्ज़ा की राय जाननी चाही.

"मेरे खयाल में सरवर को वहाँ मत हटाइये........हमीर को किसी दूसरी जगह नहीं भेज सकते क्या?"

"बात तो जालंधर वाली यूनिट की हुई थी."

"कस्तूरिया जी को समझा दीजियेगा आप......कि जैसे जालंधर वाली यूनिट, वैसे ही कानपुर वाली यूनिट......कोई फर्क नहीं है दोनों में, बल्कि कानपुर तो सौघरा से काफी नज़दीक भी है......इसलिये हमीर को कानपुर भेज दिया जाये इंचार्ज बनाकर. मेरे खयाल से कस्तूरिया जी को दिक्कत नहीं होनी चाहिये. वह मान जायेंगे."

"हम्म्म्म.......चलिये, ये तो कर लेंगे हम." फिर मुराद ने सवाल किया "आप ये बताएं कि फरीद भाईजान या सुलेमान का पता चला कुछ?"

"अभी तक तो नहीं....और देखिये तो ये हम लोगों का सिरदर्द नहीं है, बल्कि यह फरीद भाईजान और सौघरा पुलिस की सिरदर्दी है.....पुलिस भी सरगर्मी से उनकी तलाश में है."

मिर्ज़ा की बात मानते हुए मुराद ने कस्तूरिया जी से बात की और उनको राज़ी करने में कामयाब रहे कि हमीर को कानपुर यूनिट का इंचार्ज बनाकर भेजा जायेगा, जालंधर वाली यूनिट को सरवर ही देखते रहेंगे. कस्तूरिया जी को इस बात से कोई दिक्कत नहीं हुई थी. वह अपने बेटे का किसी भी कीमत पर फायदा चाहते थे, और फायदा हो रहा था. फिर कानपुर ज़्यादा दूर भी नहीं था और वहाँ की यूनिट अच्छा मुनाफा भी कमा रही थी. कानपुर यूनिट का इंचार्ज हमीर को बनाये जाने की जानकारी दूसरी सभी यूनिटों, जहाँ-जहाँ कम्पनी काम करती थी उन सभी जगहों, सभी सरकारी दफ्तरों, और चुनिंदा अखबारों के ज़रिये हर खास-ओ-आम लोगों को भी दे दी गयी थी.

शगुफ्ता अपने बच्चों के साथ घर वापिस आ गयी थीं. उधर पटना में अखबारों के ज़रिये शुज़ा को पता चल चुका था कि कम्पनी में बड़ा फेरबदल हो चुका है, और अब सबसे छोटे भाई मुराद कम्पनी के सर्वेसर्वा बन चुके थे. यह देखकर शुज़ा को कुछ वक़्त के लिये तो बहुत अच्छा लगा, लेकिन फिर उनके अंदर शक के कीड़े ने सिर उठा लिया था "कहीं गद्दी पर बैठकर अगर मुराद का ईमान डोल गया तो?......कहीं अगर उन्होनें भी वही किया जो फरीद ने किया था तो?.......मिर्ज़ा किसकी तरफ रहेंगे?" यह सब सवाल उनके अंदर उमड़ रहे थे, लेकिन इन सवालों के जवाब बिना सौघरा जाये नहीं मिल सकते थे. काफी दिन हो गये थे, लेकिन फरीद के डर से शुज़ा सौघरा फोन भी नहीं कर पाये थे. दर-दर भटक रहे थे, और इस वजह से बीवी के मायके में भी वह बहुत कम बात कर पाये थे. फिर यह भी था कि शुज़ा भले ही फटेहाल थे लेकिन थे तो मर्द ही. खुद इस हाल में होकर उनका बीवी को फोन करना, बीवी के सवालों का सामना करना, फोन पर अपना दुखड़ा रोना और अपनी बेबसी बयान करना, और फिर बीवी की हमदर्दी भरी जज़्बाती बातें सुनना, ये सब उनकी मर्दानगी को ज़ेब नहीं देता था, लिहाज़ा वह शगुफ्ता से बात करने में और भी कतरा रहे थे.

लेकिन अब जबकि हवा का रुख बदला हुआ था, शुज़ा ने वापिस सौघरा जाने का फैसला किया. उनकी सराय पटना रेलवे स्टेशन के पास, ज़ेवियर रोड पर ही थी. उन्होनें स्टेशन जाकर अगले दिन की रेलवे टिकट का पता किया और पटना से शाम को चल कर सौघरा के रास्ते दिल्ली जाने वाली गाड़ी का टिकट खरीद लिया था. सौघरा फोन करके उन्होनें शगुफ्ता को अपने आने की इत्तला दे दी थी. आज काफी अर्से के बाद शगुफ्ता और उनके बच्चे काफी खुश थे. शुज़ा वापिस आ रहे थे.

शामगढ़ से जब किसी तरह जान बचाकर फरीद और सुलेमान निकल भागे, तो काफी देर तक खेतों की मेड़ों पर भागते ही रहे. उन्हें कुछ भी पता नहीं था कि वे लोग किधर भाग रहे हैं. किसी से ज़्यादा पूछ भी नहीं सकते थे, पता नहीं कौन मिर्ज़ा या मुराद का करीबी निकल आये? रोज़ मलजकुंड पुलिस थाने में फरीद को हाजिरी देनी थी, वह भी दो दिन से बंद थी. पुलिस भी अब उनकी तलाश में थी और किसी भी वक़्त उन्हें गिरफ्तार कर सकती थी, और इसलिये सौघरा शहर तो वह कतई जा ही नहीं सकते थे. अपनी प्यारी बीवी नादिरा से भी फरीद बात नहीं कर सके थे. फरीद की ससुराल पर भी ज़रूर मुराद के लोग नज़र रख रहे होंगे, इसलिये वहाँ भी नहीं जा सकते थे. मुराद और शुज़ा की ससुराल की ओर जाने का तो सवाल ही नहीं था. फरीद और सुलेमान, मिर्ज़ा के पास दिल्ली भी नहीं जा सकते थे. जयपुर ज़रूर सौघरा से नज़दीक था लेकिन अब वहाँ भी वह नहीं जा सकते थे क्योंकि कस्तूरिया जी ने भी पाला बदल लिया था. रास्ते में चाय वगैरह की दुकानों पर छिपते-छिपाते उन्होनें अखबारों में यह भी देखा था कि कानपुर यूनिट हमीर के पास चली गयी थी, लिहाज़ा उधर जाने के रास्ते भी बंद थे. लखनऊ में भी मिर्ज़ा की ससुराल थी, तो वहाँ जाना भी भी खतरे से खाली नहीं था. कुल मिलाकर बाप-बेटे के लिये अभी सभी रास्ते फिलहाल बंद नज़र आ रहे थे. ऐसे में फरीद को एक उम्मीद नज़र आयी थी.

करीब 3-4 दिन बाद जहाँआरा की ससुराल में उनके नाम से दो खत आये. जहाँआरा को उनके घर के बच्चों ने ये खत दे दिये थे. उन खतों पर पेन से नम्बर लिखे हुए थे '1' और '2' . एक खत, जिस पर '1' लिखा था, अपने कमरे में उसको खोलकर जब जहाँआरा ने पढ़ा तो उन्हें पता चला कि यह दोनों खत फरीद की ओर से आये थे. पहला खत जहाँआरा के लिये, और दूसरा खत क़ाशनी साहब के लिये था. 

पहले खत में फरीद ने अपनी मुश्किलों का ज़िक्र किया था "....बड़ी आपा, ऐसा लग रहा है कि हम लोगों के लिये सभी रास्ते बंद हो गये हैं. हमारे भाईयों के आदमी हाथ धोकर हमारी जान के पीछे पड़े है, और पुलिस भी हमें तलाश कर रही है. हम लोग कहीं किसी रिश्तेदार के यहाँ भी नहीं जा सकते हैं. अभी हम दोनों ग्वालियर में एक जगह पर हैं, लेकिन ज़्यादा वक़्त यहाँ भी नहीं रुकेंगे. अब इस उम्र में इतनी दौड़-भाग भी हमसे नहीं होती है. यह तो बेटा सुलेमान हमारे साथ है, इसलिये हमारा काम कुछ ठीक हो जाता है......आपसे दरख्वास्त है कि यह खत किसी तरह नादिरा को दे दीजियेगा और उनसे कहियेगा कि हम दोनों ठीक हैं और भरपूर कोशिश कर रहे हैं कि हालात को नया मोड़ दिया जा सके………कोई न कोई तरकीब हम ज़रूर निकालेंगे.

दूसरा खत जो आपको भेजा है, उसे आप क़ाशनी साहब को दे दीजियेगा, हमारी बात वह उसे पढ़ कर समझ जायेंगे. आप नादिरा और क़ाशनी साहब, दोनों से कहियेगा कि वे दोनों हमसे सम्पर्क बिल्कुल ना करें, ऐसा करने से हमारे और उनके ऊपर खतरा और बढ़ जायेगा, बल्कि हम दोनों ही मौका देख कर उनसे सम्पर्क साधने की कोशिश करेंगे और इस काम में आप हमारा साथ ज़रूर दीजियेगा, ऐसी आपसे इल्तजा है बड़ी आपा.......हम लोगों की नीयत में कोई खराबी नहीं थी, बस हम अपने भाईयों की नीयत नहीं समझ पाये........." जहाँआरा ने पूरा खत पढ़ा और अपने भाई की मदद करने का फैसला किया.

अगले ही दिन वह सबकी नज़र बचा कर नादिरा को वह खत दे आयीं, और सारी बातें समझा दीं. फिर वह क़ाशनी साहब के घर जाकर दूसरा खत भी दे आयीं थीं और उनको भी सभी बातें समझा दी थीं. जहाँआरा पर कभी कोई इंसान शक भी नहीं कर सकता था, फरीद ने इसीलिये अपनी बड़ी आपा को सही बात बताने का अक्लमंदी भरा फैसला किया था.

अगले दिन सुबह-सुबह ही काशनी साहब अपने कॉलेज के लॉ डिपार्टमेंट के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वीरेंद्र सिंह जी के पास आ पहुँचे. डॉ. सिंह ने उन्हें देखते ही बाहों में भर लिया और गर्मजोशी के साथ बोले "क्या क़ाशनी साहब!....आप तो गूलर के फूल हो गये हैं. दर्शन दुर्लभ हो गये हैं आपके तो!" क़ाशनी साहब ने संजीदगी से कहा "हँसी-मज़ाक फिर कभी कर लेंगे सिंह साहब......अभी एक बहुत ज़रूरी काम है आपसे."

क़ाशनी साहब जो हमेशा हँसते-मुस्कुराते रहते थे, उनको इस तरह गम्भीर देख कर डॉ. सिंह को कुछ अटपटा सा लगा था. उन्होनें भी चिंतित होकर पूछा "सब खैरियत तो है क़ाशनी साहब?"

क़ाशनी साहब ने कहा "बैठ कर बात करें?"

उस सुबह डॉ. सिंह के यहाँ क़ाशनी साहब ने फरीद से जुड़ी सारी बात का बयान किया. उन्होनें यह भी कहा कि कम्पनी की वे सभी यूनिटें, जो सरकार के आदेश से पहले बंद कर दी गयीं थीं, अब फिर से खोली जा चुकी हैं, और वहाँ पहले की तरह ही काम चल रहा है, लेकिन फरीद के खिलाफ मुकदमा अभी भी सौघरा की अदालत में कायम है, और पुलिस सरगर्मी से उनकी तलाश कर रही है. वह अपने बेटे के साथ ग्वालियर में हैं. काशनी साहब ने डॉ. सिंह से कहा "डॉ. साहब, मैं चाहता हूँ कि फरीद का यह मुकदमा आप देख लीजिये, और कैसे भी करके उसे कम से कम ज़मानत तो दिलवा ही दीजिये, जिस से पुलिस का उनका पीछा करना तो बंद हो जाये.......मुकदमा चलता रहेगा तब भी कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन ज़मानत तो मिल ही जाये उसको.........क्या यह मुमकिन है?"

डॉ. साहब अब काफी संजीदा होकर सोच रहे थे. क़ाशनी साहब बड़ी उम्मीद से उन्हें देख रहे थे. उन्हें यकीन था कि सिंह साहब कोई न कोई रास्ता ज़रूर खोज लेंगे.

