Deepak Kumar

Fantasy Thriller

5.0  

Deepak Kumar

Fantasy Thriller

काल योगी

काल योगी

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 क्या समय यात्रा करना संभव है? क्या हम समय में आगे या पीछे जा सकते हैं? कल्पना कीजिए अगर किसी के पास तीनों कालों में विचरण करने की शक्ति हो तो वो भगवान ही बन जायेगा। अंग्रेज वैज्ञानिकों ने बहुत खोजें की बहुत सारे तथ्य दिए, पर अब भी समय यात्रा करना लगभग एक सपना ही रह गया है। कभी कभी समाचार पत्रों में खबर आती रहती है आने वाले कुछ वर्षों में मानव समय यात्रा कर पाएगा। लेकिन आपको पता है ये असंभव है।

   रुकिए रुकिए! जाइए नहीं! इस संसार में कुछ भी चीज असंभव नहीं है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में कितने त्रिकाल दर्शी और समय के परे विचरण करने वाले साधु संतों का उल्लेख मिलता है। वे अपने योग तपस्या और ज्ञान के बल पर समय में यात्रा कर सकते थे।   अगर आपने काकभूसुंडी और गरुड़ संवाद की कथा पढ़ी होगी तो आपको मालूम होगी की; काकभूसुंडी ने भगवान राम के और कृष्ण के कितने जन्मों को देखा था। उन्होंने सारे युगों को बीतते कई बार देखा। ये कैसे संभव है सोचिए ? 

   जो अंग्रेज बुद्धिजीवी अपने कल्पना से समय यात्रा की जानकारी गढ़ते हैं जरा सोचिए वो भारत के प्राचीन ग्रंथों की कथाओं में मौजूद है। 

   (1986) हिमाचल परदेश मार्कण्डेय योग पीठ::     ये कथा एक ऐसे ही काल योगी की है जिसे योग की मुद्राओं में महारथ हासिल हो चुकी थी। अब वो समय में विचरण करने की प्राचीन विद्याओं का योग अभ्यास कर रहा था। 

                 *******

वर्तमान समय(1996)

सुबह का समय था। एक पुरानी कार बहुत तेज़ी से बनारस की गलियों में दौड़ रही थी। लगभग और आधे मील सफर करने के बाद एक मकान के बाहर आकर रुकी। और वे तेजी से उस कार से उतर कर उस मकान के दरवाजे के पास आए और उसको जोर से खटखटाने लगे।

  थोड़ी देर बाद एक हट्टा कट्टा शख्स ने दरवाजा खोला।

  और पूछा "क्या काम है और आपलोग कौन हैं"!

 गेरुवां वस्त्र पहने एक संत जैसे शख्स ने उसे उत्तर दिया

 " हमें प्रोफेसर निर्मल पांडे से मिलना है वे घर पर हैं"।

 "हां" उस शख्स ने कहा। वो शख्स और कोई नहीं अमरीश था।

 "अंदर आइए" अमरीश ने सब को अंदर आने का निमंत्रण दिया। वाहन चालक को छोड़कर बाकी चारों लोगों ने उस मकान में प्रवेश किया।

 उनके सामने ही प्रोफेसर निर्मल पांडे बैठे हुए थे। वे खड़े होकर उनका स्वागत करने लगे और पूछा" किस काम से आपलोग मेरे पास आए हैं"

 तो वही गेरुवां वस्त्र धारण किए हुवे शख्स ने कहा " अनर्थ हो गया है प्रोफेसर साहब"!

 प्रोफेसर ने प्रश्न भरी नजरों से देखकर फिर पूछा " क्या अनर्थ हो गया है महात्मन"? और आप लोग हैं कौन और कहां से आए हैं?"

 "तो उस शख्स ने बताना शुरू किया "हम मार्कण्डेय योग पीठ से आए हैं मैं वहां का मुख्य योग गुरु हूं मेरा नाम वेदांत सरस्वती है" अपने बगल में बैठे शख्स की ओर इशारा कर उन्होंने कहा " ये गुरु हरि भगत हैं और उनके साथ बैठे दो लोग इनके शिष्य हैं"

 इतना सुनते ही प्रोफेसर ने उनको सादर प्रणाम किया।

 तब तक अमरीश उनके लिए चाय बना कर ले लाया था।

" और बताइए आपलोग किस काम से आए हैं" प्रोफेसर ने चाय का कप पकड़ते हुए उनसे पूछा।

"गुरु वेदांत सरस्वती ने उत्तर देने बजाय प्रोफेसर से एक प्रश्न पूछा "क्या आपको समय यात्रा जैसी चीज में विश्वास है प्रोफेसर"

"समय यात्रा ! कुछ सोचकर प्रोफेसर ने उतर दिया और कहा" समय यात्रा करना तो नामुमकिन है गुरु देव" फिर आगे कहा"इसकी कोई संभावना ही नहीं है"

"लेकिन समय यात्रा किया जा सकता है प्रोफेसर हमारे प्राचीन ऋषि मुनि त्रिकाल दर्शी कहलाते थे आपको पता है"

गुरु वेदांत सरस्वती ने प्रोफेसर को जवाब दिया।

"क्या हुआ आप खुल कर विस्तार से मुझे सब कुछ बताइए" प्रोफेसर ने उनसे विनय पूर्वक आग्रह किया।

वेदांत सरस्वती ने विस्तार से सब कुछ बताना शुरू किया

" हमारा एक शिष्य था बहुत विद्वान उसका नाम राधा रमण था। वो किशोर अवस्था की आयु में हमारे आश्रम में योग विद्या और प्राचीन ऋषि मुनियों की अज्ञात विद्याओं की खोज करने आया था। कठिन मेहनत और बहुत कोशिश करने के बाद उसे प्राचीन ऋषियों के समय के परे विचरण करने की योग विद्या में महारत हासिल हो गई।"

"यानी वो किसी और काल खंड में चला गया गुरु वेदांत जी" प्रोफेसर ने बीच में टोका।

"नहीं नहीं प्रोफेसर साहब योग विद्या के द्वारा आप किसी दूसरे कल खंड में नहीं जा सकते हैं लेकिन यहीं बैठे बैठे भूत और भविष्य को देखा सकते हैं।" गुरु वेदांत ने प्रोफेसर के सवाल का उत्तर दिया!

"लेकिन समस्या क्या है गुरु जी आप हमसे क्या चाहते हैं खुल कर बताइए" प्रोफेसर ने फिर प्रश्न किया।

तभी गुरु वेदांत के बगल में बैठे उनके साथी हरि भगत ने बोला "हम चाहते हैं आप उसे ढूंढे?"

"किसे गुरु जी" प्रोफेसर ने फिर प्रश्न किया।

"हमारे शिष्य राधा रमण को" गुरु वेदांत ने उत्तर दिया।

"क्यों वो कहीं चला गया है क्या" अमरीश बहुत देर से चुप था। उसने अबकी बार उनसे प्रश्न किया।

"वो समय के चक्र में कहीं खो गया है अमरीश के बगल में खड़े गुरु हरि भगत के एक शिष्य ने उत्तर दिया।

"पर आपने तो कहा की योग विद्या द्वारा समय को सिर्फ देखा जा सकता है उसमें जाया नहीं जा सकता है?" प्रोफेसर ने प्रश्न किया।

" योग विद्या के द्वारा समय में जाया नहीं जा सकता है लेकिन उस समय के शरीर की अवस्था में इस समय के चेतना को जागृत किया जा सकता है प्रोफेसर" गुरु वेदांत ने एक गहरी सांस लेकर उत्तर दिया।

"तो समस्या क्या हो गई है गुरु देव" प्रोफेसर ने फिर पूछा।

गुरु हरि भगत बोले" समस्या बहुत ही विकट है प्रोफेसर पूरे संसार का आस्तित्व दांव पर लगा है!"

 "आखिर हुआ क्या है" प्रोफेसर ने फिर पूछा।

 गुरु वेदांत ने उत्तर दिया " प्रोफेसर साहब समस्या ये है की उसने अपने किशोर अवस्था के समय के शरीर में अपना सारा ज्ञान और अब तक उसके साथ क्या घटित हुआ सब कुछ जागृत कर दिया है" थोड़ी देर लंबी सांस लेकर गुरु वेदांत फिर आगे बोले " आप तो जानते ही हैं किशोर अवस्था में बहुत भ्रमित होता है तो उसके किशोर अवस्था ने सबकुछ अपने हिसाब से बदलना शुरू कर दिया है जिससे इस संसार का समय चक्र में बहुत से बदलाव होने लगे हैं जो नियम के विरुद्ध हैं और भारी संकट उत्पन्न होने का संकेत दे रहे हैं"

 "तो हम क्या करें गुरु देव" प्रोफेसर ने पूछा।

 "आपको उसे ढूंढना होगा। समय चक्र बदलने से उसका इस काल खंड का मानव रूप यहीं है उसने अपना नाम पता सब बदल दिया है" गुरु वेदांत ने उत्तर दिया।

 "पर वो तो आपके आश्रम में ही योग अवस्था में होगा ना गुरु देव" प्रोफेसर ने फिर प्रश्न किया।

 गुरु वेदांत ने उत्तर दिया " वो योग अवस्था में ही था लेकिन कल उसका शरीर वहां से अपने आप अदृश्य हो गया और बहुत से आश्रम के लोगों को वो अब याद भी नहीं रहा है

 हमे लगा कुछ गड़बड़ है हमने अपने योग विद्या से जाना तो हैरान रह गए। की राधा रमण ने समय चक्र से छेड़छाड़ कर दिया है हमारे रिकॉर्ड से भी वो गायब है उसका हमारे आश्रम में कभी आना ही नहीं हुआ है। वो गायब हो गया है।" फिर उन्होंने आगे कहा " हमें आपकी मदद की जरूरत है प्रोफेसर"

 "मदद? लेकिन मैं कैसे कर सकता हूं गुरुदेव! उसने अपना सब कुछ बदल दिया है और वो भूत और भविष्य देख सकता है तो वो पहले से ही सचेत होगा और उसे इस काल खंड में ढूंढना लगभग नामुमकिन ही है उसे तो सिर्फ भूत काल में ही ढूंढा जा सकता है उसके किशोर अवस्था के दौरान" प्रोफेसर ने उत्तर दिया।

 " हम कुछ नहीं कर सकते हैं हम समय के नियम से बंधे हुए हैं प्रोफेसर अब आप को और आप के साथियों को ही कुछ करना होगा वरना इस संसार में विकट समस्या आ जायेगी" गुरु वेदांत सरस्वती ने कहा।

 "मगर कैसे गुरु देव हम आपकी मदद नहीं कर सकते हैं" प्रोफेसर ने मुश्किल भरे शब्दों में कहा।

 तभी गुरु वेदांत सरस्वती ने प्रोफेसर के कान के पास अपने मुंह को ले जाकर कुछ कहा प्रोफेसर की आंखों में चमक आ गई।

 " ठीक है प्रोफेसर हम अपना काम शुरू कर देते हैं।

 थोड़ी देर बाद सबके चले जाने के बाद प्रोफेसर ने अमरीश को कहा " नितिन और परम को बुलावा भेज दो" 

 अमरीश ने कहा ठीक है और चला गया।

 प्रोफेसर साहब भी उठे और टेलीफोन के पास जाकर किसी का नंबर डायल किया। उधर से थोड़ी देर बाद किसी ने कॉल उठाया और कहा` प्रणाम प्रोफेसर साहब बहुत दिन बाद याद किया` ! हां समस्या ही इतनी गंभीर है की विश्वास तुमको याद करना पड़ा" प्रोफेसर साहब ने उत्तर दिया।

 "कैसी समस्या प्रोफेसर साहब" विश्वास ने फिर पूछा।

 "फोन पर अभी नहीं बता सकता हूं तुम जितनी जल्दी हो सके यहां पहुंचो और हां अपने साथ वो किताब की प्रति है ना उसे भी लेते आना" प्रोफेसर साहब ने कहा। ( उस किताब के बारे में जानने के लिए पढ़ें !गहरा साया!)

