दुर्गमासुर वध
दुर्गमासुर वध
(देवी चरित्र)
भगवान श्री हरि ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया था, तथा पृथ्वी को सही स्थान पर स्थापित किया था, इस प्रकार सृष्टि कार्य में आया व्यवधान दूर हुआ था।
इसी हिरण्याक्ष के वंश में दैत्यराज रुरु हुआ। रुरु का पुत्र ‘दुर्गम’ हुआ। यह दुर्गमासुर नामक दैत्य त्रिलोकी (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) पर राज्य करना चाहता था। इसके लिए देवताओं को हराना बड़ी चुनौती थी।
दुर्गमासुर ने विचार किया कि देवताओं की शक्ति वेद मे निहित है (तब वेद की संख्या एक ही थी) ! यदि वेद नष्ट या लुप्त हो जाये, तब देवता स्वतः ही नष्ट हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त वेद विद्या के अभाव में ब्राह्मण कर्मच्युत हो जायेंगे। यज्ञ न होने से देवताओं को पुष्टिकरी हविष्यान्न की प्राप्ति नहीं होगी फलतः वे निर्बल हो जायेंगे, तब उन्हें जीतना कोई बड़ी बात नहीं होगी। अत: देवताओं को परास्त करने के लिए वेद का लुप्त होना आवश्यक है, तथा यह कार्य मुझे ही करना चाहिए !
ऐसा निश्चय कर वह दुर्गमासुर नामक दैत्य हिमालय पर्वत में गया और उपयुक्त स्थान पर आसन लगाकर ब्रम्हाजी का ध्यान करने लगा। उसने एक एक कर भूख-प्यास-निद्रा-श्वासोच्छवास (साँस लेना व छोड़ना) आदि शारीरिक आवेगों को जीत लिया और घोर तप करने लगा।
धीरे-धीरे उसके तप का तेज बढ़ता गया। उससे देव, दानव मनुष्य सभी दग्ध होने लगे।
अंततः दुर्गमासुर के कठोर तप से ब्रम्हदेव प्रसन्न हुए और उसके सम्मुख प्रकट हो गये। उन्होंने ध्यान मग्न दुर्गम से कहा :-- वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो ! जो तुम्हारे मन में है, वह अभीष्ट वर मुझसे मांग लो ! मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ !
ब्रम्हाजी की मधुर वाणी श्रवण कर दैत्य समाधि से जागा। पहले उसने यथाविधि उनका पूजन किया तत्पश्चात बोला – हे प्रभो ! हे सुरेश्वर !! हे चतुरानन ! यदि आप मुझ पर सत्य ही प्रसन्न हैं, तो आप वेद मुझे प्रदान करें ! हे प्रभो ! वेद ज्ञान तथा वेद विद्या मुझ तक ही सीमित रहे ! हे प्रभो ! आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मैं देव दानव तथा मनुष्यों पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकूँ !
ब्रम्हाजी ने एवमस्तु (ऐसा ही हो) कहा और अंतर्ध्यान हो गये।
ब्रम्हदेव द्वारा ऐसा ही हो, कहते ही ब्राह्मण वेद पाठ भूल गये। वेद विद्या तथा वेद विज्ञान का उन्हें स्मरण न रहा। वेद स्मरण न रहने पर स्नान ,संध्या, नित्य होम,यज्ञ, श्राद्ध, जप,तप आदि क्रियायें थम गयीं। धर्म लुप्त होने लगा और अधर्म उसका स्थान ग्रहण करने लगा।
एकाएक हुए परिवर्तन से ब्राह्मण आश्चर्य चकित थे, कि ऐसा क्या हो गया कि हमें वेद याद नहीं रहा। अब हम क्या और कैसे करें।
ब्रम्हाजी के वरदान से बड़ी विचित्र स्थिति निर्मित हो गई,। देवता यज्ञ की हवि से पुष्ट होते थे। जब यज्ञ होम हवन आदि होने बंद हुए,तब देवता निर्बल होने लगे। सदा यौवन का वरदान प्राप्त देवता जरा व्याधि से ग्रसित होने लगे।
ब्रम्हाजी के वर से शक्तिशाली हुआ वह दुर्गमासुर, दैत्यों- दानवों तथा राक्षसों की भारी सेना लेकर अमरावती पुरी पर आक्रमण किया। शारीरिक रुप से जर्जर हो चुके इंद्र आदि देवता दैत्य सेना का सामना करने में असमर्थ थी।
अत: वे युद्ध से पलायन कर गये तथा पहाड़ों की चोटियों, गुफाओं तथा कंदराओं छिपकर रहने लगे तथा भगवती जगदम्बा का ध्यान और चिन्तन करते हुए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
इधर वेद के लुप्त होते ही ब्राह्मण कर्म तथा धर्मच्युत हो गये। ब्राह्मणों के कर्मच्युत होने से अन्य वर्णों के लोगों में धर्म की महत्ता क्षीण हो गई। दैत्यों-दानवों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
राक्षसों की देखादेखी मनुष्य भी मदिरापान, मांसभक्षण, व्याभिचार, कपट,द्यूत, लूटपाट आदि दुर्वयसनों की ओर आसक्त होने लगे। निरीह पशु-पक्षियों की करुण चीत्कारों से दिशायें थर्रा उठी।