"वो सब तो ठीक है क़ाशनी साहब......आपके कहने से मान लीजिये मैं मुकदमा देख भी लूँगा, लेकिन फरीद अभी पुलिस की नज़र में भगोड़े हैं.......बेल मिलनी तब तक बहुत मुश्किल होगी जब तक वह यहाँ अदालत के सामने पेश नहीं हो जाते."

"लेकिन वह कैसे आ सकते हैं?....उनकी जान के दुश्मन बैठे हैं यहाँ......कुत्तों जैसे सूंघ रहे हैं उनको सब." क़ाशनी साहब ने परेशान होकर कहा.

"रास्ता तो यही है क़ाशनी साहब."

क़ाशनी साहब ने जहाँआरा को बताया कि बिना कोर्ट में मौजूद हुए, ज़मानत मिलनी बहुत मुश्किल होगी, और ज़्यादा उम्मीद यही है कि नहीं मिलेगी. फरीद की अगली चिट्ठी ग्वालियर के पास के मोरैना कस्बे से आयी थी, जहाँआरा ने तुरंत उसी पते पर जवाबी चिट्ठी भेजी और सलाह दी थी, कि फरीद जल्दी-जल्दी ठिकाने न बदलें, नहीं तो कोई ज़रूरी जानकारी भेजने में बहुत मुश्किल होगी. मोरैना में फरीद कुछ ज़्यादा दिन रुके थे, इसलिये वह जवाबी चिट्ठी उन्हें मिल गयी थी. फरीद ने अगली चिट्ठी में अपने बार-बार ठिकाने बदलने की मजबूरी बतायी और लिखा था कि वह कोशिश करेंगे कि एक ठिकाना बना सकें, जहाँ ज़्यादा दिन रुक सकें.

कुछ दिनों बाद सिंह साहब फरीद की तरफ से कोर्ट में हाज़िर हुए और सवाल उठाया कि जब सभी यूनिटें खुल गयी हैं, और काम ठीक ढंग से चल रहा है, तो फरीद को पुलिस क्यों तलाश कर रही है, और उनके शहर से बाहर जाने पर रोक कैसे लगी रह सकती है? इस पर सरकारी वकील ने ऐतराज़ किया. सिंह साहब ने आगे दलील दी कि जो चार्ज फरीद पर लगे हैं, उन पर मुकदमा चलता रह सकता है लेकिन इस बुनियाद पर फरीद को ज़मानत से नहीं रोका जा सकता. अदालत ने कहा कि ज़मानत पर सुनवाई तभी होगी जब फरीद कोर्ट के सामने खुद मौजूद होंगे. बिना फरीद की मौजूदगी के ज़मानत की अर्ज़ी नहीं सुनी जायेगी. अदालत ने सिंह साहब से कहा कि वह अपने मुवक्किल से बात करें और उनका अगली तारीख पर अदालत के सामने मौजूद सुनिश्चित करें. सिंह साहब ने अदालत को यकीन दिलाने की पुरज़ोर कोशिश की कि उनके मुवक्किल सौघरा नहीं आ सकते क्योंकि यहाँ उनकी जान को खतरा है, लिहाज़ा ज़मानत की अर्ज़ी पर सुनवाई शुरु की जाये, लेकिन अदालत इस बात से राज़ी नहीं हुई और अपना सख्त रुख बरकरार रखा.

फरीद अब झाँसी में थे, और अब तक उन्हें यह पता लग चुका था कि बिना कोर्ट में हाज़िर हुए ज़मानत नहीं होगी. उनके पास इसके अलावा अब कोई रास्ता न था. मुश्किल यह थी कि सौघरा में उनका दाखिल होना ही एक तरह से उनकी मौत का फरमान था. फिर पुलिस से बचते हुए कोर्ट में सरेंडर करना एक दूसरी ही मुसीबत थी. काशनी साहब ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि अगर वह देर रात सौघरा पहुँचने वाली ट्रेन से आते हैं, तो स्टेशन पर क़ाशनी साहब खुद उन्हें लेने आ जायेंगे और फरीद को अपने ही घर में जगह देने को भी वह तैयार थे. फरीद को भी उस वक़्त यही सही लगा.

फरीद करीब हफ्ते भर बाद, अकेले ही अपना मुँह छिपाये, रात 1 बजे सौघरा स्टेशन पहुँचे थे जहाँ क़ाशनी साहब एक गाड़ी के साथ पहले से ही मौजूद थे और तुरंत ही फरीद को लेकर अपने घर चले गये.

फरीद का मुकदमा जस्टिस त्रिपाठी की अदालत में चल रहा था. सिंह साहब की मानना यह था कि भरी दोपहरी में और पुलिस से बचते हुए, कोर्ट में जस्टिस त्रिपाठी की अदालत में सरेंडर करना नामुमकिन और जोखिम भरा था, इसलिये सिंह साहब ने सलाह दी थी कि किसी रात जस्टिस त्रिपाठी के घर ही जाकर उनकी अच्छे ढंग से मान-मनौवल की जाये, उनको सारी परिस्थिति बतायी जाये, और फिर उनके आगे वहीं पर सरेंडर कर दिया जाये. क़ाशनी साहब ने भी इस पर हामी भरी.

अगली ही रात फरीद को लेकर क़ाशनी साहब और डॉ. सिंह, जस्टिस त्रिपाठी के घर पर गये, और वहीं पर सरेंडर करवाने की गुहार की. शुरुआत में जज साहब ने काफी आना-कानी की और अगले दिन अदालत में आने को कहा लेकिन डॉ. सिंह और क़ाशनी साहब ने समझाया कि अदालत में, और सौघरा शहर में भी फरीद की जान को खतरा है. फरीद से हमदर्दी दिखाते हुए इसके बाद जज साहब ने सरेंडर के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर दिये.

रात करीब 12 बजे, जब तक सिंह साहब जा चुके थे, और अनीसा सो चुकी थी, उस्ताद और शागिर्द क़ाशनी साहब के बरामदे में ही कुर्सी डाल कर बैठे थे. फरीद ने ही दोनों के लिये चाय बनाई थी और चाय की चुस्कियों के बीच दोनों बातें कर रहे थे, लेकिन आज पहले की तरह मुल्क और दुनिया के हालात पर गुफ्तगू नहीं हो रही थी. आज फरीद बुझा हुआ सा, गमगीन चेहरा लेकर बैठे थे और काशनी साहब उनके भीतर उम्मीद का दिया रोशन रखने की पुरज़ोर जद्दोजहद कर रहे थे. क़ाशनी साहब ने कहा "वैसे फरीद, इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी कि आपके भाई, वो भी मिर्ज़ा हैदर, ऐसा करेंगे."

"जी जनाब, उम्मीद तो हमें भी नहीं थी.....अब क्या कर सकते हैं." फरीद ने बेमन से, बिना उनकी तरफ देखे, जवाब दिया.

"मिर्ज़ा को कॉलेज में पढ़ाया है हमने फरीद.......आज के हालात देख कर बहुत दु:ख होता है."

फरीद ने उदास होकर कहा "हम लोगों के बीच में बेचारा सुलेमान तबाह हो गया........कोई गलती नहीं थी उसकी जनाब."

"गलती बस इतनी है कि वह आपका इकलौता, जवान बेटा है." काशनी साहब ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा.

फरीद खामोश थे.

उस्ताद ने आगे पूछा "बेल तो हो गयी आपकी.......अब आगे क्या करना है फरीद?"

"देखते हैं जनाब....पहले झाँसी जाकर सुलेमान से बात करेंगे. यहाँ सौघरा में तो एक पल भी नहीं रुक सकते जनाब."

शुज़ा की गाड़ी पटना से शाम 6 बजे की थी और अगली सुबह 7 बजे उन्हें सौघरा पहुँचना था. दाढ़ी वगैरह बना कर और ढंग के कपड़े पहनकर आज शुज़ा अपने घर के लिये निकल रहे थे और इतनी मुश्किलों का दौर खत्म होने चला था. इतने वक़्त के बाद बीवी, बच्चों से मिल पाने के खयाल से ही खुशी उनके चेहरे पर साफ दिख रही थी.

गाड़ी चल चुकी थी और रात करीब 9 बजे बजे बनारस पहुँच चुकी थी. शुज़ा ने स्टेशन के प्लेटफॉर्म से खाना लिया और कुछ फल भी खरीदे थे. खाना खाकर वह सो गये थे कि अब सौघरा में ही आँख खुलेगी.

झाँसी पहुँचकर फरीद ने अपने बेटे सुलेमान के साथ मिलकर घंटों इस बात पर अपना सिर खपाया कि उनका अगला कदम क्या होना चाहिये. फरीद को ज़मानत भले ही मिल गयी थी, मगर अभी भी उनके लिये ज़्यादा कुछ बदला नहीं था. हालात अभी भी उनके लिये कतई आसान नहीं थे. केवल इतना ही हुआ था कि अब पुलिस उनके पीछे नहीं लगी हुई थी, और उन्हें हर रोज़ थाने में हाजिरी नहीं लगवानी थी. वह कहीं भी आ-जा सकते थे. लेकिन हकीकत इतनी सीधी नहीं थी. असलियत में वह कहीं भी आ-जा नहीं सकते थे. हर तरफ मिर्ज़ा और मुराद के आदमियों का जाल बिछा हुआ था, और वो लोग फरीद और सुलेमान को किसी भी सूरत में ज़िंदा नहीं छोड़ने वाले थे. यहाँ तक कि क़ाशनी साहब और डॉ. सिंह जैसे लोगों पर भी नज़र रखी जा रही थी. ऐसे हालातों में फूँक-फूँक कर कदम रखना बहुत ज़रूरी था. उनकी एक गलती बाप और बेटे दोनों की मौत का सबब बन सकती थी. हर तरीके से गुणा-गणित करके फरीद ने सुलेमान के साथ अपने प्यारे सरवर के पास जालंधर जाने का फैसला किया था. बाप-बेटे ने तय किया था कि किसी को इस बात की कानोंकान खबर नहीं होनी चाहिये और वे दोनों सड़क के रास्ते, गाड़ियाँ बदल-बदल कर जालंधर पहुँचेंगे.

बाप-बेटे ने झाँसी से जालंधर जाने वाले सभी रास्तों की पड़ताल की तो पाया कि ये दूरी तय करना बहुत मुश्किल होगा. एक तो उनके पास सबसे ज़रूरी चीज़ यानि पैसों की काफी कमी थी और बचे पैसे भी तेजी से खत्म हो रहे थे, फिर यदि जालंधर जल्दी पहुँचना चाहते तो ग्वालियर और सौघरा के रास्ते जाना पड़ता, जो उनके लिये खुदकुशी करने जैसा था. अब उन्होने लम्बे रास्ते से जाने की सोची और पहले झाँसी से कोटा, फिर कोटा से जालंधर जाने का मंसूबा बनाया था लेकिन यह रास्ता भी उन्हें छोड़ना पड़ा क्योंकि यह रास्ता भी जयपुर से होकर जाता था. अब उनके पास एक ही तरीका था कि वह और भी ज़्यादा लम्बी राह लेते जो सौघरा, दिल्ली और जयपुर तीनों से बच कर निकलती हो. थक-हारकर उन दोनों ने पहले झाँसी से कोटा, फिर कोटा से जोधपुर, और फिर जोधपुर से फलोदी, हनुमानगढ़ और बठिंडा के रास्ते जालंधर पहुँचने का फैसला किया. यह दूरी करीब 1600 किलोमीटर बैठती थी. कम पैसों में सड़क के रास्ते इतनी दूरी तय करने का मतलब था, कि कम से कम 10-12 दिनों का वक़्त लगना था.

मिर्ज़ा के दिमाग में पिछले काफी अर्से से एक बात घूम रही थी. उनको नौकरी करते 25 बरस हो गये थे, और अब करीब 8-10 साल की नौकरी और बची थी. फिर उन्हें रिटायर हो जाना था. हाँलाकि रिटायरमेंट के बाद का बंदोबस्त उन्होनें काफी अच्छे ढंग से कर लिया था. दिल्ली वाली यूनिट की कमाई उन्हीं के जेब में जा रही थी. मुराद को गद्दी पर भी उन्होने बिठा दिया था. पेट्रोल पम्प का शानदार कारोबार अपने ससुर और बीवी के नाम से वही चला रहे थे, और फल और मेवों के धंधे में भी बेहतरीन मुनाफा काट रहे थे. ऊपरी कमाई को ढकने के लिये सूरजगढ़ फार्महाउस पहले से ही उनके पास था. कुल मिलाकर रिटायरमेंट की फिक्र उन्हें कतई करनी नहीं थी…….लेकिन वो मिर्ज़ा हैदर थे. उनके लिये आसमान की कोई हद ही नहीं थी. सपनों के समंदर में गोते लगाने वालों के लिये नदी-तालाब में तैरना आसान नहीं होता. मिर्ज़ा को अब समंदर की दरकार थी.