 "ठीक है मैं अभी ही निकलता हूं बहुत दिन से कोई एडवेंचर वाला कार्य भी नहीं हुआ है" विश्वास बोला और फोन काट दिया।


*****

एक दिन बीत चुका था सुबह का समय था प्रोफेसर किसी कार्य में व्यस्त थे तभी उनके दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई। प्रोफेसर ने पास बैठे अमरीश को दरवाजा खोलने का इशारा किया । अमरीश ने जाकर दरवाजा खोला तो सामने विश्वास अपने सामनों के साथ खड़ा था। 

"कैसे हो अमरीश भाई" विश्वास बोला।

अमरीश ने कुछ ना कहा और उसे गले से लगा लिया। फिर उसका सामान पकड़ा और उसे अंदर ले आया।

सामने प्रोफेसर साहब बैठे थे उनके पास जाकर विश्वास ने उन्हें प्रणाम किया और उसके सामने बैठ गया।

" तो प्रोफेसर साहब आपने मुझे इतनी जल्दी क्यों बुलाया" विश्वास ने पूछा।

तो प्रोफेसर साहब उसको सबकुछ बतलाते गए जो भी वे जानते थे।

"ये सब तो ठीक है पर उस किताब के बारे में गुरु वेदांत सरस्वती को कैसे मालूम चला ये समझ नहीं आया" विश्वास ने पूछा।

"उन्हें गुरु गौरा नाथ जी ने बताया विश्वास" प्रोफेसर साहब ने उत्तर दिया।(गुरु गौरा नाथ के बारे में जानने के लिए पढ़ें "गहरा साया")

"पर उन्हें कैसे पता चला की मैने इसकी एक प्रति बना रखी है प्रोफेसर साहब" विश्वास ने फिर पूछा।

"शायद उन्हें अपने ध्यान बल के कारण मालूम चला होगा" प्रोफेसर ने उसकी जिज्ञासा को ये कह कर शांत किया।

 तभी प्रोफेसर साहब अमरीश की ओर मुड़े और बोले " नितिन और परम कहां है अमरीश उन्हें तो कल तक आ जाना चाहिए था"

 "उन्हें एक कार की व्यवस्था करने में वक्त लगा प्रोफेसर साहब वे भी आज शाम तक पहुंच जायेंगे" अमरीश ने उत्तर दिया।

 "चलो ठीक है कल सुबह हमें निकलना है तुम दोनों सारी व्यवस्था कर लो" प्रोफेसर ने कहा। 

 "कहां प्रोफेसर साहब" विश्वास ने उनसे पूछा।

 "हमें हिमाचल परदेश मार्कण्डेय योग पीठ जाना होगा" प्रोफेसर ने उत्तर दिया। 

 फिर सब अपने काम में लग गए। शाम हुई नितिन और परम भी पहुंच चुके थे और एक नई गुत्थी को सुलझाने में काफी रोमांचित थे।

 ******

सुबह के पांच बजने वाले थे एक कार बहुत तेजी से बनारस की गलियों से निकल रही थी। परम चालक की कुर्सी संभाले हुए था। आज उसके बगल में खुद प्रोफेसर साहब बैठे हुए थे। नितिन, विश्वास और अमरीश पीछे बैठे थे।

नितिन वॉकमैन से गाने सुन रहा था। विश्वास कोई किताब पढ़ रहा था और अमरीश अपने चाकू को धार कर रहा था।

   एक दिन और एक रात का सफर उन्हें तय करना था।

 तभी नितिन ने अपने कान से इयरफोन निकलते हुए पूछा " प्रोफेसर साहब इस बार ना भूत प्रेत हैं और ना ही कोई चुड़ैल या पिशाचानी! तो इस बार हमारा दुश्मन कौन है किसकी बैंड बजानी है।"

 प्रोफेसर से पहले ही विश्वास ने उत्तर दिया " इस बार हमारा दुश्मन एक योगी है"।

 "कोई दुष्ट योगी ही होगा" नितिन ने आपने अंदाजे से कहा।

 "नहीं उस से भी भयंकर उसे हमें ढूंढना होगा" विश्वास ने नितिन से कहा।

 "ढूंढना होगा! इसका क्या मतलब वो कहीं खो गया है क्या? उन्हें तो पुलिस के पास जाना चाहिए था।" नितिन ने आश्चर्य से पूछा।

 प्रोफेसर आगे वाली सीट पर गहरी सोच में पड़े हुए थे परम कार चलाने में मशगूल था और अमरीश सो रहा था।

 " पुलिस उसे नहीं ढूंढ सकती है नितिन क्योंकि वो वर्तमान समय में नहीं है" विश्वास ने उत्तर दिया।

 "तो फिर भूत काल में है क्या" नितिन ने मजाक से पूछा।

 विश्वास ने उसे उत्तर दिया "हां" 

"तो फिर हम उसे ढूंढेंगे कैसे? इसके लिए तो टाइम मशीन चाहिए होगा।" नितिन ने फिर मजाक से कहा।

"हां एक टाइम मशीन की जरूरत है इसीलिए तो तुमको साथ ले जा रहे हैं" विश्वास ने भी मजाक में कहा।

फिर दोनों मिलकर हंसने लगे। परम भी हंसने लगा।

****** 

शाम का समय था मार्कण्डेय योग पीठ में चारों तरफ मंत्रोचार की ध्वनि गूंज रही थी। योग गुरु वेदांत सरस्वती तेजी से चहल कदमी कर रहे थे और उनके साथ उनका सलाहकार गुरु हरि भगत भी चल रहे थे।

"प्रोफेसर कब पहुंचेंगे अभी तक तो पहुंच जाना चाहिए था" गुरु वेदांत ने कहा।

" पहुंचते ही होंगे मित्र" गुरु हरि भगत ने उन्हें उत्तर दिया।

******

रात्रि के करीब आठ बज रहे थे योग पीठ में बहुत ही गहरी शांति छाई हुई थी। तभी योग पीठ के मुख्य द्वार पर एक कार आकार रुकी द्वार पाल ने उस कार में आए शख्स से परिचय लिया और द्वार खोल कर अंदर जाने को कहा। करीब आधा मिल सफर करने के पश्चात वे एक बड़े से हॉल के पास रुके क्योंकि वहीं पर गुरु वेदांत सरस्वती और हरि भगत खड़े थे।

तभी कार का द्वार खोल कर चार लोग उतरे इतने में गुरु वेदांत और गुरु हरि भगत उनके पास आ गए।

" स्वागत है आपका प्रोफेसर हमारे योग पीठ के आश्रम में"

गुरु वेदांत ने उनसे कहा।

"धन्यवाद गुरु देव"। प्रोफेसर ने उत्तर दिया।

"आने में कोई कठिनाई तो नहीं आई प्रोफेसर" गुरु हरि भगत जी ने पूछा। 

"नहीं नहीं गुरु जी ! आपलोगों की कृपा से हमारा सफर सब कुशल ही रहा" प्रोफेसर ने उत्तर दिया।

"तो कार्य कब से आरंभ करना है प्रोफेसर साहब"गुरु वेदांत जी ने उनसे पूछा।

"आज तो थके हुए हैं हमलोग कार्य कल से शुरू करेंगे गुरुदेव" प्रोफेसर साहब ने उत्तर दिया।

 "तो ठीक है आपलोगों के लिए अतिथि भवन में ठहरने की व्यवस्था कर दी गई है" और आपको भोजन पाकशाला में मिल जायेगा" गुरु वेदांत जी ने कहा।

 तभी गुरु हरि भगत के बुलाने पर कुछ शिष्य आए और उनका सामान उठा कर अतिथि भवन की ओर उनको साथ लेकर चले गए।

 गुरु वेदांत और गुरु हरि भी अपने अपने कक्ष की ओर निकल चुके थे।

 ***** 

सुबह का समय था करीब 9 बजे थे। प्रोफेसर और विश्वास कुछ गहन चर्चा करने में मशगूल थे। इधर नितिन, परम और अमरीश उस योग पीठ के भ्रमण में निकल चुके थे। वहां बहुत सी कन्याएं भी थीं नितिन तो उन्हें ही देख रहा था।

थोड़ी दूर चलने के बाद परम ने अमरीश को टोकते हुए बोला " अमरीश भाई तुम तो प्रोफेसर के साथ ही रहते हो प्रोफेसर के माइंड में क्या चल रहा है कुछ बताओगे?"

 उसका उत्तर अमरीश से पहले नितिन ने दिया" उन्हें भूतकाल में जाना है और क्या"। "लेकिन कैसे ये संभव होगा नितिन" परम ने नितिन की ओर देखकर कहा।

 " जैसे भी हो प्रोफेसर और विश्वास कोई ना कोई तिगड़म निकाल ही लेंगे! अब टेंशन छोड़ो इस योग पीठ के प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लो" नितिन ने कहा।

 "मुझे पता है तुम कौन से प्राकृतिक सुंदरता की बात कर रहे हो" परम नितिन को घूरते हुए बोला।

 *******

दोपहर का समय था भोजन करने के बाद प्रोफेसर और उनके साथी आराम कर रहे थे तभी एक शिष्य भागा भागा आया और उनसे कहा की आपलोगों को गुरु जी अपने बैठक में बुला रहे हैं। और वो चला गया। सब उठे तैयार हुए और पूछते हुए गुरु वेदांत सरस्वती के बैठक की ओर चले गए।

गुरु जी आसन लगा कर बैठे हुए थे सबने गुरु जी को प्रणाम किया। गुरु जी ने सबको बैठने के इशारा किया। सब बैठ गए।

" तब आपका कार्य कहां तक पहुंचा है" गुरु जी ने प्रोफेसर की ओर देख कर प्रश्न किया।

" आज ही मैं विश्वास से उस प्राचीन किताब में उल्लेखित विधि के बारे में चर्चा कर रहा था गुरु देव लेकिन उस किताब मे उल्लेखित विधि को करना बहुत ही कठिन है क्योंकि उस किताब में दैविक मंत्र नहीं राक्षसी मंत्रों का जिक्र है। उसके लिए हमें दुष्टता भरी जगह की तलाश करनी होगी जहां पर भटकते हुवे आत्माओं का बसेरा होगा। तभी हम उस विधि को कर सकते हैं गुरु देव?"

