मातृ ऋण
मातृ ऋण
रमिया गणेश को छाती से चिपकाऐ माथा पीट पीट कर अपने आपको कोस रही थी। आखिर उसने बेटे गणेश की बात पहले क्यों नहीं सुनी? उसने हिला डुला कर बात करनी चाही "कुछ तो बोल बेटा गणेश " पर वह बिल्कुल चुपचाप लेटा हुआ था । घबराकर ""अरे कोई डॉगडर को बुलाओ ""चिल्लाते हुए वह गांव की तरफ दौड़ पड़ी। कुछ लोगों ने उसे संभाला "क्या बात है भौजी"" ? उसे कुछ ना बोलते देख बे लोग उसके साथ हो लिये।
इन सब से अंजान बेटे के करीब पहुंचते ही उसने गणेश को पंखा झलना शुरू कर दिया था कहीं उस पर मक्खी बैठ कर परेशान ना करें। ""उठ बचवा आंखें खोल देख तो सही। मैं तेरी मां ! अभी डॉगडर बाबू भी आते ही होंगे ""
हकीकत से कोसों दूर रमिया का मन बिचरने लगा था ,कितनी खुशहाली थी उसके परिवार में पर पति का आरा मशीन में हाथ आते ही उसकी जिंदगी बदतर होती चली गई ।
मालिक ने शुरुआत में थोड़ा बहुत सहारा दिया जैसे ही उन्हें पता चला गणेश के बापू के शरीर को फालिज मार गया वह भी पीछे हट गए। कल रात नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी ।रुपए नहीं बचे अब घर का खर्च कैसे चलेगा? आधे से ज्यादा तो पति की दवाई में लग जाता है बनिया ने भी आज सामान नहीं दिया । बच्चों को तो भूखा नहीं रख सकती करें तो क्या करें ? पांच छह दिन तो महीने के आखिरी के जैसे तैसे निकालने ही पड़ेंगे । खाली कनस्तर को थपथपाते ही चिपका आटा गिरते देखकर उसने राहत की सांस ली ।अगले दिन आटे का पतला घोल कर रमिया ने लापसी बना दी ।बच्चों को खिलाकर ,बची पति को देकर,आज ठेकेदार से गणेश की नौक
री की बात करूंगी सोचते हुए खाली पेट काम पर चली गई।
शाम को भूख से व्याकुल थकी मांदी घर आई ।झोपड़ी में पैर रखते ही अंदर की हालत देख सिहर गई । पूरा सामान भीग गया था ।इधर उधर पानी चू रहा था। एक बार को तो बो बौखला उठी फिर हंसकर मन ही मन बुदबुदा उठी यह तो अच्छा हुआ कि सर ढकने को बाप दादा ने झोपड़ी बनवा दी थी नहीं तो दोनों बच्चों को और असहाय पति को लेकर मारी मारी कहां फिरती?
बांस की बल्लियों पर टिकी छत पानी गिरते ही चूने लगती थी इसलिए उसने कुछ पन्नियां इधर उधर से समेटकर कर गरम ईट से जोड़कर बड़ी झिल्ली बना कर रख दी थी आज डाल जाती तो अच्छा था ।
पानी में लेटे बेहोश पति को उठा ही रही थी कि गणेश अंदर घुसा उसके हाथ में नोट देखते ही उबल पड़ी ।""गरीबी भुखमरी मैं जैसे तैसे हम जी रहे थे। लेकिन अब चोरी करके चोर का ठीकरा माथे पर लगवाना ही बाकी रह गया था ""। गुस्से में आग बबूला हो पीटते पीटते थक गई ,गणेश मार खाता रहा ।एक बार भी कुछ नहीं बोला।हताश डंडा फेंक कर अपने नसीब को रोने बैठ गई तब गणेश धीमी आवाज में बोला""" यह रुपए स्टेशन पर बाबू लोगों के सामान उठा उठा कर मेरी कमाई के हैं चोरी नहीं की मैंने !हां झूठ जरूर बोला , आज तुम्हारे पेट में आने का एक भी दाना नहीं गया इसलिए मैं स्कूल नहीं गया । कानों में आवाज पड़ते ही हक्की बक्की हो उसने बेजान गणेश को सीने से लगा लिया था।
"" अभी ये बोलता क्यों नहीं ? वह सबसे पूछ रही थी ये बोलता क्यों नहीं है ? उठ गणेश उठ!