मिर्ज़ा के खयाल में किसी रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी की हैसियत एक बिना दाँत वाले, सड़कछाप कुत्ते से ज़्यादा कुछ नहीं होती, जिसका भौंकना अनसुना करते हुए राहगीर अपने रास्ते चले जाते हैं. मिर्ज़ा अब तक शेर की तरह जिये थे, और वो ताउम्र शेर की तरह ही जीना चाहते थे. आज की दुनिया में, और वो भी हिंदुस्तान जैसे मुल्क में, रिटायरमेंट के बाद भी शेर की तरह जीने की चाहत रखने का एक ही मतलब था – मज़बूत सियासी पकड़. मिर्ज़ा अब आने वाले वक़्त में, सियासत में अपने मुस्तकबिल से जुड़े इमकानात तलाशने के ख्वाहिशमंद थे.    

उन दिनों रुखसार मिर्ज़ा के पास उनके सूरजगढ़ फार्महाउस पर आयी हुई थीं. वह काफी दिनों से सौघरा में ही थीं, और कहीं बाहर घूमना चाह रही थीं. ऐसे में जब मिर्ज़ा ने उन्हें अपने पास सूरजगढ़ फार्महाउस पर आने का न्यौता दिया तो इसे उन्होनें हँसते हुए कुबूल कर लिया और सीधे सूरजगढ़ पहुँच गयीं थीं. अब जब तक वह यहाँ थीं, मिर्ज़ा भी सूरजगढ़ से ही रोज़ दिल्ली आते-जाते थे. इसी दौरान एक दफा, शाम को दफ्तर से आने के बाद, सोफे पर तसल्ली से बैठे-बैठे चाय पीते हुए उन्होनें रुखसार से अपनी सियासी चाह-तलबी का ज़िक्र किया था. रुखसार ने चाय पीते हुए मुस्कुराकर पूछ लिया "आपको कमी क्या है मिर्ज़ा?......अल्लाह-पाक का दिया सब कुछ तो है आपके पास."

अपने दायें हाथ की उंगलियों और अंगूठे को अपने होठों पर फेरते हुए मिर्ज़ा ने संजीदगी से, हल्की सी मुस्कान के साथ जवाब दिया "ताक़त आपा!......अवाम की ताक़त!.....वो इस दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त है. वो नहीं है हमारे पास."

रुखसार हँस रही थीं "आपके पास ताक़त नहीं है?"

"जी आपा, ताक़त नहीं है हमारे पास." फिर चाय का एक घूँट पीकर कहा "अभी आप जो ताकत और रुतबा देख रही हैं ना आपा.....ये सरकारी ताकत और रुतबा है. कुछ दिन में नौकरी खत्म होने के साथ ये भी खत्म हो जायेगा......फिर क्या होगा?....इतने बड़े खलीफे, मिर्ज़ा हैदर बेग रिटायर होकर यहीं अपने फार्महाउस के एक कमरे में पड़े रहेंगे!!......एक कमरे में सोयेंगे, फिर वहाँ से उठकर किसी दूसरे कमरे में जाकर सोयेंगे......फिर वहाँ से उठे, खाना खाया, और किसी तीसरे कमरे में जाकर सो गये......बस यही होगा."

रुखसार गौर से सुन रही थीं.

"...और जिस ताकत की बात मैं कर रहा हूँ, उसका कोई पारावार नहीं है......उसकी कोई हद नहीं है.....क्योंकि वो सरकार के नहीं, अवाम के मुनहसिर हैं. जम्हूरियत में अवाम की ताकत ही सबसे ऊपर होती है, और जिसके पास वह ताक़त आ गयी आपा, फिर वो तो दुनिया का बादशाह है."

मिर्ज़ा ने आगे कहा "आप सोचिये आपा, एक आदमी के साथ 12 लाख लोगों की ताक़त.....इसका मतलब समझती हैं आप?"

रुखसार मिर्ज़ा को देख रही थीं.

"....इसका मतलब है कि जब आप चलते हैं तो आप अकेले नहीं चलते.....आपके साथ 12 लाख लोग चलते हैं........सोचिये आपा, 12 लाख लोग बिना कुछ सोचे-समझे आपके साथ खड़े हैं. अब इन भेड़ों को आप जैसे मर्ज़ी, वैसे हाँक लीजिये......जो मर्ज़ी हो, वो फैसला निकलवा लीजिये......सोचिये आपा......पूरी दुनिया आपके कदमों के नीचे होगी!!"

रुखसार ने मुस्कुराकर कहा "इतनी जल्दी क्या है मिर्ज़ा?.....अभी तो काफी साल बाकी हैं आपकी नौकरी के ना?"

"कहाँ आपा?......25 बरस तो यूँ निकल गये, अब आठ-दस बरस गुज़रते भी बिल्कुल देर नहीं लगेगी.

रुखसार अभी अपने भाई की बात सुन रही थीं.

लम्बी साँस छोड़ते हुए मुस्कुराकर मिर्ज़ा बोले "सियासत लम्बा काम है आपा, यह वक़्त और सब्र माँगती है. बड़ी मेहनत से और काफी वक़्त लगाकर, पहले ज़मीन तैयार करनी पड़ती है. फिर बीज रोपना होता है, और पौधा ज़मीन के बाहर आ पाता है. फिर लगातार खाद-पानी देते रहना पड़ता है, तब कहीं जाकर काफी वक़्त के बाद वह पेड़ बन पाता है, फिर और लम्बे वक़्त के बाद ही वह फल देता है."

"मुझे ज़्यादा तो नहीं पता मिर्ज़ा लेकिन यह काफी खर्चीला, जोखिम भरा, बहुत पेचीदा और नाकबिल-ए-पेशगोई वाला काम है." बहन ने भाई से कहा.

"वो तो है आपा......बेशक यह खर्चीला, जोखिम से भरा, बहुत पेचीदा और नाकाबिल-ए-पेशगोई वाला हिसाब-किताब है, लेकिन जो फायदा होगा वह भी बेहिसाब होगा.....इतने बरस ये नौकरी कर के जो भी कुछ हासिल किया है, आखिर एक बार तो इस खेल में भी दाँव लगाकर देखा जाये!....कोई बुराई तो है नहीं!!"

"शुरुआत कैसे करेंगे?" रुखसार का सवाल था.

"कुछ सियासी जमातों के लीडरान से, बस ऐसे ही, चलती-फिरती सी बात हुई है......इसी तरह से ये बातें आगे भी करते रहनी पड़ेंगी, और एक वक़्त आयेगा जब संजीदगी के साथ इसको अमल में लाने की कोशिश की जायेगी."

रुखसार ने पूछा "इलेक्शन लड़ने के लिये तो वोट चाहिये मिर्ज़ा.....वो कहाँ से आयेगा?"

"वही तो ज़मीन है आपा, जिसे तैयार करना होगा.......वोट बैंक बनाना पड़ेगा, और उसके भी पहले सियासी लीडरान और अवाम के आगे भी यह दिखाना पड़ेगा कि हम भी मैदान में आना चाहते हैं." मिर्ज़ा ने हँसकर कहा.

रुखसार चुप बैठी थीं.

"वैसे कुछ वक़्त से एक बात और हमारे दिमाग में बार-बार आ रही है.......हम आज दफ्तर में भी ये बात सोच रहे थे."

"क्या?"

मिर्ज़ा ने अपने गालों को अपनी उँगलियों से खुजलाते हुए लम्बी साँस छोड़ी और कहा "ये फरीद भाईजान का क्या करना है?"

"क्या मतलब?" रुखसार के चेहरे पर खिंचाव आ गया था.  

फरीद की ज़मानत मंज़ूर हो जाने की खबर अब आम हो चुकी थी. सवालों के दायरे में रहीं कम्पनी की सभी यूनिटें दोबारा खुल गयीं थीं और वहाँ पहले की तरह काफी अच्छा काम भी चल रहा था. पुलिस भी अदालत में कोई ठोस सबूत नहीं दे पा रही थी. ऐसे में फरीद के कई सारे वफादार और जान-पहचान के लोग, जो अलग-अलग यूनिटों में काम करते थे, उन सभी ने धीरे-धीरे ये हवा बनानी शुरु कर दी थी कि असल में कम्पनी में कुछ भी धाँधलेबाज़ी वाला काम हो ही नहीं हो रहा था. ये फाइनेंशियल इर्रेगुलेरिटीज़, टैक्स फ्रॉड, और करप्शन के चार्ज दरअसल मुराद, और शुज़ा के शैतानी दिमाग की उपज थे, जिसको पूरा करने के लिये उन्होनें मिर्ज़ा हैदर का सहारा लिया था. ये तीनों भाई मिलकर फरीद को गद्दी से हटाना चाहते थे, जिस से ये खुद कम्पनी के मालिक की गद्दी पर बैठ सकें. असल में फरीद की सरपरस्ती में कम्पनी बिल्कुल सही तरीके से, और अच्छा काम कर रही थी. फरीद के वफादार ये लोग अब दबी ज़ुबान में यह बात उठा रहे थे कि फरीद को वापिस गद्दी पर बिठाया जाये, क्योंकि मुराद गद्दी पर बैठने के काबिल कतई नहीं हैं. फिर यह बात भी कही जा रही थी कि जिस तरह से इन लोगों ने मिलकर फरीद को बेदखल किया है, उसी तरह से अब इन तीन भाईयों में भी कम्पनी पर कब्ज़े को लेकर तकरार शुरु होगी, जिसका सबसे ज़्यादा नुकसान इस कम्पनी को और कम्पनी के स्टाफ को उठाना पड़ेगा. फरीद कम्पनी के मालिक की हैसियत से इन लोगों से काफी बेहतर थे.

मिर्ज़ा तक भी ये खबरें सरसरी तौर पर उड़ती-उड़ती पहुँच रही थीं, और इसलिये वह परेशान थे.

"मेरे खयाल में आप लोगों को कोई अच्छा वकील देखना चहिये, उसे मुँहमाँगी कीमत देनी चाहिये, और वह आपका काम ज़रूर करवा देगा." रुखसार ने राय दी.

पटना से दिल्ली जाने वाली गाड़ी जब सौघरा पहुँची तो जिनको उतरना था, वे उतर गये. गाड़ी भी आगे बढ़ गयी थी. दिन के 11:30 बज चुके थे लेकिन शुज़ा अपने घर नहीं पहुँचे थे. थोड़ी देर पहले तक खुश नज़र आ रही शगुफ्ता की हवाइयाँ उड़ी हुई थीं. उसने दफ्तर में बैठे मुराद को फोन करके शुज़ा के अभी तक न आने की इत्तला दी, और गुजारिश की कि आदमियों को स्टेशन भेजकर पता लगवाएं कि क्या बात है.