 प्रोफेसर ने अपनी परेशानी गुरु जी को बताई।

 गुरु जी कुछ सोचने लगे फिर बोले " वैसी एक जगह तो है यहां पर" थोड़ा ठिठक कर फिर बोले " यहां योगपीठ के पीछे एक जंगल है वहां एक कुंआ है वहां कोई बहुत ही भयंकर दुष्ट आत्मा रहती है पहले तो वो कुआं खुला था तो बहुत से लोग वहां अपनी जान दे चुके हैं फिर उस कुआं को हमने बंद करवा दिया है तब से सब शांत है।

" तो फिर ठीक है हम उस कुआं का निरीक्षण करेंगे और उसी में अनुष्ठान करेंगे" विश्वास ने आत्मविश्वास से भर कर कहा।

"जैसा आपलोग उचित समझे लेकिन इस कार्य को जल्द से जल्द पूरा करना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी" गुरु जी अपने मन के भाव को छुपाते हुए बोले।

" तो ठीक है गुरु देव हमलोग जा कर उस कुंए का निरीक्षण कर लेते हैं" प्रोफेसर बोले। 

गुरु जी ने एक छोटी सी घंटी को बजाई! तुरंत दो शिष्य दरवाजे से बैठक वाले कमरे में दाखिल हुए। गुरु जी को प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गए।

"तुमलोग इन लोगों को योग पीठ के पीछे जो जंगल है उस जंगल में उस कुंए के पास ले जाओ" गुरु जी आदेश दिया।

"जी गुरु जी" दोनों शिष्यों ने एक साथ कहा।

फिर वे सब गुरुजी से विदा लिए और उस जंगल की ओर उन दोनों शिष्यों के पीछे पीछे जाने लगे।

 कुछ देर बाद वे जंगल वाले रास्ते पर थे तभी तपाक से नितिन बोल पड़ा। "आते टाइम तो बोल रहे थे इस बार किसी भूत प्रेत से सामना नहीं होगा। लो हो गया ना सामना।" विश्वास ने उसे उत्तर दिया " उस किताब में लिखी अनुष्ठान को करने के लिए ये जरूरी है नितिन।

 तभी शिष्यों ने कहा "हम पहुंच गए"

 "लेकिन वो कुंआ कहां है" विश्वास ने पूछा। 

 "हमारे सामने" एक शिष्य ने कहा।

 "हमें तो नहीं दिख रहा है भाई साहब" नितिन ने प्रश्न किया।

 फिर दूसरे शिष्य ने उत्तर दिया! " आप जहां पर खड़े हैं उसके नीचे ही तो है" 

 ऐसा सुनते ही नितिन झट से वहां से हटा।

 "इन पत्तों को साफ करो" प्रोफेसर ने अमरीश और परम की ओर देख कर कहा।

 ये सुनकर अमरीश और परम सूखे पत्तों को हटाने लगे और वो कुंआ उन्हें दिखने लगा।

 उस कुंए के लिए लोहे का ढक्कन बनवा कर उस कुंए को ढका गया था। प्रोफेसर ने अपनी आंखें बंद की और कुछ मंत्र बुदबुदाने लगे। सब शांत होकर प्रोफेसर की ओर देखने लगे। थोड़ी देर बाद प्रोफेसर ने अपनी आंखें खोली और विश्वास की ओर देखकर मुस्कुराते हुवे बोले " लो विश्वास तुम्हें तुम्हारी मनपसंद जगह मिल गई"।

 " ठीक है प्रोफेसर साहब तो मैं अनुष्ठान की सामग्री लेने परम के साथ कल शहर चला जाता हूं" विश्वास ने प्रोफेसर साहब को उत्तर दिया।

 शाम होने को थी सभी वापस लौट रहे थे। धीरे धीर चलते हुए प्रकृति की सुंदरता को निहारते हुए वो लोग योग पीठ अंदर दाखिल हो गए।

 *******

रात के नौ बज रहे थे वे लोग योग पीठ के पाकशाला से लगे भोजन स्थल में सात्विक भोजन का आनंद ले रहे थे इतने में नितिन तपाक से बोल पड़ा! " बिना प्याज लहसुन के भी भोजन इतना स्वादिष्ट बन सकता है मैं तो सोच भी नहीं सकता"।

" तेरे सोच से भी परे इस दुनिया में बहुत सी घटनाएं घटती हैं" परम ने नितिन को खिजाते हुए कहा।

विश्वास और अमरीश हंसने लगे। रात का खाना खाने के बाद वे लोग अपने ठिकाने की ओर जा रहे थे तभी उन्होंने देखा की सामने से गुरु वेदांत सरस्वती जी और गुरु हरि भगत जी आ रहे थे।

उनके पास आते है सबने उनको प्रणाम किया।

"तो तसल्ली हो गई प्रोफेसर साहब" गुरु वेदांत जी ने प्रोफेसर से पूछा।

"हां गुरु देव हम परसों ही उस अनुष्ठान को करेंगे" प्रोफेसर ने उत्तर दिया।

"आपसे और विश्वास से कुछ बात करनी है " गुरु वेदांत जी ने कहा।

प्रोफेसर ने बाकी तीनों को अपने कमरों में जाने को कहा।

 वहीं पर एक चबूतरा था गुरु वेदांत और हरि उसपे बैठ गए और इन्हें भी बैठने का इशारा किया।

 और गहन चर्चा शुरू हो गई।

 " आपको पता है " गुरु वेदांत ने कहा।

 "क्या" प्रोफेसर ने गुरु जी को प्रश्नों भरी नजरों से देखते हुए बोले।

 "इस वर्तमान समय से बहुत से लोग गायब होते जा रहे हैं प्रोफेसर" गुरु वेदांत जी ने उत्तर दिया।

 "कैसे? ये असंभव है" प्रोफेसर को बड़ा आश्चर्य हुआ।

 " उसने समय चक्र के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया है बहुत से लोग ऐसे गायब हो रहे हैं जैसे वो कभी थे ही नहीं और किसी को ये याद भी नहीं" गुरु वेदांत उन्हें बता रहे थे।

 "याद नहीं का क्या मतलब गुरु देव" प्रोफेसर ने उनसे पूछा।

 "जैसे की आपका छात्र विश्वास है अगर भूत काल में इसके पिताजी ने शादी ही नहीं की तो इसका जन्म ही नहीं होगा और ना किसी को याद होगा ना इसके कभी होने का अहसास होगा ! उसने अपने फायदे के लिए बहुत से लोगों के भाग्य को दांव पर लगा दिया है।" गुरु वेदांत जी ने प्रोफेसर के प्रश्नों का उत्तर दिया।

 "ये तो बहुत ही गंभीर मामला है गुरु देव" प्रोफेसर ने मायूस होकर कहा।

 बहुत देर से विश्वास उनकी बातें सुन रहा था और उन सबको टोकते हुए कहा " गुरु जी अगर हमने उसे भूत काल में ढूंढ भी लिया तो उसे रोकेंगे कैसे? उसकी चेतना को मिटाएंगे कैसे" 

 " इसके लिए मैंने कुछ सोच रखा है विश्वास" प्रोफेसर ने कहा।

 "तो फिर ठीक है प्रोफेसर बस हमें कल शहर से कुछ वस्तुओं को लाना होगा जिसका प्रयोग उस शैतानी अनुष्ठान में होगा" विश्वास ने कहा।

 "तो फिर ठीक है! अब आप दोनों से हम विदा लेते हैं" गुरु वेदांत और गुरु हरि अपने रास्ते वापस लौट गए।

 और आपस में चर्चा करते हुवे प्रोफेसर और विश्वास भी अतिथि भवन की ओर लौट रहे थे। 

 "तो विश्वास तुमलोग भूत काल में कैसे जाओगे? उस किताब में तो सिर्फ भविष्य और भूत काल को देखने की विधि का जिक्र है।" प्रोफेसर ने विश्वास से पूछा।

 " नहीं प्रोफेसर साहब शैतानी किताब में सिर्फ भूत और भविष्य देखने की विद्या का ही नहीं! भूत और भविष्य में जाने के लिए द्वार खोलने की विधि का भी उल्लेख है मैनें उस किताब का गहन अध्ययन किया है और धरम जी के पिता की डायरी में भी इस किताब के बहुत से रहस्यों से भी पर्दा उठाया गया है।" (धरम जी के बारे में जानने के लिए पढ़ें "गहरा साया")

 "तो तुम मुझे कब बताने वाले थे इस बारे में" प्रोफेसर ने विश्वास से पूछा?

 "मैं आपको बताने ही वाला था प्रोफेसर पर मेरा रिसर्च अभी खत्म नहीं हुआ था इस लिए मैं आप लोगों से बहुत दूर एकांत में चला गया था" विश्वास ने उत्तर दिया।

 वे दोनों बातें करते हुए अतिथि भवन के बरामदे में बैठ गए।

  "लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है अगर हम उस काल योगी को ना समझा पाएं तो " विश्वास ने प्रोफेसर से पूछा?

  "तो उसे मरना होगा विश्वास" प्रोफेसर ने कहा।

  "तो ये काम कौन करेगा प्रोफेसर" विश्वास ने पूछा।

 "अमरीश ! अमरीश ये काम बखूबी कर सकता है।" प्रोफेसर ने कहा।

 "मगर अमरीश तो शांत और विनम्र स्वभाव का आदमी लगता है प्रोफेसर साहब" विश्वास ने आश्चर्य करते हुवे पूछा।

 "वो पहले फौज में था! एक रोज गुस्से में आकर उसने अपने कमांडेंट को ही चाकू से घायल कर दिया था। जिस से उसका कोर्ट मार्शल कर दिया गया।" प्रोफेसर ने विश्वास को बताया।

 "तो फिर आपको कैसे मिला" विश्वास ने पूछा!

 फौज से निकाले जाने के बाद इधर उधर काम की तलाश कर रहा था तो मुझे भी हट्टा कट्टा एक हेल्पर चाहिए था तो मैंने उसे अपने साथ रख लिया" ये कह कर प्रोफेसर ने विश्वास के जिज्ञासा को शांत किया।

  रात के करीब ग्यारह बज रहे थे प्रोफेसर और विश्वास बरामदे में ही बैठ के चर्चा कर रहे थे इतने में उनको ढूंढने के इरादे से परम और नितिन अतिथि भवन से बाहर आए।

  नितिन दोनों को टोकते हुए बोला " आज नींद नहीं आ रही है क्या प्रोफेसर साहब"

  प्रोफेसर साहब ने हंसते हुए नितिन की तरफ देखा और कहा " ठीक हुआ तुमलोग खुद ही आ गए वरना विश्वास तुम्हे बुलाने जाने वाला था"

  "क्यों बुलाने वाले थे प्रोफेसर साहब" नितिन ने फिर पूछा? 

"कल तुमको अमरीश के साथ योग पीठ के कुछ लोगों को साथ ले जाकर उस जंगल वाले कुंवे के आस पास लाइट व्यवस्था करनी है और परम तुमको विश्वास के साथ शहर जाकर कुछ जरूरी सामग्री खरीद लानी है" प्रोफेसर ने उन्हें उनके काम समझाए।

"अब तुम लोग जाओ सो जाओ कल बहुत काम है" प्रोफेसर ने उन्हें कहा।

वे उठ कर जाने लगे। तो प्रोफेसर ने नितिन से कहा" नितिन अमरीश अगर सोया नहीं है तो उसको मेरे पास भेज देना"

"जी अच्छा प्रोफेसर"नितिन ने जवाब दिया।

  ****** 

 सुबह के दस बज रहे थे। नितिन,अमरीश और कुछ योग पीठ के लोग अपने कंधे पर समान लादे जंगल की ओर जा रहे थे। विश्वास और परम नहीं दिखे शायद वे लोग भी शहर के लिए निकल चुके थे।

 प्रोफेसर अकेले घास के मैदान में बैठे हुवे थे। अचानक उन्हें अपने पीछे किसी के होने का अहसास हुआ????