झाँसी से चलकर करीब 15 दिन बाद एक सुबह फरीद और सुलेमान जालंधर में सरवर के घर के दरवाज़े पर पहुँचे. वहाँ पहुँचने तक वे दोनों फटेहाल हो गये थे. रास्ते भर न ढंग से खाना खाया था, न ढंग से सो सके थे. नहाना-धोना भी बहुत कम ही हो पाया था और वो भी तब जब वे लोग जोधपुर, फलोदी, बीकानेर, हनुमानगढ़ जैसे घोर रेगिस्तानी और गर्म इलाकों से सड़क के रास्ते आये थे. दाढ़ी भी काफी बढ़ गयी थी उनकी. पैसे भी बिल्कुल खत्म थे. सरवर उस वक़्त अपने घर पर था, वहाँ उसको बताया गया कि सौघरा से कोई फरीद और सुलेमान आये हैं, तो सरवर भाग कर घर के बाहर आया और फरीद से लिपट गया. फरीद भी उसके गले लगकर फूट-फूट कर रोने लगे थे. सरवर ने उन्हें चुप कराया और फिर वह उन बाप-बेटे को बड़े अदब के साथ अपने घर ले गये. बड़े अर्से के बाद फरीद और सुलेमान आज तबियत से नहाये थे. नहाने के बाद सरवर ने उन्हें नये और अच्छे कपड़े भी पहनने को दिये. फरीद और सुलेमान ज़ार-ज़ार रोये जा रहे थे. कभी एक वक़्त था जब उनके तन पर हमेशा बहुत अच्छे कपड़े ही होते थे, वहीं आज उनके पास फटे-पुराने, और बदबूदार कपड़े ही थे. ऐसे कपड़ों से सौघरा में सैयद साहब की गाड़ी साफ की जाती थी. आज फरीद एक तौलिये, एक अदद रूमाल के लिये भी तरस रहे थे. हमेशा अपनी कम्पनी की बेहतरीन क्वालिटी की सैंडिल पहनने वाले फरीद के पास आज केवल टूटी और फटी हुईं चप्पलें थी जिन्हें घिसट-घिसट कर किसी तरह वह यहाँ तक आये थे. सरवर ने उन्हें बेहतरीन नाश्ता परोसा था. कभी वह भी वक़्त था कि हमेशा नहाने-धोने के बाद फरीद को बिल्कुल सही वक़्त पर नादिरा शानदार नाश्ता खिला दिया करती थीं. आज फरीद दाने-दाने के भी मोहताज थे और सरवर के घर नाश्ता करते वक़्त उन्हें सुकून महसूस हो रहा था या बेचैनी, वह खुद नहीं समझ पा रहे थे.......और मदद लेने आये भी, तो किसके पास?......उसी सरवर के पास, जिसको हमेशा उन्होनें ही सैयद साहब और अली साहब से डाँट खाने से बचाया था? उसी सरवर के पास, जिसको फरीद ने ही अपने ड्रीम प्रोजेक्ट पर काम करने का मौका दिया? उसी सरवर के पास, जिसका आज जो भी नाम और जो भी पोजीशन थी, वह फरीद ही वजह से ही बनी थी?.......और आज किस्मत फरीद के साथ ऐसा खेल खेल रही थी कि इसी सरवर के पास आज फरीद को जान बचाने और मदद माँगने के लिये आना पड़ा था. आज वह सरवर इन्हें नाश्ता करवा रहा था. आज वही इन्हें पहनने के लिये कपड़े दे रहा था. अभी वही इन्हें दोपहर का खाना भी खिलायेगा. खैर.

सरवर भी उनकी इस मजबूरी और झिझक को समझ रहा था, और इसी वजह से उसने कुछ नहीं कहा.

फरीद और सुलेमान नाश्ता कर चुके थे, और सिर नीचे किये हुए बैठे थे. फरीद को अंदर से इतनी आवाज़ ही नहीं आ रही थी कि वे आँख उठाकर सरवर की ओर देख सकें. वह अभी भी रो रहे थे. यह सब समझते हुए सरवर ने ही थोड़ा हिचकते हुए बात शुरु की "हमें काफी अजीब ही लगा फरीद भाईजान.......जब हमने अखबारों में ऐसा पढ़ा......अजीब क्या, हमें तो काफी गुस्सा आया और बेहद तकलीफ भी हुई...."

फरीद अभी भी सिर नीचे किये हुए थे.

"....अच्छे लोगों के साथ बुरा नहीं होना चाहिये फरीद भाई.......इंसानियत पर से भरोसा उठ जाता है.......और फिर आप तो उनके बड़े भाई ठहरे!.....उन लोगों को कारोबार आपने ही सिखाया है, और उन्होनें....." फिर सरवर चुप हो गया.

बुरी तरह से रोते फरीद ने अपना हाथ अपने चेहरे पर रख लिया. उन्हें इस तरह से रोता देख कर किसी का भी दिल दहल सकता था. सुलेमान अपने अब्बू को चुप कराने की कोशिश कर रहा था "अब्बू, अब हम लोग आ गये हैं यहाँ........सरवर चाचा हैं यहाँ अब्बू.......वह सब ठीक कर...." फिर सुलेमान भी खुद को रोने से न रोक सका. वह क्या बोल रहा था?.......अब हम लोग आ गये हैं यहाँ.......सरवर चाचा हैं यहाँ.....वह सब ठीक कर देंगे......फरीद और सुलेमान दोनों यही सोच रहे थे, कि बस यही दिन देखना और बाकी रह गया था. किस्मत देखिये, फरीद और सुलेमान के मुँह से ही ऐसी बातें निकल रही थीं, और वह भी सरवर के लिये.

सरवर फरीद के पास आकर बैठा और उनके कंधे थपथपा कर उन्हें दिलासा देने की कोशिश करने लगा. उसने कहा "छोटा मुँह, बड़ी बात होगी फरीद भाई.......मेरी कोई भी औकात नहीं है आपके आगे, बल्कि मेरा तो वजूद ही आपसे बना है फरीद भाई.......जो भरोसा आपने हम पर जताया, ऐसा तो हमारे अब्बू भी न कर सके थे......तो आपसे अब क्या कहें फरीद भाई?.....केवल इतना कहेंगे कि आप के लिये आपका ये छोटा भाई अपनी जान देने को भी तैयार बैठा है, आप केवल हुक्म कीजिये........आदमी, गाड़ी, हथियार, पैसे, क्या कुछ चाहिये आपको, आप मुझे बेझिझक बताइये फरीद भाई!.......अपनी औकात से भी बढ़ कर, किसी भी हद से आगे जाकर आपकी मदद करूँगा फरीद भाई!!" यह कहकर सरवर ने फरीद का हाथ, अपने हाथ में लेकर चूम लिया और उनका हाथ पकड़ कर बैठा रहा.

फरीद ने चेहरा ऊपर किया. बहुत ज़्यादा रोने की वजह से उनकी आँखें लाल और सूजी हुई सी थीं और पूरा चेहरा भी लाल हो रखा था. फरीद ने सरवर के चेहरे को हाथ से पकड़कर उसके माथे को चूम लिया और उस से कहा "बेटा सरवर, अभी हमें आदमी, हथियार, पैसे, इनमें से किसी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है. हमें अभी सिर्फ एक महफूज़ जगह चाहिये, जहाँ हम रुक सकें, और खुद को दोबारा से इकट्ठा कर सकें.....बाकी हमें और कुछ नहीं चाहिये."

"ये आपका ही घर है भाईजान.....जितना मर्ज़ी उतना वक़्त रहिये, जैसे मर्ज़ी हो वैसे रहिये, और जो भी करना चाहें वो कीजिये......ये सब कुछ जो भी है, आपका ही दिया हुआ है फरीद भाई!!.....किसी भी चीज़ की ज़रूरत लगे तो बेधड़क हुक्म दीजियेगा, इजाज़त माँगकर हमें शर्मिंदा मत कीजियेगा.......और हमारा वादा है आपसे, कि आप यहाँ जालंधर में जब तक भी रहेंगे, बिल्कुल महफूज़ रहेंगे. शुज़ा भाई, मिर्ज़ा भाई, मुराद भाई, और कस्तूरिया जी को भी आपके बारे में कुछ भी पता नहीं चल सकेगा, ये मेरी गारंटी है भाईजान!!" इस तरह से सरवर ने उनको उनकी हिफाज़त का पूरा भरोसा दिलाया. उसने इन बाप-बेटे को घर में एक बड़ा और सुंदर, आरामदायक कमरा भी मुहैया करवा दिया था जिसमें एक टेलीफोन भी लगा हुआ था. यह सब करने के बाद सरवर अपने दफ्तर चला गया.

शुज़ा की जब आँख खुली तो उन्होनें खुद तो एक पुराने से, सीलन वाले, बदबूदार कमरे में लोहे की चारपायी पर लेटा हुआ पाया. भयंकर मच्छर लग रहे थे वहाँ. वहाँ खिड़की से सूरज की रोशनी ज़रूर आ रही थी. हड़बड़ा कर शुज़ा उठे. उनकी कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था. हाथ वाली घड़ी में वक़्त देखने के लिये जब हाथ देखा तो घड़ी भी गायब थी. वे कहाँ थे?.....सौघरा में अपने घर पर तो बिल्कुल नहीं थे?......फिर कहाँ थे?....ट्रेन से तो सौघरा के लिये निकले थे पटना से, ये कहाँ आ गये थे?.....इलाहाबाद तक तो एकदम सही आये थे, फिर क्या हुआ?.....शुज़ा कुछ याद भी नहीं कर पा रहे थे....."इलाहाबाद में क्या हुआ था?......मुझे याद क्यों नहीं आ रहा है?......कौन सा आदमी ऊपर वाली बर्थ पर था?.......क्या कहा था उसने?" वह बार-बार अपना सिर ठोक रहे थे कि शायद कुछ याद आ जाये. वह अपने चारों ओर बदहवासी में देख रहे थे. उनका सामान जो वह लेकर चले थे, वहीं चारपायी के पास ही रखा था. झटके से वह चारपायी से उठे और दौड़कर खिड़की के पास गये. बाहर देखा तो भरी दोपहरी हो रखी थी. उन्होनें ध्यान लगाकर देखा और सुना तो बाहर दुकानों के साइन बोर्ड बांग्ला भाषा में लिखे हुए थे. लोगों की आवाज़ें भी बांग्ला ज़बान में ही सुनाई दे रही थीं. "क्या मैं फिर से कलकत्ता तो नहीं आ गया?.....क्या मुझे अगवा तो नहीं कर लिया किसी ने?" वह बार-बार अपना सिर पीट रहे थे और चेहरे पर हाथ मल रहे थे. शुज़ा सही सोच रहे थे. असल में वह अगवा ही कर लिये गये थे और इस वक़्त फिलहाल वह कलकत्ते में ही थे. 

उस रात करीब 11 बजे शुज़ा की ट्रेन इलाहाबाद पहुँच गयी थी. इलाहाबाद एक बड़ा स्टेशन था और स्टेशन पर होने वाले शोर-शराबे से शुज़ा की नींद खुल गयी थी. वह उठकर अपनी बर्थ के पास वाली खिड़की में से जायज़ा ले रहे थे कि गाड़ी कहाँ पहुँची. तभी पीछे से उनके कंधे पर किसी ने हाथ से थपथपाया. शुज़ा खिड़की में से झाँकना छोड़कर पीछे मुड़े, उन्हें लगा कि टी.टी. आया होगा, लेकिन वहाँ कोई टी.टी. नहीं था, बल्कि गलियारे में लोग आ-जा रहे थे. तभी शुज़ा ने अपनी बर्थ पर ठीक अपने सामने एक सफेद रंग का छोटा लिफाफा पड़ा देखा. "किसी के हाथ से गिर गया होगा" ये सोचकर वह इसे उठा नहीं रहे थे. इसी समय ऊपर की बर्थ वाले मुसाफिर ने कहा "जब आप बाहर देख रहे थे, तभी आपकी सीट पर कोई आदमी ये रख कर चला गया."

अब शुज़ा ने वह लिफाफा उठाया. उसके भीतर एक फोटो रखी थी. शुज़ा ने जब वह फोटो निकालकर देखी तो उनके होश उड़ गये. अचानक उनके दिल की धड़कन बढ़ गयी थी और उनकी उँगलियाँ और होंठ काँपने लग गये थे. उनके पेशानी पर पसीने की बूँदे अचानक आ गयीं थीं. वह एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटोग्राफ था जिसमे शुज़ा की बीवी शगुफ्ता, अपने बच्चों के साथ मुस्कुराती नज़र आ रही थीं. शुज़ा ने फोटो पलटी तो उसके पीछे लिखा था "इनकी सलामती चाहते हो तो चुपचाप सामान लेकर फतेहपुर स्टेशन पर उतर जाना, वरना सौघरा तो दूर की बात है, कानपुर भी देख नहीं पाओगे." इस वक़्त शुज़ा के हाल ऐसे थे कि काटो तो खून न निकले.

अब शुज़ा की आँखों में नींद नहीं थी. रात के डेढ़ बजे, जब डिब्बे में सभी लोग गहरी नींद में थे, शुज़ा अपना सामान लेकर चुपचाप गाड़ी से उतर गये थे. प्लेटफॉर्म पर कुछ दूरी पर, पत्थर की बेंच लगी थी. उसी के पास जाकर शुज़ा ने सामान नीचे रखा और खड़े ही रहे. उनका चेहरा जो अभी 3 घंटे पहले तक घर लौटने की खुशी बयान कर रहा था, अब बिल्कुल खोया हुआ सा, बुझा-बुझा सा और मायूस नज़र आ रहा था. मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे. अब वह गाड़ी को अपने सामने से जाता देख रहे थे. इसी समय किसी ने पीछे से उनके सिर पर बहुत ज़ोरदार वार किया.

अब शुज़ा को सब धीरे-धीरे याद आ रहा था. वह बेहद गुस्से में अचानक ज़ोर से चिल्लाये "मुराद!!!"

वह चीख रहे थे "मुराद!!!.....हरामखोर!!!......मैं जानता था, मुराद!! मैं सब जानता था......तेरे मन में शुरु से चोर था कमीने!!!" फिर शुज़ा भागकर उस कमरे के भारी-भरकम, जंग लगे हुए लोहे के दरवाज़े के पास पहुँचे और ज़ोर से उस पर एक लात मारी "साले सुअर!!!....धोखेबाज़!!....दारूबाज़!!!.....रंडीबाज़!!!.....मुझे पहले से पता था....तू यही करने वाला था.....तुझ पर भरोसा करके मैंने बहुत बड़ी गलती की रे हरामी!!" और फिर से एक लात दरवाज़े पर ज़ोर से मारी. वह चिल्ला रहे थे "अबे दरवाज़ा खोलो मुराद के कुत्तों!!....सामने तो आओ मादरचोदों!!.....अगर अपने बाप की ही औलाद हो तो सामने आओ!!!.......किसने बंद किया है मुझे यहाँ?....कौन लेकर आया मुझे?....बेहोश करके लाये न मुझे यहाँ!......पीछे से वार किया था ना मेरे ऊपर!!......यही कर सकते थे तुम. शेर का सामना करने की तो तुम्हारी औकात ही नहीं है कमीनों!!.....न तुम्हारी और न तुम्हारे बाप मुराद की!!......तुम सब साले बुज़दिल और कायरों की औलाद हो!!!" शुज़ा दरवाज़े को तोड़ देने पर आमदा थे. एकाएक दरवाज़ा झटके से अंदर की ओर खुला और शुज़ा छिटक कर दरवाज़े से कुछ दूर ज़मीन पर जा गिरे.

दो हट्टे-कट्टे आदमी, अपने हाथों में स्टील की मोटी-मोटी रॉड लेकर तेज़ी से कमरे में दाखिल हुए और शुज़ा की तरफ झपटे. शुज़ा अभी ज़मीन पर गिरे पड़े थे और उन आदमियों को देख कर शुज़ा की उँगलिया और होंठ काँप रहे थे, साफ था कि उन्हें डर लग रहा था. उन दोनों मे से एक ने ज़ोर से कहा "तुमी चुप कोरे थकते परबे ना माचोदा?" और स्टील की रॉड ज़ोर से खींच कर शुज़ा के ऊपर दे मारी. "तुमी नीच!!!....अर जदी तुमी रो किचू बोली, आमरा एखाने कबर खनन करब एबोंग तोमाके जीबितो कबार देब!!" दूसरे आदमी ने गुस्से में कहा और उसने भी रॉड से शुज़ा को ज़ोर से मारा. फिर उन दोनों से पूरी तबियत से शुज़ा की तगाई की. बेचारे शुज़ा उनके आगे हाथ ही जोड़ते रहे मगर उन दोनों ने उनकी एक न सुनी. थोड़ी देर बाद वह लोग चले गये. शुज़ा बेहद ज़ख्मी हालत में ज़मीन पर पड़े कराह रहे थे. जगह-जगह से उनके कपड़े फट गये थे और उनके होंठों, घुटनों और उँगलियों से खून निकल रहा था. ज़मीन पर उसी हालत में पड़े-पड़े कुछ देर के बाद शुज़ा को नींद आ गयी थी.

शुज़ा उस दिन दोपहर तक भी अपने घर नहीं पहुँचे थे और शगुफ्ता पछाड़ें खाकर गिर रही थीं. उनके कहने से मुराद ने सौघरा स्टेशन पर भी अपने आदमी भेजे थे. वहाँ यह पता चला कि पटना से दिल्ली जाने वाली ट्रेन तो बिल्कुल सही वक़्त पर सुबह 6:30 बजे सौघरा आयी थी, और फिर दिल्ली निकल गयी. यह सुनकर शगुफ्ता और बदहवास सी हो गयी थीं. उन्हें कुछ समझ ही नहीं आ रहा था. वह फूट-फूट कर मुराद के आगे रोये जा रही थीं "ट्रेन में सोते तो नहीं रह गये वो?......दिल्ली तो नहीं पहुँच गये होंगे वो?......एक बार मिर्ज़ा को फोन लगाइये ना मुराद!....अल्लाह के वास्ते पता कीजिये मुराद!!....कहाँ रह गये आपके भाई?" मुराद और बाकी के घरवाले भी काफी परेशान हो गये थे. मुराद ने अपनी भाभी को हौसला दिया और यह भरोसा दिया कि शुज़ा भाईजान को किसी भी तरह खोज कर, जल्द से जल्द उनके सामने ले आयेंगे. मुराद ने अपनी भाभी से कहा वह परेशान ना हों, और यह कि उन्होनें दिल्ली और दूसरी जगहों पर भी शुज़ा की खोज के लिये अपने आदमी पहले ही लगा दिये हैं.

अपनी आपा की सलाह मिर्ज़ा को जँच गयी थी और वह अब उन बेहतरीन वकीलों की तलाश में थे जो उनका काम अच्छे ढंग से पूरा कर सके. वह ऐसे वकील चाहते थे जो फरीद पर ज़्यादा से ज़्यादा चार्जेज़ लगा कर उनको लम्बी से लम्बी सज़ा दिलवा सके, और मुराद को ज़्यादा से ज़्यादा सही साबित कर सके, ताकि कम्पनी के कर्मचारियों के एक धड़े में फरीद को लेकर जो मोहब्बत और मुराद के लिये जो नफरत थी, ये दोनों ही खत्म हो जायें. इस से मुराद का कम्पनी के मालिक की गद्दी पर लम्बे वक़्त के लिये बने रहना पक्का हो जायेगा. वकीलों के फीस मिर्ज़ा के लिये कभी कोई मसला ही नहीं थी.

उन दिनों दिल्ली की कोर्ट-कचहरियों के गलियारों में दो वकीलों के नाम का सिक्का चला करता था. ये वकील थे एडवोकेट प्रवीण सिन्हा और एडवोकेट ज़फर अली. सिन्हा साहब और ज़फर अली दिल्ली के सबसे कामयाब और सबसे जाने-माने वकीलों में गिने जाते थे, जिनकी फीस उन दिनों सबसे ज़्यादा हुआ करती थी और सभी के बस की बात नहीं होती थी कि ये फीस दे सकें. और कानून पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ का आलम ये था कि ऐसा लोग कहा करते थे कि जब सिन्हा साहब या ज़फर अली ज़िरह करने उतरते थे तो सुनवाई करने वाला जज भी खौफ में रहा करता था. इन्हीं वकीलों को मिलने के लिये, अगले इतवार की शाम, मिर्ज़ा ने सूरजगढ़ के अपने फार्महाउस पर बुलवाया था.

शाम को सिन्हा साहब और ज़फर अली एक साथ ही मिर्ज़ा के फार्महाउस पर पहुँचे. मिर्ज़ा ने अपनी बहन रुखसार के साथ उन लोगों की आगवानी की और मिठाई, समोसे, सॉल्टेड काजू, रोस्टेड पिस्ता के साथ काफी बढ़िया चाय-नाश्ता वगैरह करवाया. अब काम की बात शुरु की गयी. ज़फर साहब ने पूछा "कहिये मिर्ज़ा साहब, हमें कैसे याद किया आपने?

"कुछ ज़रूरी मसला सुलझाना है ज़फर साहब, और ये काम आप दोनों ही कर सकते हैं." मिर्ज़ा ने कहा.

"जी, फरमाइये." सिन्हा साहब बोले.

"एस.जे. लेदर कम्पनी में क्या चल रहा है, ये सब तो अखबारों में पढ़ ही लिया होगा आपने?"

लम्बी साँस छोड़ते हुए सिन्हा साहब मुस्कुराये और कहा "अब अखबार में तो सभी वही पढ़ते हैं जो सामने दिखाई पड़ता है...."

मिर्ज़ा उन्हें देख रहे थे.

ज़फर साहब ने कहा "देखिये मिर्ज़ा साहब, हम अपने मुवक्किल की मदद तभी कर सकते हैं जब हमें सारी बातें बिल्कुल सटीक, बिल्कुल सच-सच पता हों....वरना बात बिगड़ जाती है. इसलिये आप हमसे कुछ भी ना छिपाइयेगा."

मिर्ज़ा ने पहले उन दोनों की ओर देखा, फिर बगल में बैठी अपनी आपा की आँखों में देखा. रुखसार सोफे पर बैठी हुई थीं और उनकी दोनों कोहनियां सोफे के हत्थों पर थीं. उनके दायें हाथ की नाज़ुक उँगलियाँ उनके होंठों पर फिसल रही थीं और वह बड़ी संजीदगी से दोनों वकीलों को देख रही थीं. मिर्ज़ा ने जब रुखसार की ओर देखा तो उन्होनें अपनी ठोड़ी की हल्की सी जुम्बिश से इशारा किया और फिर मिर्ज़ा ने सिन्हा साहब और ज़फर अली को सारी बात साफ-साफ बता दी. उन्होनें सीधे-सीधे बताया कि अब उनका मकसद यही है, कि फरीद ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त तक सलाखों के पीछे रहें. उन्होनें इस मुकदमें से जुड़े सभी कागज़ात और फरीद की ज़मानत के भी कागज़ातों की नकल वकीलों के सामने रखी.

अब सिन्हा साहब और ज़फर अली, उन कागज़ों की बारीकी से जाँच-पड़ताल कर रहे थे. वे आपस में कागज़ों की अदला-बदली भी कर रहे थे, और बीच-बीच में कुछ बातें भी किये जा रहे थे. चश्मों के पीछे से झाँकती उनकी आँखें और उनके चेहरे की झुर्रियाँ ये साफ बता रहीं थीं कि उनमें और बाकी वकीलों में क्या फर्क था, और क्यों. उनके चेहरे की झुर्रियाँ असल में झुर्रियाँ नहीं थीं, बल्कि उनका लम्बा और गहरा तजुर्बा था जो झुर्रियों की शक्ल में दिखाई दे रहा था. हर झुर्री किसी पुराने मुकदमे का पन्ना सा लग रही थी. ऐसे कितने ही पन्ने धँसे हुए थे इन किताबों में. मिर्ज़ा और रुखसार बड़े गौर से उन्हें देख रहे थे और कमरे में मुर्दनी सी छाई हुई थी.

काफी देर के बाद सिन्हा साहब और ज़फर अली ने सभी कागज़ पढ़कर खत्म किये. फिर उन दोनों ने अपने चश्में उतार कर सामने मेज पर रखे और अपनी दायें हाथ की उंगलियों और अँगूठे से अपनी आँखे मीचते हुए सिन्हा साहब ने कहा "हम्म्म्म्म.....मसला तो नाज़ुक है."

"मतलब?" मिर्ज़ा ने पूछा.

"मतलब ये मिर्ज़ा साहब कि जो भी कुछ आपने हमें बताया है और ये जो भी पेपर्स आपने हमारे आगे रखे हैं, अगर इनकी बातों को सही माना जाये तो फरीद पर लगे चार्जेज़ को कोर्ट में साबित करना और उन्हें जेल भिजवाना काफी मुश्किल है."

"क्यों वकील साहब?" रुखसार ने पूछा

"मैडम, देखिये, सीधी सी बात है....झूठी बात को साबित करना हमेशा मुश्किल होता है." ज़फर अली बोले. "उन्हें कोई भी सज़ा दिलाने के लिये ये सभी सबूत नाकाफी हैं, और इनमें कई कमियाँ भी हैं......लम्बी सज़ा की तो बात जाने दीजिये."

भाई-बहन बिल्कुल चुप थे.

"कोई रास्ता निकालिये अली साहब. बड़ी उम्मीद से आपको बुलाया है." मिर्ज़ा ने फिर बड़े अदब से कहा.

रुखसार का पारा चढ़ रहा था मगर वह चुप थी.

"आप ठोस सबूत लाकर दे दीजिये, रास्ता खुद-ब-खुद निकल जायेगा." सिन्हा जी बोले.

कमरे में खामोशी फिर से छा गयी.