 पीछे मुड़ के देखा तो कोई भी नहीं था!!!

 फिर सामने की ओर देखा तो उनसे कुछ ही दूरी पर ध्यान लगाए गुरु वेदांत सरस्वती जी बैठे हुए थे।। फिर वे भी थोड़ी ध्यान लगाने का प्रयास करने लगे।।

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परम कार को बड़ी तेज़ी से भगा रहा था। बगल में विश्वास कुछ पढ़ रहा था " अचानक उसने परम से प्रश्न किया?

परम गुरु वेदांत बोल रहे थे की वो योगी जिसने अपने किशोर काल खंड के व्यक्तिव में भविष्य की घटनाओं की चेतना जागृत की और खुद को फायदा पहुंचाने वाले कार्य किया जिसकी वजह से और लोगों का भाग्य संकट में आ गया है कैसे?" 

परम ने जवाब दिया " मान लो कोई लॉटरी जितने वाला है लेकिन उस से पहले ही कोई भविष्य देखकर उस लॉटरी टिकट को खरीद ले उसका भाग्य कभी बदलेगा ही नहीं। और तो और अगर वो व्यक्ति भूत काल में किसी स्त्री से विवाह करता है तो एक नया भविष्य बनेगा। और जैसे की वो स्त्री जिसके भाग्य में किसी और से विवाह करना रचियता ने लिखा था वो हो नहीं पाएगा ! जिसके कारण वर्तमान में उसके जो भी वंश हैं वो अपने आप ही मिट जायेंगे।" 

"अरे वाह तुम्हारे पास इतनी जानकारी कहां से आई परम" विश्वास ने परम को खिजाते हुए कहा।

"मैने किसी मैगजीन में पढ़ी थी कोई विदेशी लेखक का लेख था। और विदेशी वैज्ञानिक भी आज कल समय यात्रा के नए नए तथ्य दे रहे हैं" परम ने कहा!

" कोई एक वैज्ञानिक का नाम बताओ" विश्वास ने फिर पूछा।

"स्टी ई ई ई क्या तो नाम है" अभी याद नहीं आ रहा परम ने उत्तर दिया।

"तुम शायद स्टीफ़न विलियम हौकिंग का नाम लेना चाह रहे थे" विश्वास ने ये कह कर परम की थोड़ी चुटकी ली!

तभी परम ने कार को धीरे करते हुए सड़क किनारे ले जाकर रोक दिया और बोला " लो आ गया तुम्हारा मार्किट"

वे दोनों थैली पकड़ कर मार्किट में खरीदारी करने में मशगूल हो गए।

********

इधर नितिन और अमरीश! योग पीठ के लोगों की मदद से साफ सफाई और लाइट व्यवस्था फिट करने में व्यस्त थे की तभी प्रोफेसर और गुरु वेदांत सरस्वती भी वहां पहुंच गए।

 "काम कैसा चल रहा है नितिन" प्रोफेसर साहब ने नितिन को टोका।

 "एक दम बढ़िया सर जी" नितिन ने उत्तर दिया।

 "ये कुआं कितना गहरा होगा गुरु जी" प्रोफेसर ने गुरु वेदांत की तरफ देख कर पूछा।

 "लगभग चालीस पचास फिट तो होगी ही प्रोफेसर" गुरु जी ने उत्तर दिया।

 "कल इस ढक्कन को भी हटवाना होगा शाम होने से पहले गुरु जी" प्रोफेसर ने गुरु जी से कहा!!  " ठीक है कल योग पीठ के अगल बगल में बसे गांव वालों को बुलवा कर हटवा देंगे: गुरु वेदांत जी ने प्रोफेसर की समस्या को समझते हुए कहा पर वे ठिठके और आगे बोले "लेकिन"

 ! लेकिन क्या गुरुदेव" प्रोफेसर साहब ने फिर प्रश्न किया।

 "अगर इस कुंए का ढक्कन फिर से हटाया गया तो वो दुष्ट आत्मा यहां से निकल कर फिर से तबाही मचाना शुरू करेगी तो उसे रोकेंगे कैसे प्रोफेसर" गुरु वेदांत ने चिंतन भरे लहजे में कहा।

 "इसकी चिंता आप मत कीजिए गुरुदेव ! ! ! इसका भी एक रास्ता है गुरु देव" प्रोफेसर ने गुरु देव की चिंतन को समझ कर कहा।

 "कैसा रास्ता" गुरु वेदांत ने प्रोफेसर से प्रश्न किया।

 "है एक उपाय आपको समय आने पर मालूम चल जायेगा गुरु देव" प्रोफेसर ने गुरु वेदांत के प्रश्न को प्रश्न ही रहने दिया जिसका उत्तर उन्हें आने वाले कल में ही पता चलेगा?

     *******

शाम होने को थी परम और विश्वास मार्कण्डेय योग पीठ पहुंचने वाले थे। "तो विश्वास वो जो हमारा दुश्मन है जो समय के आर पार की खबर रखता है हमें नहीं रोकेगा" परम ने पूछा।

" नहीं!! वो हमें यहां नहीं रोक सकता है क्योंकि यहां की चेतना उसके भूत काल के शरीर में है वो हमारा वहीं इंतजार कर रहा है।" विश्वास ने परम के प्रश्न का उत्तर दिया।

वे दोनों बातें करते हुए आगे बढ़े जा रहे थे तभी रास्ते में ही प्रोफेसर ,गुरु वेदांत, नितिन, अमरीश और योग पीठ के लोग मिल गए। प्रोफेसर ने उन्हें आगे बढ़ने का इशारा किया तो परम कार को आगे बढ़ा कर ले गया। सभी थके हुए तो थे ही रात का खाना खाकर जल्दी ही सो गए।।।

*********

अगले सुबह करीब छह बजे प्रोफेसर विश्वास को साथ लेकर योग पीठ के कैंपस में टहल रहे थे।। और बातें भी कर रहे थे।

  मार्कण्डेय योग पीठ में सुबह का नजारा काफी सकून भरा होता था। कुछ शिष्य योगाभ्यास करते दिखते तो कुछ साफ सफाई करते तो कुछ योग देव महादेव के मंदिर में पूजा करते। इन्हीं नजारों को देखते हुए प्रोफेसर और विश्वास दोनों टहल रहे थे।

  तभी प्रोफेसर ने विश्वास से पूछा " तुम तैयार हो विश्वास आज अनुष्ठान के लिए"

  विश्वास ने उत्तर दिया " हां प्रोफेसर बिलकुल" ।

  "लेकिन मैं एक फैसला नहीं ले पा रहा हूं प्रोफेसर" विश्वास ने आगे कहा।

  "कैसा फैसला" प्रोफेसर ने पूछा।

  "मैं और अमरीश तो जा ही रहे हैं लेकिन एक और शख्स की हमें जरूरत पड़ेगी प्रोफेसर" विश्वास ने उत्तर दिया।

  " तो तुम नितिन को भी साथ ले जाओ।" प्रोफेसर ने विश्वास को सुझाव दिया।

  "नितिन नहीं परम को ले जाना अच्छा रहेगा प्रोफेसर" थोड़ा रुक कर "उसे काफी कुछ मालूम है और वो लोगों को ढूंढने में भी माहिर है " विश्वास ने प्रोफेसर से कहा।

  "ठीक है तो तुमने उस से बात कर लिया है " प्रोफेसर ने विश्वास से पूछा।

  "नहीं मगर वो मान जायेगा" विश्वास ने प्रोफेसर को उत्तर दिया।

  फिर विश्वास ने आगे कहा "प्रोफेसर उस अनुष्ठान को करने के लिए आपको और दो लोगों की जरूरत होगी"

  "हां मैंने उन लोगों से बात कर ली है" ये कह कर प्रोफेसर ने विश्वास के जिज्ञासा को शांत किया।

  "कौन हैं वो" विश्वास ने फिर पूछा"

  "गुरु वेदांत सरस्वती और उनके साथी हरि भगत जी इस अनुठान में मेरा साथ देंगे।" प्रोफेसर ने विश्वास को उत्तर दिया। ये सुनकर विश्वास की आंखों में चमक और मन आत्मविश्वास से भर उठा फिर वे वापस अपने ठिकाने की ओर लौट गए।

  *******

दोपहर का समय होने को था सबने भोजन कर लिया था। सबकी तैयारी पूरी हो चुकी थी। सब अपने अपने सामान के साथ जंगल की ओर जा रहे थे। प्रोफेसर, विश्वास, परम और नितिन आगे आगे चल रहे थे। गुरु वेदांत सरस्वती और गुरु हरि भगत अपने दर्जन भर शिष्यों के साथ उनके पीछे ही थे। और अमरीश एक लंबे बैग को कंधे पर टांगे कुछ ग्रामीणों के साथ सबसे पीछे था। 

वर्तमान में आए संकट को बचाने के लिए उन्हें भूत में जाना ही होगा। विश्वास , परम और अमरीश तीनों ही भूतकाल में जाने को तैयार थे। सबका अपना अपना लक्ष्य था। सब शांत थे कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। धीरे धीर चलते हुए करीब आधे घंटे के सफर के बाद वे सब उस जंगल में मौजूद दुष्ट आत्माओं से भरी कुंए के पास पहुंच गए। और अपने साथ लाए सामान को नीचे भूमि पर रख कर खड़े हो गए। तभी गुरु वेदांत सरस्वती के साथ आए शिष्यों और ग्रामीणों को इशारे से उस मौत के कुंए से ढक्कन हटाने को कहा। थोड़ी देर बाद बल लगाकर उस भरी भरकम ढक्कन को कुंए से हटाया गया। जैसे ही कुंए का ढक्कन हटा चारों तरफ अति तेज दुर्गंध फैल गई जिसने एक बार तो सबको अपने नाक बंद करने पर मजबूर कर दिया। 

कुआं काफी गहरा था। अभी शाम होने में समय था पर कुंए में इतना गहरा अंधेरा था। उसे देख कर लगता था की वो काली अंधकार अभी कुंए से निकल कर सबको अपने आगोश में समा जायेगी। 

प्रोफेसर , विश्वास और अमरीश आस पास के पत्थरों को ला लाकर हवन कुंड का निर्माण कर रहे थे। गुरु जी के शिष्य वहां पर तंबू लगाने में व्यस्त थे और ग्रामीण पहरा दे रहे थे। नितिन ने वहां लाइट की व्यवस्था की थी! परम के साथ मिलकर उनको चेक करने में लगा हुआ था।

 सबकुछ व्यवस्थित हो चुका था। प्रोफेसर ने ऊंचे स्वर में कहा "सब तैयार हैं"! उसे सुन सबने एक ही स्वर में उत्तर दिया की "हम सब तैयार हैं।" 