ज़फर अली ने पूछा "आप सच बताइये, कि आप चाहते क्या हैं?"

"हम ये चाहते हैं कि उनसे लोग नफरत करने लग जायें......बेहद नफरत करने लग जायें. फरीद को लोगों की नज़रों में, खासतौर पर अपने घर-परिवार और अपने कम्पनी के स्टाफ की नज़रों में गिराना चाहते हैं. उनको आसानी से ज़मानत मिल जाने से अभी लोगों का सोचना यही है कि फरीद ने कोई गलत काम नहीं किया है और उनको फँसाया जा रहा है.......लोग अभी भी उनसे मोहब्बत करते हैं, और मुराद को सख्त नापसंद करते हैं......हम ये चाहते हैं कि लोग यह सोचें कि फरीद आदमी ही खराब हैं और ऐसे आदमी का साथ किसी कीमत पर नहीं देना चाहिये. हम चाहते हैं कि स्टाफ के दिमाग से ये बात पूरी तरह खत्म हो जाये कि फरीद को कम्पनी में कुछ भी होना चाहिये." मिर्ज़ा ने अपनी बात रखी.

ज़फर अली ने पूछा "मतलब उनकी बदनामी करवाकर, उनको लम्बी सज़ा दिलाना चाहते हैं ना आप?"

"जी."

"हम्म्म्म." कुछ वक़्त सोचकर ज़फर अली ने कहा "कोई और ऐब है इनमें?"

"मतलब?"

"किसी परायी औरत से कोई नाजायज़ तालुक़ात हैं क्या इनके?.......या फिर पहले कभी रहे हों?"

मिर्ज़ा हँसे "आप भी क्या पूछ रहे हैं वकील साहब?.......फरीद की सच्चाई और ईमानदारी की मिसालें दी जाती हैं हमारे यहाँ.......और हर सच्चा, ईमानदार आदमी एक नम्बर का डरपोक होता है. फरीद भी अव्वल दर्जे के डरपोक हैं. हम तो बचपन से जानते हैं उनको.....भाई हैं वह हमारे. ऐसा कुछ भी कभी नहीं कर सकते हैं वो."

"नहीं कर सकते या नहीं किया है, वह एक बात है......लेकिन अगर कुछ ऐसा हम अपनी ओर से कर सकें तो?" सिन्हा साहब ने कहा.

"जैसे?"

"अगर किसी लड़की का इंतज़ाम किया जाये, जो पैसे लेने के बदले कोर्ट में ये बोलने को तैयार हो जाये कि फरीद पिछले कई सालों से शादी का झाँसा देकर उसका रेप करते आ रहे हैं और अब दामन छुड़ाकर भाग रहे हैं, तो?" सिन्हा साहब ने अपना चश्मा लगाते हुए कहा.

"ये भी तो झूठा ही मामला होगा ना?.......उन्हें फिर से इसी तरह ज़मानत मिल जायेगी.....और हम सब नयी तरकीब सोचने के लिये फिर से ऐसे ही बैठेंगे." मिर्ज़ा ने कुछ चिढ़कर कहा.

"मामला तो झूठा होगा, मगर रेप के मामलों में इतनी आसानी से ज़मानत नहीं मिल सकती मिर्ज़ा साहब, फिर मान लीजिये अगर बेल मिल भी गयी, तो भी लोगों की नज़र में फरीद का कद तो ज़रूर गिर जायेगा, जैसा आप लोग चाह रहे हैं.......मेरा मतलब जैसे-जैसे किसी इंसान पर मुकदमें बढ़ते जाते हैं, उसकी इज़्ज़त कम होती जाती है और लोग भी उस से दूरियाँ बढ़ाने लगते हैं.....फिर रेप का मामला तो और ही है."

अब तक रुखसार काफी सुन चुकी थीं. उन्होनें गुस्से मे कहा "वकील साहिबान, आप लोग समझ क्यों नहीं रहे हैं?.....हम फरीद को अपने रास्ते से हटाना चाहते हैं.....हमेशा के लिये." रुखसार के अंदर फरीद के लिये कितनी नफरत थी, यह उनके चेहरे और आवाज़ से साफ ज़हिर हो रहा था, और उनकी आँखें तो मानों आग उगल रही थीं. मिर्ज़ा अपनी आपा की बातें सुनकर हैरान रह गये थे. मिर्ज़ा के साथ बाकी दोनों लोग भी रुखसार को देख कर दंग थे.

"....जब तक ये आदमी रहेगा, तब तक ये हमारे रास्ते में कुछ न कुछ मुसीबत ज़रूर खड़ी करता रहेगा.......ये कतई चुप नहीं बैठेगा." रुखसार अभी भी फुफकार रही थीं.

सभी खामोशी से उन्हें देख रहे थे.

"मैडम, इन मामलों में और इन कागज़ों की बुनियाद पर इन्हें फाँसी तो कतई नहीं हो सकती है.....और तो और, रेप के मामले में भी फाँसी नहीं होगी इन्हें." ज़फर साहब ने अपना चश्मा लगाते हुए कुछ चिढ़कर कहा.

"अब आपको ऐसे कामचलाऊ हल निकालने के लिये तो नहीं तकलीफ दी वकील साहब!.....कुछ ठोस, और मज़बूत हल बतायें." रुखसार ने अपने गुस्से को काबू करके थोड़ा नरम रहने की कोशिश की.

सिन्हा साहब और ज़फर अली भी चुपचाप कुछ सोच रहे थे. थोड़ी देर बाद सिन्हा साहब ने कहा "क्या इनके अंदर कुछ और ऐसी बुरी आदत, कोई ऐसा ऐब है जो लोग नापसंद करते हों?"

कुछ देर सोचकर रुखसार बोलीं "कोई दूसरा नापसंद करता हो या न करता हो, फरीद की कई आदतें हम दोनों को और हमारे कई रिश्तेदारों को भी खासी बुरी लगती हैं."

"क्या?"

"ये कि फरीद के अंदर मुसलमान होते हुए भी मुसलमानों वाली बात नहीं है." रुखसार ने कहा.

सिन्हा साहब ने यह सुनकर अचरज से अली साहब की ओर देखा. अली साहब ने भी अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा "क्या मतलब?"

"मतलब यह कि अगर कहीं मंदिर बनाया जा रहा है, तो ये उसमें पैसे देते हैं. नवरात्रों में दुर्गा पूजा में भर-भर कर चंदा देते हैं.......शहर में कहीं जगराते वगैरह होते हैं तो ये उसमें जाकर ताली बजा-बजाकर भजन-कीर्तन और नाच-गाना भी करते हैं.......ये सब तो बुतपरस्ती है और इस्लाम के सख्त खिलाफ है...."

ज़फर अली रुखसार की बातें समझने की कोशिश कर रहे थे.

"...और भी इस तरह की इनकी बहुत सारी आदतें हैं जो हमें और हमारे रिश्तेदारों को नागवार गुज़रती हैं……आखिर हम मुसलमान हैं वकील साहब, और हमारी एक अलग पहचान है जो कि हमें बनाई रखनी चाहिये. हम में से कई लोगों ने अब्बू से ये बात बार-बार कही है, कि फरीद का ये फितूर ठीक नहीं है, लेकिन अब्बू की आँखों पर तो पट्टी बँधी रहती है.....वह कभी कहते ही नहीं कि फरीद की ये सब आदतें गलत हैं. शुज़ा, मिर्ज़ा और मुराद की सारी गलतियाँ उन्हें दिख जाती हैं, लेकिन फरीद की ये गलतियाँ उन्हें कभी नज़र नहीं आतीं......और फिर बड़ी आपा, वह भी हमेशा फरीद की इन आदतों की तरफदारी ही करती हैं."

ज़फर साहब ने अपना चश्मा उतार कर मेज पर रखा और लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले "लेकिन मैडम, ये सब ऐसी बातें थोड़ी हैं कि इन पर अदालतों में मुकदमा चले, बहस हो, सबूत माँगे जायें और किसी को मुजरिम करार देकर सज़ा सुना दी जाये..."

मिर्ज़ा और रुखसार उनकी ओर देख रहे थे.

"....ये सब तो दीनी मसले हैं…….और दीनी मसले भी हमेशा अलग-अलग नज़रिये से देखे जाते हैं, मसलन जिसको आप अपने नज़रिये में गुनाह समझ रही हैं, अगर आप सूफी इस्लाम की बात करें तो वह कहीं से गलत नहीं है......"

रुखसार उन्हें देख रही थीं. मिर्ज़ा सिर नीचे किये बैठे थे.

"हिंदुइज़्म, इस्लाम और शायद दुनिया के सभी मज़हबों में इस तरह की कितनी ही सारी बातें हैं, जो एक फिरका सही बताता है तो दूसरा फिरका गलत......अब ऐसे में फरीद कितने गलत हैं और कितने सही, यह कौन तय करेगा?"

कमरे में चुप्पी छा गयी थी. फिर रुखसार ने कहा "अगर किसी मस्जिद के ईमाम फरीद की इन आदतों को लेकर उनके खिलाफ फतवा निकाल दें तो?"

"क्या?" ज़फर साहब ने ताज्जुब किया. मिर्ज़ा भी चौंक कर अपनी आपा को देख रहे थे.

ज़फर साहब ने फिर हँसकर कहा "मैडम, फतवे-वतवे कि कोई अहमियत नहीं है अब......ये बीसवीं सदी है मैडम, मुगल राज थोड़ी है?"

रुखसार चुप थी, और अपने दाँतों अपने होंठ चबा रही थीं. मिर्ज़ा भी खामोश थे.

अब तक बिल्कुल चुप बैठे सिन्हा साहब ने कुछ सोचते हुए ज़फर साहब और उन भाई-बहन से से कहा "आप लोगों ने आई.एम.पी.एल.सी. का नाम सुना है?"

वे तीनों उनकी ओर देखने लगे.

"मिर्ज़ा साहब तो जानते ही होंगे." सिन्हा साहब ने मिर्ज़ा की ओर देख कर कहा.

रुखसार ने कहा "क्या बला है ये?"

"मैडम, यह एक कमेटी है, जो उस सूरनपेट वाले केस......क्या नाम था उसका?....." सिन्हा साहब दिमाग पर ज़ोर देने की कोशिश कर रहे थे ".....हाँ, रशीदा नक़वी बनाम गुलाम हसन केस. उस केस में सुप्रीम कोर्ट का जजमेंट आने के बाद यह कमेटी बनायी गयी थी. इस्लाम के दिग्गज मौलवी और उलेमाओं ने मिलकर वह कमेटी बनायी थी, और यह तय किया था कि इस्लाम के किसी भी मज़हबी या तहज़ीबी मुद्दे पर जब कभी भी बहस होगी, फिर वह चाहे इस्लाम के किसी भी फिरके से ताल्लुक़ रखती हो, इसी कमेटी का फैसला फाइनल माना जायेगा, किसी दूसरी अदालत का नहीं.......बल्कि इस कमेटी ने सभी मुसलमानों से कहा था कि वे इस्लाम से जुड़े मामले किसी अदालत में न ले जायें और सिर्फ इस कमेटी के ही आगे लायें......और उसके बाद से ऐसा ही हुआ है. कहने को उस कमेटी को बने सिर्फ 7-8 बरस ही हुए हैं लेकिन मुसलमानों में उस कमेटी के लिये इज़्ज़त बहुत ही ज़्यादा है........इतनी ज़्यादा कि अब करीब 95 फीसदी मुस्लिम अपने दीनी मामले उस कमेटी के सुपुर्द ही ले जाते हैं. उस कमेटी में इस्लाम के सभी फिरकों के लोग शामिल हैं, बस अहमदियों का कोई नुमाइंदा नहीं है."

भाई-बहन काफी गौर से सुन रहे थे. मिर्ज़ा ने कहा "हाँ, मैं जानता हूँ. वह कमेटी इन मज़हबी और तहज़ीबी मामलों जैसे तलाक़ वगैरह की सुनवाईयाँ भी करती है, और फैसले भी सुनाती है."

"जी, और भले ही वह कोई अदालत न हो, लेकिन इस्लाम के मज़हबी और तहज़ीबी मामलों में उसके फैसले मुसलमानों के लिये वैसे ही समझे जाते हैं, जैसे बाकी किसी दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला." ज़फर अली ने कहा.

"तो इससे हमारा रास्ता कैसे निकल सकता है? रुखसार का सवाल था.

"अगर यह कमेटी किसी तरीके से यह फैसला सुना दे कि फरीद अली बेग के काम गैर-इस्लामी हैं, तो ज़रूर आबादी का एक बहुत बड़ा तबका, करीब-करीब सारे ही मुसलमान – चाहे वह आपके स्टाफ के हों या फिर न हों, या फिर कहीं के भी हों, कोई भी हों – वे सब फरीद अली के खिलाफ ही हो जायेंगे." ज़फर अली ने कहा.

"इससे फायदा?"

"अब इससे फायदा कैसे उठाना है, ये आपको सोचना है." सिन्हा साहब बोले "आपने जो रास्ता जानना चाहा था वह हमने आपको बता दिया है. अब इस पर चलना आपको है." सिन्हा साहब मुस्कुरा रहे थे.

"लेकिन वह कमेटी यह फैसला सुनायेगी क्यों?.....और कैसे? ये तो बताया नहीं आपने."

वक़्त ज़्यादा हो गया था, लिहाज़ा उन दोनों वकील साहिबान ने चलने की इजाज़त माँगी और अगले दिन आने की बात कही. मिर्ज़ा और रुखसार भी इस पर राज़ी हो गये और वे सभी लोग उठकर कमरे से बाहर आ गये. मिर्ज़ा और रुखसार वकीलों को छोड़ने वहाँ तक आये जहाँ सिन्हा साहब और ज़फर साहब की गाड़ी खड़ी थी. फिर वकील साहिबान ने मेज़बानों से विदा ली और गाड़ी में बैठ कर निकल गये.

रात के खाने के बाद मिर्ज़ा अपने कमरे में थे. वे आज वकीलों के जाने के बाद से ही कुछ बेचैन से, कुछ उलझे से लग रहे थे और कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक बार-बार आ-जा रहे थे. अभी वह कमरे की खिड़की के किनारे बाहर की ओर मुँह करके खड़े थे और बाहर से आने वाली ठंडी हवा में डूबे हुए थे. रुखसार तभी कमरे में दाखिल हुईं. मिर्ज़ा को ऐसे कभी देखा नहीं था उन्होने. मिर्ज़ा तो हमेशा बेफिक्र रहने वाले इंसान थे, फिर आज क्या हुआ है उनको? पिछले कुछ घंटों से इनका बदला हुआ सा मिजाज़ क्यों है?....खाने की मेज पर भी मिर्ज़ा कुछ बोल नहीं रहे थे. क्यों? रुखसार उनके पास आयीं और पूछ ही लिया "क्या हुआ मिर्ज़ा?....कुछ परेशान दिख रहे आप?"

मिर्ज़ा ने खिड़की से बाहर की ओर देखते हुए कहा "आपा.....क्या हम जो कर रहे हैं, वो ठीक है?"

"क्या मतलब?"

मिर्ज़ा ने अब अपनी आपा की ओर देखा, और दर्द भरी आवाज़ में बोले "फरीद भाई के लिये जो हम कर रहे हैं………वो क्या कर रहे हैं?" मिर्ज़ा खोये हुए थे. वह समझ भी नहीं पा रहे थे कि वह बोल क्या रहे हैं.

"मिर्ज़ा आप क्या बोल रहे हैं? हम समझ नहीं पा रहे हैं."

"आपको क्या समझायें आपा?......जब हम ही खुद समझ नहीं पा रहे हैं कि हम सोच क्या रहे हैं, और कर क्या रहे हैं?" मिर्ज़ा ने अपनी परेशानी बयान की.

"आप यहाँ आकर बैठिये." फिर मिर्ज़ा का हाथ पकड़कर रुखसार उन्हे कमरे में रखी एक आरामदायक कुर्सी के पास ले गयीं. उन्होनें मिर्ज़ा से बैठने को कहा और खुद सामने वाली कुर्सी पर बैठीं. "कहिये मिर्ज़ा, फरीद भाई को लेकर किस उलझन में हैं आप?"

"आपा, हमें यह ठीक नहीं लग रहा है."

"क्या ठीक नहीं है?"

"यही, जो सब हम कर रहे हैं." यह कहकर उन्होनें अपना सिर नीचे कर लिया. मिर्ज़ा वाकई दु:खी थे आज.

रुखसार खामोश उन्हें देख रही थीं.

अपना चेहरा ऊपर कर के वह फिर भर्राये गले से बोले "कुछ गलत नहीं किया था फरीद भाई ने......कोई धाँधलेबाज़ी नहीं हो रही थी कम्पनी के कामों में.......आज वह अपनी जान बचा कर भाग रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं......वह भी किसके डर से?......अपने सगे भाईयों के डर से!!......पता नहीं कहाँ, किस हाल में होंगे वह?"

रुखसार ने सख्त होकर कहा "मज़बूत बनिये मिर्ज़ा.....आप कमज़ोर होकर टूट जाने के लिये नहीं बने हैं. आप राज करने के लिये बने हैं, और आप राज ही करेंगे. फरीद कमज़ोर हैं और वो कम्पनी के मालिक होने के काबिल भी नहीं हैं......"

मिर्ज़ा अपनी आपा को देख रहे थे.

"....और उनके साथ हमदर्दी जताने की ज़रूरत क्यों है मिर्ज़ा!!!.....अपने सगे भाईयों को जान से मारने के लिये बाकायदा हथियारबंद आदमी तक भेजे थे उन्होने, सूरत, कलकत्ता, उज्जैन तक. क्या ये भूल गये आप? कस्तूरिया जी ने जब फोन पर कहा कि मिर्ज़ा की वजह से ही मुराद को ज़िंदा जाने दिया, तब पता है इन्होने क्या कहा?......इन्होने कहा था कि दोनों को मार देना चाहिये था. क्यों ज़िंदा जाने दिया मिर्ज़ा और मुराद को?.....मिर्ज़ा ये आपको मारना ही चाहते थे. इसीलिये आपको ये करना ज़रूरी है. आप कुछ गलत नहीं कर रहे हैं."

मिर्ज़ा सुन रहे थे.

"मिर्ज़ा, आप काबिल हैं और आपको आपकी काबिलियत का ईनाम मिलना ही चाहिये."

अगले दिन सिन्हा साहब और ज़फर अली के साथ एक बार फिर से मिर्ज़ा और रुखसार अपने सूरजगढ़ फार्महाउस की बैठक में बैठे थे. वे लोग फरीद के मसले को सुलझाना चाह रहे थे. मिर्ज़ा ने कहा "पिछली दफा आप लोगों ने आई.एम.पी.एल.सी. का ज़िक्र किया था कि उसके ज़रिये हम फरीद भाई का मसला अपने हक़ में सुलझा सकते हैं. कैसे?"

ज़फर अली ने कहा "देखिये, आज दिन भर हमने और सिन्हा जी ने इस मसले पर बात की है, और एक रास्ता निकाला है…….लेकिन आपको भी इसमें मेहनत करनी होगी मिर्ज़ा साहब."

"जी बतायें"

"पहले तो यह समझना ज़रूरी होगा कि आई.एम.पी.एल.सी. में मामला ले कैसे जाया जाये. अगर आपके सौघरा की कई मस्जिदें – याद रखियेगा मैं कई मस्जिदें कह रहा हूँ, सिर्फ एक-दो नहीं – उनके ईमाम यदि यह फतवा सुना दें कि फरीद की हरकतें गैर-इस्लामी हैं, और इस बात को बखूबी समझते हुए भी, वह इस तरह की हरकतें बार-बार कर रहे थे, लिहाज़ा उन्हें इस्लाम से खारिज करार दिया जाता है, तो इस हालात में या तो मस्जिदों के ईमाम ही मामले को कमेटी में ले जायेंगे या फिर फरीद को पाक-साफ बरी होने के लिये मजबूर होकर मामले को कमेटी में ले जाना होगा."

"हम्म्म्म....फिर?" मिर्ज़ा ने संजीदगी से पूछा.

"फिर यह कमेटी एक छोटी सब-कमेटी बनायेगी जिसमें 5 या 7 या फिर 9 लोग होते हैं. वही सब-कमेटी मामले की सुनवाई इस्लामी कानूनों और धर्मग्रंथों के हिसाब से करेगी."

"फिर."

वकील साहिबान चुप थे.

"फिर सीधा हिसाब है मिर्ज़ा साहब, आपको उस सब-कमेटी को किसी तरह से मैनेज करना होगा......परदे के पीछे." सिन्हा साहब ने पहले ज़फर साहब की ओर देखा, फिर मिर्ज़ा की ओर देखते हुए कहा.

"इन शॉर्ट, आपको अपनी तिजोरी का मुँह खोलना होगा." ज़फर अली बोले.

रुखसार ने पूछा "मान लीजिये ऐसा हो भी गया, और सब-कमेटी ने फरीद को इस्लाम से खारिज करार दे भी दिया. उसके बाद?"

"उसके बाद नहीं मैडम, बल्कि उसके साथ-साथ ही आपको मेहनत करते रहनी होगी." सिन्हा जी ने कहा.

"मतलब?"

"मामला जैसे ही कमेटी में जाएगा, आपको अपनी कम्पनी के स्टाफ में और कम्पनी से बाहर भी, आम लोगों के बीच यह हवा बनानी होगी कि फरीद का कम्पनी का मालिक बनना, मुसलमानों के लिये ठीक नहीं है…….और जैसे-जैसे सब-कमेटी सुनवाई के अपने काम को आगे बढ़ायेगी, आपको इस हवा को आँधी में बदलना होगा."

"ये कैसे होगा?" मिर्ज़ा का सवाल था.

"एक उँगली जब दूसरे की ओर की जाती है, तो बाकी तीन उँगलियाँ भी खुद अपनी ओर रहती हैं मिर्ज़ा साहब.......आपको और मुराद को केवल फरीद पर गैर-मुस्लिम होने का ही इल्ज़ाम नहीं लगाना होगा बल्कि खुद को स्टाफ और आम लोगों के बीच पक्का मुसलमान भी साबित करना होगा......जिससे यह बात मज़बूती से सभी के ज़ेहन में, खासतौर पर मुसलमानों के ज़ेहन में बैठती जाये कि कम्पनी की कमान मुराद के हाथ में ही होनी चाहिये, फरीद के हाथ में किसी भी हाल में बागडोर नहीं जानी चाहिये वरना इस्लाम को धक्का लगेगा."

यह सुनकर रुखसार ने पूछा "इसके बाद?"

"इसके बाद?...." सिन्हा साहब मुस्कुरा रहे थे. "मॉबोक्रेसी का नाम सुना है मिर्ज़ा साहब?" उन्होने हँसते हुए कहा.

इधर जालंधर में फरीद को समझ नहीं आ रहा था कि किस रास्ते की ओर बढ़ा जाये. सरवर उन्हें आदमी, हथियार वगैरह देने को तैयार भी था लेकिन उनका इस्तेमाल तो फरीद को ही करना था, और इस काम में वह मिर्ज़ा और मुराद से काफी पीछे थे. वह जानते थे कि अल्लाह ने यह हुनर उन्हें नहीं दिया है......अगर दिया होता तो आज उनकी यह हालत नहीं होती. न तो वह इतने चालाक थे, न ही इतने दिलेर. उनकी एक उम्मीद अपने अब्बू से थी कि अगर उनकी तबियत में कुछ सुधार हो तो वह फरीद की मदद कर सकेंगे. लेकिन अगर मुराद और मिर्ज़ा ने उन्हें भी मार दिया तो?......वे लोग उन्हें मार भी सकते हैं......जब अपने भाई के सगे नहीं हुए तो बाप के सगे होंगे, इस बात की क्या गारंटी है? फिर से वह जहाँआरा की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे थे, लेकिन वह एक औरत ही तो है........भले ही सभी भाई अपनी बड़ी आपा की बेहद इज़्ज़त करते हों, लेकिन इस मामले में उसकी कितनी बात मिर्ज़ा और मुराद सुनेंगे?.....और अगर नहीं भी सुनेंगे तो जहाँआरा कर भी क्या लेंगी?

मिर्ज़ा अपने कमरे में अपनी आपा के साथ सोच-विचार में डूबे हुए थे. वकील साहिबान ने जो रास्ता बताया था, वह बेहद पेचीदा था. रुखसार ने कहा "अब फतवा कहाँ से जारी करवाया जाये?.....इन्होनें कहा है कि एक नहीं, कई मस्जिदों से जारी करवाना होगा, वरना सीधे सौघरा की जामा मस्जिद से फतवा निकलवा लेते और हमारा काम आसान हो जाता."