 फिर प्रोफेसर ने अपने सामने रखे बोरे से चुना पाउडर निकाल कर अमरीश के साथ कुंवें के चारों ओर त्रिभजाकार त्रिकोण का निर्माण किया। जिसमे एक कोने में खुद प्रोफेसर और दोनों कोने में गुरु वेदांत और गुरु हरि भगत विराजमान होंगें। अब थोड़ा थोड़ा अंधेरा फैलने लगा था। तो प्रोफेसर ने नितिन को इशारा किया।और नितिन ने लाइट ऑन कर दी जिससे वहां चारों तरफ रोशनी हो गया।

 और वहीं पर एक कुर्सी में कैमरा ऑन करके बैठ गया।

  विश्वास ने हवन में आग जलाई और प्रोफेसर के बगल में खड़े अमरीश और परम के साथ जाकर खड़ा हो गया। सब बिलकुल शांत थे। और चारों ओर गहरा सन्नाटा पसरा था।

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करीब नौ बज गए थे काली ताकतों के जागने का पहर हो चुका था। उस त्रिकोण में प्रोफेसर ,गुरु वेदांत और गुरु हरि विराजमान हो चुके थे। महाकाल का नाम लेकर प्रोफेसर ने मंत्रोचार आरंभ किया और हवन में धूप, धुवन, गंधक और घी के मिश्रण को डालना आरंभ कर दिया। 

उस मिश्रण की वजह से वातावरण में फैली दुर्गंध से सबको थोड़ी राहत तो मिली पर सबके चेहरे पर डर के साए साफ दिख रहे थे।

       जैसे जैसे रात्रि का पहर बीतने लगा वैसे वैसे माहौल और डरावना होने लगा। शैतानी अनुष्ठान शुरू हो चुका था अचानक कुंए से ढेरों दुष्ट आत्माओं के चीखने की आवाजें सुनाई देने लगी इन आवाजों को सुनकर सबके होश खोने लगे। पास खड़े योग पीठ के शिष्यों और ग्रामीणों के शरीर में सिहरन पैदा होने लगी। सभी अपने अपने इष्ट देवों को याद करने लगे।

       तभी कुंए के अंदर एक छोटी मगर तेज रोशनी की बिंब नजर आने लगी। उस रोशनी को देखकर विश्वास ने परम और अमरीश से कहा " भूत काल में प्रवेश करने का द्वार खुलने वाला है तुम दोनों तैयार रहना"!

       ये सुनकर परम और अमरीश दोनों ने विश्वास का हाथ पकड़ लिया। समय बीतने के साथ धीरे धीरे वो रोशनी बड़ी होने लगी। विश्वास, परम और अमरीश उस समय द्वार का मुंह बड़ा होने का इंतजार करने लगे।

  वहां मौजूद सभी लोग संसार के सबसे अनोखी घटना को घटित होते अपनी आंखों से देखने वाले थे।

  वहां पर बहुत सी दुष्ट आत्माएं मौजूद थी जो अपने इच्छाओं से मुक्त नहीं हुए थे जिनकी दुष्ट भरी आवाजें भी सुनाई देती थी। वे दुष्ट और पापी आत्माएं वहां मौजूद लोगों को नुकसान पहुंचाना चाहती थी मगर प्रोफेसर ने योग पीठ से निकलने से पहले काली मंदिर के बाबा के जटाओं से बने अभिमंत्रित धागे सबके हाथों में बांध चुके थे। इसलिए काली आत्माएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहीं थीं।

 (नोट:– काली मंदिर के बाबा के बारे में जानने के लिए पढ़ें मेरे द्वार लिखी गई कथा "गहरा साया")

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!अब मध्य रात्रि का समय था!

  अचानक कुवें में दिखी वो छोटी सी रोशनी बहुत बड़ी हो चुकी थी और पूरे कुंए को अपनी अद्भुत रोशनी से वो ढक चुकी थी।

  "जय शिव शम्भू जय महाकाल" के उद्घोष के साथ ही प्रोफेसर ने विश्वास , परम और अमरीश को उसमें कूदने का इशारा किया।

  प्रोफेसर से इशारा पाते ही विश्वास, परम और अमरीश तीनों एक साथ अद्भुत रोशनी से भरे कुंए में कूद पड़े।

  अचानक वो रोशनी उनको ले कर कुंए में समा गई। और गायब हो गई।

   थोड़ी देर चारों तरफ सन्नाटा छा गया। तीनों गुरुओं ने मंत्रोचार भी बंद कर दिया। प्रोफेसर ने सबको वापस चलने का इशारा किया! सभी वहां से वापस लौटने लगे। सभी दिनभर की भाग दौड़ और रात्रि निंद्रा अधूरी होने के कारण थके हुए महसूस कर रहे थे।

   रास्ते में अपने कैमरा को गले में टांगे नितिन ने प्रोफेसर को टोकते हुए पूछा " क्या वे लोग सकुशल वहां पहुंच गए होंगे प्रोफेसर"

   "भगवान से प्रार्थना करो की वो सकुशल पहुंच गए होंगे नितिन" प्रोफेसर ने नितिन को उत्तर दिया।

   "लेकिन मुझे एक बात की चिंता हो रही है को वो वापस कैसे आयेंगे प्रोफेसर" नितिन ने फिर प्रोफेसर से प्रश्न किया।

   "वो आ जायेंगे जैसे ही उनका कार्य वहां खत्म होगा ।तुम घबराओ मत" ये कहकर प्रोफेसर ने उसे सांत्वना दिया।

   फिर वे सभी अपने अपने ठिकानों की ओर लौट गए।

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सुबह का समय था!!

  " परम परम उठो आंखें खोलो" किसी ने ये कहते हुए परम को जोर से झटका दिया।

  परम की आंखें खुली और आंखें मलते हुए देखा की उसके सामने अमरीश बैठा है और उसे आवाज दे रहा है।

  "क्या हुआ अमरीश भाई क्यों जगाया मैं कितने अच्छे से सो रहा था और सपना देख रहा था की मैं ,तुम और विश्वास किसी कुंए में कूद कर भूत काल में जा रहे हैं"

  "ये सपना नहीं हम सच में भूतकाल में हैं परम" अमरीश ने कहा।

  परम आश्चर्य से इधर उधर देखने लगा ये जगह उसे कुछ अजीब ही लग रही थी फिर अमरीश से कहा "क्या सच में हम भूत काल में हैं!!!" तो फिर विश्वास कहां है उसे भी तो हमारे पास होना चाहिए था" 

  "वो आस पास किसी को देखने गया है जिससे पता चल सके की हमलोग कहां हैं और किस ईस्वी में हैं" अमरीश ने परम के जिज्ञासा को शांत करते हुए कहा।

  इतने में विश्वास भी आ गया और बोला " चलो हम एकदम सही समय में पहुंचे हैं" 

  "कहां चलो" परम ने उस से पूछा।

 "उसी राधा रमण शास्त्री को ढूंढने" विश्वास ने उत्तर दिया।

 "लेकिन हम हैं कहां" परम फिर पूछा।

  "हम बनारस से पच्चीस किलो मीटर दूर शाहंशाहपुर में हैं" विश्वास ने परम को उत्तर दिया।

  फिर वो कच्चे रास्ते पर आगे बढ़ गए। सामने उन्हें एक पुराने जमाने की बस गुजराती हुई दिखाई दी। तो उसे हाथ देकर वो उस पे सवार हो गए। वो बस बनारस की ओर ही जा रही थी। 

  वो लगभग तीस साल पीछे गए थे उस काल में भारत देश में ज्यादा विकास नहीं हुआ था बहुत कम ही पढ़े लिखे लोग हुआ करते थे। तभी कंडक्टर आया और उनका टिकट बनाने लगा और उनसे पूछा" तीन लोग"

  विश्वास ने "हां "कहा और पूछा "कितने रुपए हुए भैया"

  उस कंडक्टर ने उन्हें घूरते हुवे देखा और कहा " नए लगते हो तुमलोग !!! तुमलोगों का तीन रुपया हुआ यहां से बनारस तक का।"

  तभी विश्वास ने अपने छोटे बैग से पुराने समय के एक रुपए के तीन सिक्के उसे दिया। वो उनको पकड़ा और उनको टिकट थमा कर आगे बढ़ गया।

  ये देखकर परम ने विश्वास की ओर देख कर कहा " लगता है तुम पूरी तैयारी करके आए हो विश्वास यहीं बसने का इरादा है क्या?"

  ये सुनकर विश्वास हल्का हंसा और उत्तर दिए बिना किसी सोच में पड़ गया।।।।

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दोपहर का समय था। वो तीनों बस से उत्तर कर एक भोजनालय में अच्छे से भोजन किए और अपने लिए एक ठिकाने की तलाश करने लगे। उस काल खंड में बनारस उतना विकसित नहीं हुआ था। फिर भी इधर उधर भटकने के बाद उन्हें एक ठिकाना मिल ही गया। उस ठिकाने की साफ सफाई करने के बाद वो थके हुए तो थे ही जल्दी ही उन्हें नींद आ गई।

समय करीब छह बजे तीनों जाग कर आपस में चर्चा कर रहे थे।

" वो सब तो ठीक है पर विश्वास हम उसे ढूंढेंगे कैसे ना उसकी कोई तस्वीर ना उसका कोई पता ठिकाना बस उसका नाम राधा रमण।" परम ने विश्वास से पूछा।

"उसका ठिकाना के बारे में तो नहीं पता पर गुरु वेदांत सरस्वती ने अपने एक शिष्य से उसकी तस्वीर बनवा के दी है जब वो पहली बार योग पीठ में आया था उस घटना को वे अपनी मानसिक साधना के द्वारा याद कर उसके चरित्र का वर्णन किए थे।" विश्वास ने परम और अमरीश को देखकर कहा। और उसकी तस्वीर निकाल कर उन दोनों के सामने रख दिया। 

"तो इस बांके बिहारी को हमें ढूंढना होगा?" परम ने विश्वास से पूछा। 

"हां" विश्वास ने कहा।

"तो इस बड़े शहर में हम उसे ढूंढेंगे कैसे" परम ने फिर पूछा।

" इसे हम पूरे शहर में नहीं ढूंढेंगे परम" विश्वास ने हंसते हुए कहा।

"तो कहां ढूंढेंगे" परम ने फिर पूछा।

 "सीधे सीधे बताओ ज्यादा पहेली मत बुझाओ मेरा सर घूम रहा है तुम दोनों की बातें सुनकर" अमरीश जो काफी देर से उनकी बातें सुन रहा था अचानक गंभीर मुद्रा में आते हुए बोला।

 "तो सुनो आज से दो दिन बाद बनारस हिंदू विश्व विद्यालया में मार्कण्डेय योग पीठ की एक सभा होने वाली है जहां ये राधा रमण आने वाला है। और उसी के तीसरे दिन वो उसी योग पीठ में जाने वाला था अध्ययन करने।" विश्वास ने उन्हें बताया।

 "जाने वाला था! मतलब क्या!!! वो क्यों नहीं गया" परम ने फिर प्रश्न किया।

 "क्योंकि उसके वर्तमान रूप ने उस काल खंड से इस काल खंड में मौजूद उसके रूप को मानसिक तरंगों की मदद से उसके साथ होने वाली या इस दुनिया में होने वाली घटनाओं से अवगत करा दिया।" विश्वास बोलते बोलते रुका।