"जामा मस्जिद से. या फिर ऐसी किसी भी नामी-गिरामी मस्जिद से तो कतई नहीं निकलवा सकते आपा." मिर्ज़ा ने कहा.

"क्यों?"

"आपा, उन मस्जिदों का नाम और रसूख बहुत ज़्यादा है.......और वहाँ के ईमाम और मौलवी एक अलग ही रुतबा रखते हैं और इस्लाम के काफी अच्छे जानकार होते हैं. वे मर जायेंगे, लेकिन ऐसी बातों के लिये और फरीद जैसे इंसान के खिलाफ कभी फतवा नहीं निकालेंगे, चाहे उन्हें कितनी भी ज़्यादा रकम का लालच दिया जाये."

रुखसार सुन रही थीं.

"आपा, ज़िंदगी में इंसान दो चीज़ों के लिये मरता है – रसूख या रुतबा और पैसा. अब इसमें जिसने किसी एक को चुन लिया, वह दूसरे को नहीं चुन सकता है. जामा मस्जिद जैसी मस्जिदों के ईमामों ने रसूख को अहमियत दी है, पैसे को नहीं...."

रुखसार चुप बैठी थीं.

"....पैसे को अहमियत वही देता है, जिसे पैसे की ज़रूरत होती है………मतलब ये कि किसी नामी-गिरामी मस्जिद की बजाय, कोई छोटी-मोटी मस्जिदों से, जिनके ईमाम या मौलवी गरीब हों, फतवा निकलवाना होगा."

रुखसार ने कहा "और फिर उसके बाद कमेटी के लोगों को भी साधना होगा."

"और इन सबके साथ-साथ अपने स्टाफ में अपने आदमियों को समझाना भी होगा, जिस से बात फैल सके, और आम लोगों के बीच भी खुद को ऐसे ही दिखाना भी होगा." मिर्ज़ा ने गहराई से सोचते हुए कहा.

रुखसार मिर्ज़ा को देख रही थीं.

"वैसे.......एक बात आ रही है दिमाग में आपा." किसी सोच में डूबे हुए मिर्ज़ा ने अपनी उँगलियों को होठों पर फेरते हुए मुस्कुरा कर कहा.

"कहिये."

"आपा, आपको याद है?.....आपने हमसे कुछ वक़्त पहले पूछा था कि एलेक्शन में वोट कहाँ से मिलेंगे?" मिर्ज़ा की आँखों में चमक सी दिख रही थी.

"हाँ, और आपने कहा था कि ज़मीन तैयार करनी पड़ेगी."

"जी आपा, और वो ज़मीन हमें दिख रही है." मिर्ज़ा ने हँसकर कहा.

एक रोज़ मुराद रात के खाने के बाद अपनी आपा रुखसार से मिलने उनके कमरे में गये. काफी दिनों से वह अपनी आपा से मिल कर तफ्सील से बात नहीं कर पाये थे, फिर बीच में रुखसार दिल्ली भी चली गयीं थीं. आज मुराद दफ्तर से जल्दी वापिस आ गये थे और रात में खाना भी जल्दी खा लिया था, इसलिये वह रुखसार के पास आ गये थे. रुखसार अपने कमरे में सोने की तैयारी कर रही थीं. मुराद को देख कर वह मुस्कुरा उठीं "आ गये मुराद आप!!...वक़्त मिल ही गया आपको?"

मुराद ने हँसकर कहा "शर्मिंदा ना कीजिये आपा, थोड़ा ज़्यादा मसरूफ थे हम पिछले पिछले काफी वक़्त से.....आप तो जानती ही हैं आपा."

"हाँ, हाँ, क्यों नहीं?.....अब तो कम्पनी के मालिक हैं आप!!"

मुराद हँस रहे थे.

"लेकिन मुराद, इस कामयाबी का कोई जश्न क्यों नहीं मनाया आपने?" रुखसार ने छेड़ा.

"कैसे मनाएं आपा?.....मन तो बहुत था, मगर घर के हालात ऐसे हैं कि..." फिर मुराद चुप हो गये.

"कोई बात नहीं मुराद, घर के हालात ऐसे हो सकते हैं, लेकिन इस कमरे के हालात ऐसे नहीं हैं. यहाँ आप जश्न बिल्कुल मना सकते हैं." हँसते हुए बहन ने कहा.

"क्या मतलब?"

रुखसार ने मुराद को चुप रहने का इशारा किया और फिर बिस्तर से उठ कर अपनी फ्रिज के पास गयीं. फ्रिज खोलकर उन्होनें एक व्हिस्की की बॉटल निकाली और फ्रिज बंद कर दिया. फिर उन्होनें पीछे मुड़कर हँसते हुए वह बॉटल मुराद के आगे लहराई. मुराद ने बच्चों की तरह उछल कर कहा "आपा, आप भी!!!!"

रुखसार ने होठों पर उँगली रखकर उन्हें चुप रहने का इशारा किया "चुप बेवकूफ!!" फिर वह उनके पास चलकर आयीं, और अपने बिस्तर पर बैठ कर बोतल उनके हाथ में देते हुए कहा "हमारे लिये नहीं, बल्कि ये खास आपके लिये है.....खुशी मनाइये आप मुराद!....पूरा हक़ है आपको खुशी मनाने का!!"

मुराद को आज बहुत दिनों के बाद बॉटल मिली थी. उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था, और उस से भी कहीं ज़्यादा वह इस बात से खुश थे कि घर में कम से कम कोई तो है, जो उनकी खुशी की फिक्र करता है. मगर कुछ देर के बाद उनकी मुस्कान गायब हो गयी. "क्या हुआ मुराद?....अच्छा नहीं लगा आपको?" रुखसार ने पूछा.

नहीं आपा, वो बात नहीं है.....अच्छा तो इतना लग रहा है कि मैं क्या बताऊँ?.....सबसे छुपाकर आप मेरी खुशी की परवाह करती हैं.....मैं बहुत खुश हूँ. लेकिन आपा, ये खुशी मैं मना नहीं सकता........रुबैदा के आगे तो कतई नहीं!!.....सवाल ही पैदा नहीं होता आपा!!!"

"तो किसने कहा आपसे कि आप इसे अपने कमरे में ले जायें?....छोटा सा जश्न यहीं मनाइये, हमारे पास....फिर रुबैदा के पास चले जाइयेगा."

मुराद सुन रहे थे.

"आप रोज़ यहाँ पर रात में आया कीजिये.....आप की कामयाबी का थोड़ा-थोड़ा जश्न हर रोज़ होगा." मुस्कुराते हुए रुखसार ने कहा.

अगले 15 दिनों में सौघरा शहर की 6 मस्जिदों ने फरीद के खिलाफ फतवा जारी कर दिया और यह कहा कि सब कुछ जानने-समझने के बावजूद फरीद लगातार गैर-इस्लामी हरकतों में शामिल रहे हैं, और इसलिये उन्हें इस्लाम से खारिज करार दिया जाता है.

शहर में यह खबर आग की तरह फैल रही थी, और अखबारों में भी अब इसका चर्चा आम होने लगा था. अपने घर के बरामदे में ऐसे ही एक अखबार की सुर्खियाँ पढ़ कर एक दिन क़ाशनी साहब आग-बबूला हो गये. अखबार को मेज पर पटकते हुए, अपने साथ बैठे डॉ. अखिल से उन्होने गुस्से में कहा "ये क्या तरीका है?.....इस्लाम से खारिज?.....क्या मतलब?......"

डॉ. अखिल ने कहा "मतलब यह कि उन्हें इस्लाम से बाहर कर दिया गया है."

"अरे मगर क्यों?.....ऐसी क्या हरकत की फरीद ने?.....और इन सड़कछाप लोगों को यह इख्तियार दिया किसने कि ये जिसको चाहें इस्लाम से खारिज कर दें?......क्या इस्लाम इनके बाप की जागीर है?......इस्लाम के बारे में जानते ही क्या हैं ये?"

हिंदुस्तान जैसे मुल्क में बात फैलती है तो फिर फैलती जाती है. अगले करीब 10 दिनों में सौघरा शहर के आस-पास के इलाकों की 4 और मस्जिदों ने बिल्कुल ऐसा ही फतवा निकाल दिया था. अब कम्पनी के ऑफिस में, और बाहर सड़कों पर, चाय की दुकानों पर, नाई की दुकानों पर लोग इस बारे में बात करते, और बहस करते देखे जा रहे थे. खासतौर पर सौघरा में ,और उसके आस-पास के इलाकों में मुसलमानों के अंदर ये बात बैठती जा रही थी, कि फरीद सही आदमी नहीं है. कम्पनी के स्टाफ का एक बड़ा हिस्सा भी इसे लेकर संजीदा हो रहा था.

उस दिन जब वकीलों को राय-सलाह करने के लिये मिर्ज़ा और रुखसार ने बुलाया था और जब वे लोग कमेटी में फरीद को फँसाने की बात कर रहे थे. तब मिर्ज़ा ने सिन्हा साहब से एक सवाल पूछा था "सिन्हा जी, मुसलमान फरीद से नफरत करने लग जायेंगे, ये बात तो समझ में आती है, लेकिन फरीद के चाहने वालों में, उनसे मोहब्बत करने वालों में केवल मुसलमान ही शामिल नहीं हैं. काफी बड़ी तादात में कम्पनी का गैर-मुस्लिम स्टाफ भी है जो फरीद को काफी पसंद करता है. फरीद तो इन लोगों के घर शादियों और त्योहारों, या किसी भी खुशी के मौके पर जाते ही जाते थे, और किसी मौके पर उनकी पूरी मदद भी करते थे.......इसलिये गैर-मुस्लिम स्टाफ फरीद के पीछे खड़ा रहेगा.......और उनकी बजाय मुस्लिम स्टाफ की तादात तो ज़्यादा नहीं है, बल्कि आप वैसे ही समझिये तो मुसलमानों की आबादी, गैर-मुसलमानों की तुलना में बहुत कम ही है......ऐसे में हमारा ये मंसूबा कैसे कामयाब हो पायेगा?"

सिन्हा साहब हँसे और कहा "मैं आपको बताऊँ मिर्ज़ा साहब, हिंदुओं को इस बात से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता है कि आपके मज़हब में क्या चल रहा है."

मिर्ज़ा और रुखसार उन्हें देख रहे थे.

"मिर्ज़ा साहब, मैं भी हिंदू हूँ....और मैं आपको लिख कर दे सकता हूँ कि आपका हिंदू स्टाफ भले ही चाहता हो कि फरीद दोबारा कम्पनी के मालिक बन जायें, भले ही अवाम में ज़्यादा लोग फरीद को पसंद करते हों……..लेकिन किसी हिंदू को कभी फर्क नहीं पड़ता है कि किसी मस्जिद से कोई फतवा भी निकला है.....या कि किसी मस्जिद ने किसी को इस्लाम से खारिज करार दिया है."

मिर्ज़ा खामोश थे.

सिन्हा जी ने आगे मुस्कुराकर कहा "हमारे मुल्क में हिंदू और मुसलमान दोनों नॉर्मली अमनपसंद कौमें  हैं मिर्ज़ा साहब!....इतनी अमनपसंद कि मस्जिद या फतवे वगैरह से जुड़े किसी भी मामले के लिये हिंदू यही कहेंंगे, कि ये इस्लाम का अंदरूनी धार्मिक मामला है और इसमें हिंदुओं को दखल देने की कतई कोई ज़रूरत नहीं है. फरीद को चाहे इस्लाम से खारिज किया जाये या नहीं, किसी हिंदू के ऊपर इसका कोई फर्क कभी भी नहीं पड़ेगा, फिर वह फरीद को चाहे कितना ही पसंद क्यों न करता हो, या चाहे वह फरीद से कितनी ही हमदर्दी क्योंं न रखता हो. हिंदू को फर्क केवल तब पड़ता है, जब बात उसके मज़हब पर आती है. वह तभी आवाज़ उठाता है."

मिर्ज़ा उनकी बात पर गौर कर रहे थे.

"......और इसका मतलब ये है, कि आप अपने रास्ते पर बेधड़क आगे बढ़ सकते हैं."

सिन्हा साहब ने आगे अपनी बात खत्म की "ये भूल जाने वाला समाज है मिर्ज़ा साहब!!......गाँठ बाँध कर नहीं रखता."


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