 "यानी की ये जो बांके बिहारी है वो अपने साथ साथ दूसरों का भी भविष्य जान गया है।" परम ने अनुमान लगाया।

 "अभी नहीं जान पाया है पर वो जल्द ही जान लेगा" विश्वास ने उन्हें बताया।

 "पर कब जान लेगा" परम ने फिर पूछा।

 विश्वास ने उत्तर देते हुए कहा " यही योग पीठ की सभा खत्म होने के लगभग आधे घंटे बाद उसकी चेतना जागृत हो जायेगी।" 

 "यानी की सभा खत्म होने के पहले ही हमें उसे दबोचना होगा।" अमरीश ने अंदाजा लगाकर कहा।

 "हां" विश्वास ने उसे उत्तर दिया।।।

 तभी किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। सब एक दम से शांत हो गए। विश्वास ने अमरीश को दरवाजा खोलने का इशारा किया। अमरीश उठा और दरवाजा खोल कर बाहर झांका और बाहर आए शख्स को देखकर उसे तसल्ली हुई। वो कोई और नहीं उनका मकान मालिक था जो थोड़ा बुजुर्ग था।

 उसने अमरीश से कहा " सामने चौराहे पर एक होटल है अगर खाना वाना खाना है तो नौ बजे से पहले चले जाना नहीं तो बंद हो जाएगी और यहां से बहुत दूर जाना होगा।"

 अमरीश ने घड़ी देखा आठ बजने को थे "ठीक है चाचा" कह कर उस बुजुर्ग व्यक्ति को विदा किया और अंदर आ गया। अंदर सभी उस बुजुर्ग की बात को सुन चुके थे परम फटाफट तैयार हो गया और विश्वास तो पहले से ही तैयार था अमरीश ने अपनी कमीज पहनी और वे उस भोजनालय की ओर चल दिए।।।

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::वर्तमान काल::

 स्थान:– मार्कण्डेय योग पीठ

 शाम के सात बज रहे थे। प्रोफेसर गुरु वेदांत सरस्वती से चर्चा कर रहे थे। 

 "अगर प्रोफेसर वे उसको रोकने में असफल हो गए तो क्या होगा।" गुरु वेदांत ने प्रोफेसर से प्रश्न किया।

 " इसके लिए भी एक दूसरी योजना मैनें उन्हें बताया है गुरु देव" प्रोफेसर ने उनके प्रश्न का उत्तर दिया।

 "कैसी योजना प्रोफेसर" गुरु वेदांत ने फिर प्रश्न किया।

 "अगर किसी कारणवश वे उसे रोकने में नाकामयाब रहें तो उसे जान से मारने की हमने दूसरी योजना बनाई है गुरुदेव!" प्रोफेसर ने गुरु जी को उत्तर दिया।

 इतना सुनना था की गुरु वेदांत सरस्वती क्रोधित और हताश हो उठे! "ये आपने क्या किया प्रोफेसर ऐसा नहीं हो सकता है वो मेरा प्रिय शिष्य के साथ साथ मेरा मित्र भी था

 आपको ये योजना नहीं बनानी थी प्रोफेसर।" गुरु वेदांत कहने लगे।

 "और हम क्या करते गुरु देव वर्तमान को बचाने के लिए भूतकाल में उसे मिटाने के अलावा और कोई उपाय हमें नहीं सूझ रहा था।" प्रोफेसर गुरु वेदांत को समझाते हुए बोले।

  ये बात सुनकर गुरु वेदांत के हृदय को बहुत पीड़ा पहुंची थी वो तुरंत प्रोफेसर को अकेला छोड़कर चले गए। तभी कुछ दूर में खड़े और उनकी बातें सुन रहे गुरु हरि भगत वहां आए और प्रोफेसर से कहा " आप चिंता मत कीजिए प्रोफेसर! गुरु वेदांत जी अपने आप को संभाल लेंगे! वे उसे बहुत चाहते थे और वो भी उनकी बहुत सेवा करता था।"

  प्रोफेसर ने गुरु हरि भगत को प्रणाम किया और उनसे विदा लेकर अपने ठिकाने की ओर चले गए।। गुरु हरि भगत थोड़ी देर वहीं खड़े रहे फिर ईश्वर का नाम जपते जपते वे भी वापस चले गए।।।

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::भूतकाल::

सुबह के नौ बज रहे थे। वे तीनों बनारस हिंदू विश्व विद्यालय पहुंच चुके थे। और वे उस जगह पर खड़े थे जिस जगह पर योग पीठ की सभा होने वाली थी। वहां लोग सुबह से ही कार्य में व्यस्त थे साफ सफाई टेंट वगेरह लगा रहे थे। विश्वास ने इशारे से बताया वहां मंच रहेगा।

"लेकिन हमें उसे ढूंढना कहां है" इतने में परम ने पूछा।

 "हमें उस सभा में जो भीड़ लगेगी उसमें ढूंढना है।" परम ने उसे उत्तर दिया।

 "यानी की भूसे में से सुई ढूंढ के निकलनी है।" परम निराश हो कर बोला।

 "हां भाई" विश्वास ने कहा।

 " तब तो हो गई मुसीबत" माथे पे हाथ रखते हुए परम ने कहा।

 "हमें उसे ढूंढना ही होगा किसी भी हालत में क्योंकि हमारे अलावा यहां और कोई नहीं है जो उस काल योगी को रोक सकता है" अमरीश ने उन दोनों की ओर देख कर कहा।

 "हां अमरीश भाई" परम ने कहा। तो विश्वास उस से पहले ही बोल पड़ा "चलो वापस अपने ठिकाने की ओर और थोड़ा आराम कर लो कल यहां सभा होगी"।

 फिर वे वापस लौट गए वहां से।

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::वर्तमान काल::

सुबह के नौ बज रहे थे। गुरु वेदांत सरस्वती अपने कमरे में ही थे। प्रोफेसर ने जो उन्हें दूसरी योजना के बारे में बताया था उसे सोच सोच कर बहुत दुखी और चिंतित हो रहे थे। और चिंतित हो भी क्यों नहीं उनके सबसे प्रिय शिष्य का अगर भूतकाल में आस्तित्व ही मिटा दिया जायेगा तो ना वे कभी उस से मिल पाएंगे और ना ही वो किसी की स्मरण में रहेगा।

उनके मन में एक ज्वार सी उठ रही थी वे बड़े असमंजस में थे। क्या करें क्या नहीं उनको कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। तभी वे अपने कमरे से बाहर निकले और तेज कदमों से चलते हुए कहीं जाने लगे। थोड़ी देर चलने के बाद वे योग पीठ के पुस्तकालय के पास रुके और इधर उधर देखा फिर उसके अंदर चले गए। सुबह के समय वैसे पुस्तकालय में कोई रहता नहीं था। सिर्फ एक कर्मी था। उन्होंने उस से किसी अलमारी की चाभी की मांग की और वे उस पुस्तकालय के एक सबसे आखिर में स्थित अलमारी को खोलने लगे। उस अलमारी में बहुत सी प्राचीनतम पुस्तकें पांडुलिपियां थी। उसमें कुछ देर ढूंढने के बाद वे एक पांडुलिपि को उठाकर अपने वस्त्रों में छुपा लिया फिर वापस उस अलमारी की चाभी को पुस्तकालय कर्मी को देकर तेज कदमों से चलते हुए अपने कमरे में लौट आए। और अंदर से दरवाजे को बंद कर लिया।।


दोपहर का समय होने को था इधर प्रोफेसर साहब भी अपने कमरे में बैठे हुए थे। वे भी बड़े बेचैन थे और हों भी क्यों नहीं उनके भी छात्र भूतकाल में फंसे थे। इतने में उनके दरवाजे के पास किसी की दस्तक हुई। उस शख्स ने उनका दरवाजा खटखटाया। प्रोफेसर उठे और दरवाजा खोला। सामने नितिन खड़ा था। वे उसे अंदर ले आए और अपने पास बैठकर उसके आने का कारण पूछा। 

तो नितिन ने बताया की उसे उनकी यानी उसके साथियों की बड़ी चिंता हो रही है।

"तुम चिंता मत करो नितिन विश्वास सब संभाल लेगा।" प्रोफेसर साहब ने उसे दिलासा देते हुए कहा।

"मेरा मन नहीं लग रहा है उनके बिना प्रोफेसर" नितिन ने उनको अपनी मनोदशा से अवगत कराया।

तभी उनके दरवाजे पर किसी और ने भी दस्तक दिया और दरवाजे को जोर से खटखटाया। प्रोफेसर खुद उठे दरवाजा खोलने। दरवाजा खोला और बाहर निकले तो देखा कि गुरु हरि भगत जी आएं हैं भागते भागते।

प्रोफेसर को देखते ही गुरु हरि भगत बोलने लगे " अनर्थ हो गया प्रोफेसर साहब"।

"क्या हो गया गुरु देव आप इतना क्यों हाँफ रहे हैं" प्रोफेसर ने उनसे पूछा।

"आपको चलना होगा मेरे साथ अभी !! बहुत बड़ी संकट आने वाली है।" गुरु हरि भगत जी बोले।

तभी अंदर से उनकी बातें सुनकर नितिन भी बाहर निकला।

उनको साथ लेकर गुरु हरि भगत जी बड़ी तेज़ी से उस और जाने लगे जिस ओर से वो आए थे।

      ********

:भूतकाल::

विश्वास,परम और अमरीश आज सुबह जल्दी ही तैयार होकर सभा स्थल की ओर जाने के लिए निकल चुके थे।

तभी उन्हें एक तांगावाला गुजरते हुए दिखा। उन्होंने उसे रोका और उस पर बैठ गए और उसे जल्दी से बनारस हिंदू विश्व विद्यालय की ओर चलने को कहा।। कुछ देर बाद तांगावाला उन्हें वहां पहुंचाकर उनसे पैसे लिए और अपने रास्ते चला गया।। वहां अभी बस कुछ महाविद्यालय कर्मी ही केवल थे।। तभी वहां अचानक कुछ योग पीठ वालों का दल आया सफेद वस्त्र धारण किए नीचे धोती और ऊपर बस एक सफेद कपड़े को लिपटाए हुए थे। उस दल में उनको एक जाना पहचाना चेहरा भी दिखा। उस चेहरे को देखकर परम ने आश्चर्य से कहा "देखो वो व्यक्ति गुरु वेदांत सरस्वती जैसा नहीं लग रहा है।"

विश्वास और अमरीश भी उसे देखने लगे। इतने में विश्वास ने कहा "वो लग नहीं रहा है बल्कि वही हैं। हम भूतकाल में हैं तब गुरु जी जवान थे और उनकी उम्र लगभग तीस चालीस के आस पास रही होगी।" थोड़ी देर रुक कर विश्वास ने फिर कहा " उन्हें छोड़ो काम पर ध्यान दो। तुम परम! सभा स्थल के मुख्य द्वार के पास रहोगे और अमरीश तुम कोई ऊंची जगह ढूंढ लो जहां से पूरी सभा स्थल पर तुम नजर रख सकते हो।।

"और तुम कहां रहोगे" इतने में परम विश्वास से पूछ पड़ा।

"मैं अंदर रहूंगा" विश्वास ने कहा।।

"तुम अंदर और हम बाहर" क्या योजना बनाई है।" परम ने थोड़ा मजाकिया अंदाज में कहा।

 तभी अमरीश ने उन दोनों की तरफ देखा और कहा "मुझे भूख लग रही है चलो आस पास किसी भोजनालय में।

 "हां, हां भूख तो मुझे भी लगी है।" परम भी बोला।

 "तो चलो फिर पास ही एक शुद्ध शाकाहारी भोजनालय है वहीं चलते हैं।" विश्वास ने उन दोनों से कहा। और तीनों चले गए।

      *******


  ::वर्तमान काल::

  गुरु हरि भगत जी ! प्रोफेसर और नितिन को लेकर तेज़ी से योग पीठ के मुख्य भवन की ओर जा रहे थे। जहां मार्कण्डेय योग पीठ के प्रमुख गुरु वेदांत सरस्वती जी निवास करते थे। वहां जैसे ही प्रोफेसर और नितिन पहुंचे तो देखा कि गुरु वेदांत सरस्वती कोई प्राचीन योग कला की मुद्रा में लीन थे। उन्हें देखकर वे गुरु हरि भगत की ओर पलटे और उनसे बोले" क्या हुआ गुरु देव इसमें इतनी घबराने वाली क्या बात है।"

  "ये घबराने वाली ही बात है प्रोफेसर साहब" गुरु हरि भगत जी ने प्रोफेसर से कहा।

  नितिन वहां चुपचाप खड़ा था उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

  " आपको पता भी है प्रोफेसर ये योग की कौन सी कला है।" गुरु हरि भगत ने फिर कहा।

  "नहीं पता गुरु जी" प्रोफेसर ने कहा।

  "ये वही कठिन और प्राचीन कला है जिस से समय के किसी भी काल का स्मरण कर उस काल में मौजूद अपने वजूद की चेतना को आप जगा सकते हैं।" गुरु हरि भगत जी ने उन्हें बताया।

  "तब तो ये बहुत चिंता की बात है गुरुदेव" प्रोफेसर ने गुरु हरि भगत जी से कहा।

  "इन्हें हम जगा देते हैं झटका दे कर" पास खड़े नितिन ने उन्हें सुझाव दिया।

  "नहीं नहीं अगर हमने उन्हें जगाया तो उनकी चेतना किसी काल खंड में फंस जायेगी और वे इसी मुद्रा में हमेशा के लिए रह जायेंगे।" गुरु हरि भगत जी ने कहा।

 "हम उन्हें कैसे जगा सकते हैं।" प्रोफेसर ने फिर पूछा।

 "नहीं जगा सकते हैं। अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है प्रोफेसर साहब" गुरु हरि भगत ने हताश होकर कहा।

 "तो वे अपनी मानसिक शक्ति से किस काल खंड में गए होंगे।" नितिन ने गुरु हरि भगत की ओर देखकर पूछा।

 "हमें लगता है वे भी उसी काल खंड में गए होंगे जिस काल खंड में आपके साथी होंगे प्रोफेसर" गुरु हरि भगत ने कुछ सोचा और कहा।।

 "पर आपने तो कहा था आपलोग कालचक्र की सीमाओं के बाहर नहीं जा सकते हैं ये सृष्टि के नियमों के विरुद्ध है।" प्रोफेसर ने गुरु हरि भगत से पूछा।

 "हां प्रोफेसर साहब ये नियम के विरुद्ध है। हम सृष्टि में घटने वाली घटनाओं को नहीं बदल सकते हैं। इसे स्वमं ईश्वर भी बंधे हुए हैं।" गुरु हरि भगत जी ने कहा।

 "तो हम क्या करें गुरुदेव" प्रोफेसर साहब ने गुरु हरि भगत से पूछा।

 "हम कुछ नहीं कर सकते हैं प्रोफेसर साहब बस हम इंतजार कर सकते हैं की इस घटना का काल चक्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा। गुरु हरि भगत जी ने प्रोफेसर साहब को उत्तर दिया।।।

 ये सुनकर प्रोफेसर और नितिन वहीं बैठ गए। और गहरी सोच में पड़ गए।क्योंकि उनके हाथ में कुछ भी नहीं था।

 गुरु हरि भगत भी अपने साथी गुरु वेदांत सरस्वती के सामने ही समाधि लगाकर लीन हो गए।

    ******

  ::भूतकाल:: 

  दोपहर का समय।। 

  सभा स्थल पर आगंतुक आ रहे थे। परम वहीं सुरक्षा कर्मचारियों से कुछ दूर खड़ा होकर आने जाने वालों को देखा रहा था और अमरीश मीनार जैसी भवन के छत पर खड़ा था और अपने बैग से दूरबीन निकल के उस योगी को ढूंढ रहा था। विश्वास सभा स्थल के अंदर लोगों को देख रहा था। तभी सभा स्थल के अंदर मार्कण्डेय योग पीठ के कुछ सदस्य आते दिखे उनके सबसे आगे युवा गुरु वेदांत सरस्वती दिखे। वे लोग सीधे मंच पर आ गए। और सभी एक पंक्ति में खड़े हो गए। तभी योग पीठ के कुछ सदस्य भी एक बुजुर्ग गुरु के पीछे पीछे आ रहे थे वे कोई और नहीं उस काल में योग पीठ के मुख्य योगी जी थे वे मंच पर आए और सभा स्थल में आए हुए लोगों को संबोधित करने लगे और योग ,अध्यात्म और वैदिक ज्ञान का एक सुंदर सा भाषण देने लगे। थोड़ी देर बाद मुख्य गुरु का भाषण खत्म होने के बाद युवा गुरु वेदांत सरस्वती आम जनों को संबोधित करने लगे। तभी विश्वास की नजर एक पीछे बैठे हुए लड़के पर पड़ी। उस लड़के को देख के वो थोड़ी देर ठिठका और सोचा ये तो थोड़ा उसी लड़के की तरह लग रहा है जिसकी तस्वीर वो वर्तमान काल से लेकर आए थे।। हां ये वही लड़का हो सकता है। लेकिन वो कैसे पता लगाए की ये वही है। तभी उसको ढूंढता हुआ परम भी उसके पास आ पहुंचा और बोला "सारे अतिथि आ गए लगता है पर वो नहीं आया भाई।"

  "वो यहीं है" विश्वास ने उसे उत्तर दिया।

  "कहां है" परम ने अचंभित होते हुए पूछा।

  "वो सबसे पीछे बैठा हुआ है।" विश्वास ने उसे उत्तर दिया।

  "तो चलो फिर उसे लपकते हैं।" परम ने विश्वास से कहा।

  "नहीं पहले हमें पक्का करना होगा की ये वही है या नहीं। विश्वास ने असमंजस से कहा। 

  तभी परम ने अमरीश को इशारा किया जिस से अमरीश की नजर भी उस ओर गई।।

  परम और विश्वास उसकी ओर बढ़ने लगे और उसके पीछे आकर रुक गए। "कैसे पता करें कि ये वही है" विश्वास ने परम से कहा तो परम ने उसे उत्तर दिया " यहां और इसके जैसा कोई नहीं है तो ये वही होगा।" परम ने कहा।

  तो विश्वास कहने लगा "यहां इतने सारे लोग हैं और तुम्हारी नज़र से बच कर ये सभा स्थल में पहुंच गया तो कोई और भी हो सकता है।"

  "ये बात भी ठीक है" परम ने कहा।

  तभी परम की आंखों में एक चमक सी आ गई और उसने विश्वास से कहा "एक आइडिया है भाई"।

  "कैसा आइडिया" विश्वास ने पूछा।

  "मैं इसका नाम लेता हूं अगर ये सुन कर पलटा तो ये वही है।" परम ने उस से कहा।

  विश्वास ने हां कहा ही था की उसने जोर से पुकारा "राधा रमण"।

  ये शब्द जैसे ही उसने सुना तो वो पलटा और इन दोनों को देखने लगा। उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी चौदह पंद्रह वर्ष का लड़का होगा।

  परम और विश्वास का उसे पलटते देख कर खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तभी ये दोनों इसके पास जाने लगे। वो इन्हें अपने पास तेज़ी से आता देखकर वो वहां से तेजी से भागने लगा तो परम भी उसके पीछे तेजी से दौड़ा।। तभी गुरु वेदांत सरस्वती का भाषण अचानक रुक गया। बीच में ही वो किसी ध्यान में मग्न हो गए थे।।। थोड़ी देर बाद अचानक उनकी आंखें खुली तो वे इधर उधर देखे बिना मंच से उत्तर कर उसी दिशा में दौड़ पड़े जिस दिशा में परम दौड़ा था।। सभा में उपस्थित सभी लोग अचंभे में थे की युवा गुरु वेदांत सरस्वती अचानक कहां चले गए।।

  ********

दिन के लगभग चार बजने को थे। एक चौदह वर्ष का लड़का तेजी से भाग रहा था। और उसके पीछे एक नौजवान भी उसे पकड़ने को भाग रहा था। वो भागते भागते एक खंडहर में घुस गया और वहीं छुप गया। और उसके पीछे भागते नौजवान भी वहां पहुंचा! पर वो रुक गया वहां इतने रास्ते बने हुए थे। बहुत सारे कमरे थे उस खंडहर में। तभी उसके पीछे एक और नौजवान आया जो परम परम चिल्ला रहा था। ये और कोई नहीं विश्वास था और जो उस लड़के को दौड़ा रहा था वो और कोई नहीं परम था।। 

"तुम्हे मिला" विश्वास ने परम से पूछा। 

"नहीं" परम ने उसे उत्तर दिया।

"तो ढूंढो उसे" विश्वास ने गुस्से में कहा।

"वो यहीं कहीं होगा" परम ने कहा।

"तुम्हारी वजह से सब गड़बड़ हो गया परम! तुम्हें जल्दी ना होती तो वो हमारे कब्जे में होता।"विश्वास ने कहा।

"पर वो भाग क्यों रहा था" परम ने विश्वास से पूछा।

"मुझे क्या पता बच्चा है डर गया होगा।"विश्वास ने कहा।

  तभी विश्वास ने गहरी सांस लेते हुए वहां बने कमरों में झांकने लगा। परम भी कमरों की तलाशी लेने लगा।

  तभी अचानक वो लड़का एक कमरे से तेजी से भागते हुए निकला और परम को धक्का देकर एक ओर गिराकर भागने लगा। विश्वास उसे भागते देखकर उसके पीछे भागा।

  वो एक सुनसान गली में भाग रहा था।

तभी विश्वास ने उसे आवाज लगाई" रुक जाओ रमण हम तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं।"

 वो लड़का अचानक रुका क्योंकि आगे रास्ता बंद था।

 वो पलटा और वहां रखे एक जंग लगे लोहे के छड़ को उठा लिया और कहा " वहीं रुक जाओ नहीं तो"

 विश्वास ये देखकर वहीं रुक गया। तभी पीछे से परम भी आ गया। वो भी उसके हाथ में छड़ देखकर रुक गया।फिर उस लड़के ने पूछा " तुमलोग कौन हो और मेरा पीछा क्यों कर रहे हो।"

 विश्वास ने उसे उत्तर दिया " हम बस तुमसे बात करना चाहते हैं।"

 "तुमलोग सिपाही हो क्या" उस लड़के ने पूछा।

 "नहीं नहीं हम लोग तुम्हारे मित्र हैं " परम ने कहा।

 "तुमलोग मेरे मित्र नहीं हो सकते हो मैं तुमलोगों को नहीं जानता हूं।" उस लड़के ने कहा।

 "बताओ क्या काम है मुझसे" उस लड़के ने पूछा।

 तभी पीछे से अमरीश भी आ गया और उसके हाथ में एक राइफल भी था उसे उसने उसकी ओर तान दिया।

 राइफल देखकर उसे यकीन हो गया की ये सिपाही हैं।

 उस लड़के ने लोहे के छड़ को फेंक दिया। और अपने हाथ उठा कर कहा " मैंने कोई चोरी नहीं की है मेरे पास विद्यालय की फीस भरने के पैसे नहीं थे तो बनिए की दुकान से पचास रुपए चुराई थी बस।" उस लड़के ने कहा।

 विश्वास ने अमरीश को राइफल नीचे करने को कहा। और धीरे धीर उसकी ओर बढ़ने लगा। उस लड़के के चहरे में एक डर सा दिखने लगा। उसकी धड़कन भी जमने सी लगी और उसकी सांसे फूलने लगी। विश्वास उसके पास पहुंचने वाला था ही की अचानक उसकी आंखें बंद हो गई और वो ध्यान के मुद्रा में सीधा खड़ा हो गया। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उसके शरीर में प्राण ही ना हो। तभी अचानक उसकी आंखें खुली। और उसने इन तीनों की तरफ देखा और कहा "मैं सबकुछ जान गया हूं की तुमलोग कौन हो कहां से आए हो और क्यों आए हो।" उसकी आंखों में तेज चमक आ गई और वो बिलकुल शांत लग रहा था। जैसे किसी सिद्ध पुरुष को देखकर प्रतीत होता है वैसा ही अनुभव हो रहा था।। तभी विश्वास ने कहा" गुरुदेव आप रुक जाइए" इस स्मृति को मिटा दीजिए।

 "नहीं अब मैं जान गया हूं की मैं कौन हूं! मैं त्रिकाल दर्शी बन गया हूं! मैं काल योगी हूं।" उस लड़के ने कहा।

 ये सुनकर विश्वास ने फिर कहा " गुरुदेव अगर आप अपने भूतकाल में परिवर्तन करते हैं तो पूरा समय चक्र में उथल पुथल मच जाएगी।"

 "उस से मुझे क्या! इस दुनिया ने मुझे बहुत कष्ट दिया है। मैं इसका हिसाब लूंगा।" उस लड़के ने कहा।

 और जाने लगा। तभी परम ने उसे पकड़ना चाहा। तो उसने अपने योग बल से बस अपने हाथ हिलाकर उसे वहीं जड़वत कर दिया। तभी विश्वास और अमरीश भी आगे बढ़े तो उसने अपने योग बल का प्रयोग कर उन दोनों को भी वहीं जड़वत कर दिया। और वहां से जाने लगा। तभी उसने देखा कि गुरु वेदांत सरस्वती उसकी ओर आ रहें हैं और उसके पास आकर रुक गए। वे उन्हें देखकर कर प्रणाम किया।

 तभी गुरु वेदांत जी ने कहा"आयुष्मान भवाः पुत्र!! और आगे कहा रुक जाओ रमण और अपनी चेतना को मिटा दो तुम जो करने वाले हो वो श्रृष्टि के नियम के विरुद्ध है।"

 "नहीं गुरु जी मैं अब नहीं रुकूंगा अपने भाग्य का विधाता खुद बनूंगा।" उस लड़के ने कहा।

 "ये अनर्थ मत करो शिष्य! तुम तो एक महान योगी हो" गुरु वेदांत जी ने कहा।

 "मैं महान योगी भविष्य में था अब मैं सबकुछ जान गया हूं तो मैं अपने भविष्य खुद लिखूंगा। आप मुझे ना रोकें।" उसने गुरु वेदांत सरस्वती से कहा। और आगे बढ़ गया। तभी गुरु जी ने अपनी योग शक्ति से उसे रोकना चाहा तो उसने गुरु जी पर मानसिक शक्ति का प्रचंड प्रहार कर दिया। जिससे वे भूमी पर गिर गए। लेकिन विश्वास, परम और अमरीश उनकी योग शक्ति से निजात पा चुके थे। तो विश्वास और परम उसकी ओर दौड़ पड़े। तो उसने इन दोनों पर भी मानसिक शक्ति का प्रहार कर दिया। जिस से दोनो गिर पड़े। इतने में अमरीश ने राइफल उठाया और उसने उस लड़के पर गोली दाग दिया। गोली चली और एक कराह निकली और उस गोली का निशाना गुरु वेदांत सरस्वती जी हो गए जो अमरीश और अपने शिष्य के बीच में आ गए थे वे वहीं गिर गए। उनके शिष्य ने ये देखा तो वहीं गुरु के पास ही बैठ गया और दर्द से कराहते अपने गुरु का शीश अपने गोद में रखकर जोर से रोने लगा और कहा "क्यों गुरुदेव क्यों! आप बीच में क्यों आए।" 

 "तुम्हे रोकने आया था पुत्र" गुरु जी बोले।

 "मुझे मर जाने देते गुरुदेव" उस लड़के ने रोते हुए कहा।

 " तुम्हें कैसे मृत्यु को प्राप्त होने देता पुत्र! एक गुरु कभी भी अपने शिष्य का अहित नहीं चाहेगा।" गुरु वेदांत सरस्वती ने उसे उत्तर दिया।

 "नहीं गुरु देव नहीं!" रोते हुए उस लड़के ने कहा।

 "तुम जो संसार में अनर्थ करने जा रहे हो पुत्र उसका मूल बहुत बड़ा चुकाना होगा।" गुरु वेदांत ने कहा।

 " अगर उस ज्ञान का त्याग इतना बड़ा है तो गुरुदेव! वो ज्ञान मेरे किसी काम की नहीं ये कहकर उसने अपनी आंखें बंद कर वहीं समाधि में लीन हो गया और थोड़ी देर बाद उसकी आंखे खुली। उसने अपने गोद में गुरु वेदांत को देखा और अचानक खड़ा हो गया और बोलने लगा "ये कौन हैं और तुमलोग कौन हो।"

 तभी गुरुदेव हंसने लगे और उस लड़के से बोले" तुम जाओ पुत्र" ये सुनकर वो वहां से चला गया।

 तभी जल्दी से गुरुदेव के पास विश्वास, परम और अमरीश भी आ गए। विश्वास ने हाथ जोड़कर उनसे कहा "गुरुदेव हमें क्षमा कर दीजिए।"

 गुरुदेव ने उनसे कहा" क्षमा मत मांगो तुमने तो संसार को बचाया है।"

 फिर अचानक गुरुदेव धीरे धीर अपनी आंखें बंद किए और शांत हो गए।

 तभी अचानक उनको ढूंढते हुए योग पीठ के लोग भी पहुंचने वाले थे। विश्वास ने परम और अमरीश को इशारा किया तो वे भी नम आंखों से गुरुदेव देख कर वहां से निकल गए।।।

  और वहीं उस खंडहर के अंदर घुस गए। और एक कमरे में पहुंचकर उनका हाथ पकड़ कर विश्वास कुछ मंत्र बुदबुदाने लगा। और अचानक उनकी आंखों के सामने अंधेरा हो गया।

  *******

:: वर्तमान काल::

सुबह का समय! प्रोफेसर साहब और अमरीश बाहर अपने मकान के बरामदे में बैठे हुए थे और चाय की चुस्की ले रहे थे। तभी उनके मकान के सामने एक कार आकार रुकी।

उस कार से विश्वास, नितिन और परम नीचे उतरे और एक दूसरे से हंसी मजाक करते हुए प्रोफेसर और अमरीश के पास आकर रुके और प्रोफेसर साहब को प्रणाम किया और विश्वास ने उनसे पूछा "क्या बात है प्रोफेसर साहब आपने हमें क्यों बुलाया है।"

प्रोफेसर साहब ने विश्वास के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा की "आमंत्रण पत्र आया है हम सब का मार्कण्डेय योग पीठ से तो वहां आज और अभी चलना है"

"क्यों" नितिन ने पूछा।

" उनके योग पीठ में एक मुख्य गुरु का चुनाव है तो हम सब को आमंत्रित किया है" प्रोफेसर ने उन्हें बताया।

"तो फिर चलते हैं" विश्वास ने कहा।

थोड़ी देर बाद वे तैयार होकर सभी कार में सवार होकर निकल पड़े। 


एक लंबा सफर तय करने के बाद वे उस योग पीठ में पहुंचे जो हिमाचल प्रदेश की प्राकृतिक और मनमोहक स्थल में मौजूद था। वे उस योग पीठ के द्वार में पहुंचे ही थे की द्वार पालों ने उन्हें रोका और उनसे उनका परिचय लिया और योग पीठ के अंदर जाने का इशारा किया। परम कार को तेजी से दौड़ा कर योग पीठ के मुख्य भवन के दरवाजे के पास रुका। तभी दरवाजे के पास खड़ा एक लड़का उन्हें देखकर तेजी से अन्दर गया और अपने गुरु को उनके आने की खबर दी। तभी एक अधेड़ शख्स उस भवन से निकला और उनके पास आकर उनका स्वागत किया। 

वे कार से उत्तर चुके थे। तभी गुरु जी ने उस शिष्य से कहा की इनका सामान अतिथि भवन में रखवा देना। और उन्हें अपने साथ लेकर योग पीठ के मुख्य भवन में प्रवेश कर गया। तभी एक खास मूर्ति जो उसे जाना पहचाना लग रहा था उसकी ओर इशारा करते हुए परम ने पूछा " गुरुदेव ये किनकी मूर्ति है इनके चेहरे पर अजीब सा तेज है।" 

तो गुरुजी ने उत्तर दिया" ये गुरु वेदांत सरस्वती हैं उनकी मृत्यु आज से तीस वर्ष पहले हो गई थी।"

तभी एक और योग गुरु उनके पास आए। उनका परिचय देते हुए गुरु जी ने कहा" ये हमारे योग पीठ के मुख्य गुरु हरि भगत जी हैं।" सबने उन्हें प्रणाम किया।

"और आने में आपलोगों को कोई परेशानी तो नहीं हुई" गुरु हरि भगत ने पूछा।

"नहीं हुई गुरु जी"! लेकिन हमें यहां क्यों बुलाया गया है गुरुदेव" प्रोफेसर साहब ने पूछा।

"प्रोफेसर साहब ये गुरु राधे से पूछिए। इन्होंने ही आपलोगों को यहां बुलाने को कहा था क्योंकि कल हम अपना मुख्य गुरु की पदवी को त्याग कर इन्हें ही अपने योग पीठ का मुख्य गुरु घोषित करेंगे" गुरु हरि भगत जी ने कहा।

हरि भगत जी उनसे विदा लिए और अपने कक्ष की ओर चले गए।

"तो आप हमें कैसे जानते हैं गुरु देव" विश्वास ने पूछा।

"आपलोगों के इतने कारनामें सुने हैं की आपलोगों से मिले बिना नहीं रह सका।" ये कहकर गुरु राधे जी मुस्कुराने लगे। जैसे उन्हें सब पता है की किस काल खंड में क्या हुआ है। और क्या होने वाला है।  

                         


   


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