अन्याय, अनीति, अधर्माचरण के बढ़ने तथा धार्मिक क्रियाओं यज्ञ, जप, जप, होम हवन आदि के अवरुद्ध होने से प्रकृति की व्यवस्था गड़बड़ा गई। खेतों में अन्न कम उगने लगे, पेड़-पौधों में पुष्प, फल आदि लगने कम हो गये, गौओं ने दूध देना कम कर दिया,। अल्पवृष्टि होने लगी।
धीरे-धीरे स्थिति और भी खराब होती गयी। वर्षों तक सूखे की स्थिति रही। नदी तालाब, कुएँ तथा बावड़ियां सूख गयी। समुद्र सूखने के कगार पर आ गये।
जो थोड़े से ब्राह्मण आदि सज्जन मनुष्य थे। वे घबरा उठे। इस स्थिति से उन्हें कौन बचा सकता है ? उन्होंने सुना और पढ़ा था, कि पूर्व काल में स्वयं जगदम्बा ने महिषासुर ,शुंभ,निशुंभ, रक्त बीज,चंड-मुंड आदि दैत्यों के उत्पात तथा अत्याचारों से देवताओं तथा मनुष्यों की रक्षा की थी। इस विपत्ति के समय भक्त वत्सला करुणामयी माता ही हमारी रक्षा कर सकती हैं। हमें जगदम्बे की शरण में जाना चाहिए।
ऐसा निश्चय कर ब्राह्मण पहाड़ों में गये तथा अत्यंत दीन भाव से जगन्माता को पुकारने लगे। जैसे शिशु रुदन करता हुआ अपनी माँ को पुकारता है। वैसे ही दैत्यों के अत्याचारों तथा भूख-प्यास से पीड़ित मनुष्य भगवती जगदम्बा को पुकारने लगे।
माहेश्वरी तथा भुवनेश्वरी नाम से प्रसिद्ध भगवती पार्वती ब्राह्मणों के सम्मुख प्रकट हो गईं। भगवती का दिव्य तेज इतना था कि करोडों सूर्य का प्रकाश फीका पड़ जाये। देवी का श्रीविग्रह अनंत नेत्रों से विभूषित था। जगदम्बा का श्रीविग्रह कज्जल पर्वत के समान तथा उनके दोनों नेत्र नीलकमल के समान था। उनके हाथों में धनुष-बाण,कमल-पुष्प, पल्लव तथा मूल विद्यमान थे।
भूख, प्यास तथा बुढ़ापे को दूर रखने में समर्थ शाक ,मूल आदि उन्होंने धारण किया हुआ था।
भगवती का श्रीविग्रह करुण रस से पूर्ण था। अपने भक्तों तथा जगत की दुर्दशा देखकर जगदम्बा के नेत्रों से अश्रु जलधारा के रुप में नि:सृत होने लगी। सहस्त्रों नेत्रों से सहस्त्रों जलधाराएँ गिरने लगी। पूरे नौ दिनों तक जलवृष्टि होती रही जिससे चराचर तृप्त हो गया।
समुद्र तथा नदी का जलस्तर बढ़ गया।
अब तक जो देवता इधर-उधर छिपे हुए थे, वे भी बाहर आ गये। देवता तथा ब्राह्मण मिलकर देवी की स्तुति करने लगे ---
हे ब्रम्हस्वरुपिणी देवी ! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप ही अपनी माया से जगत को धारण करती हैं। आप अपने भक्तों की रक्षा तथा कल्याण हेतु दिव्य स्वरूप धारण करती हैं। हे माता ! आप कल्पवृक्ष के समान कल्याणकारी है। हे माता ! आपकी जय हो ! आपने हमारा संकट दूर करने हेतु सहस्त्रों नेत्रों से युक्त अनुपम तथा अद्वितीय विग्रह धारण किया है। इसलिए अब आप ‘शताक्षी’ इस नाम विराजने तथा भक्तों का कल्याण करने की कृपा करें।
हे माता ! हम सब इस समय भूख प्यास से अत्यंत पीड़ित हैं,। हे जगदम्बा ! हम आपकी क्या विशेष स्तुति करें। आपका न आदि है और न ही अंत है, हम आपकी स्तुति करने में असमर्थ हो रहे हैं। आप दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से हमारी रक्षा करें तथा वेद का उद्धार करके धर्म की पुनर्स्थापना कीजिए। हे माता हम आपकी शरण में हैं। त्राहिमाम् जगदम्बे पाहिमाम् पाहिमाम्।
ब्राम्हणों तथा देवताओं की दीन वाणी सुनकर देवी अत्यंत प्रसन्न हुई,तथा उन्हें खाने के लिए शाक, फल दी। इतना ही नहीं उन्होंने भाँति-भाँति के अन्नों को प्रकट किया। पशुओं के लिए कोमल तथा सरस तृण आदि उत्पन्न किया।
इसी समय से भगवती का एक नाम ‘शाकम्भरी’ हुआ।
उधर दुर्गम ने दूतों के माध्यम से यह सारा वृत्तांत सुना ,तब वह अत्यंत क्रोधित हुआ तथा एक अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध के लिए चल पड़ा। वह ब्राम्हणों तथा देवताओं को सजा देना चाहता था।
दुर्गमासुर को सेना सहित आते देखकर देवताओं तथा ब्राह्मणों में भय व्याप्त हो गया। वे रक्षा करो ! रक्षा करो माता ! त्राहिमाम् ! त्राहिमाम् !! करने लगे।
उन्हें भयभीत देखकर जगदम्बा ने चक्र को आदेश दिया कि वह देवताओं तथा ब्राह्मणों की रक्षा करे ! चक्र ने उन्हें तत्काल अपनी सुरक्षा में ले लिया। वह उनके चारों ओर घूमने लगा।
देवी तथा दुर्गमासुर की सेना के बीच भयानक युद्ध होने लगा। बाणों की वर्षा से सूर्यमंडल आच्छादित हो गया। देवी की धनुष की टंकारों से दिशायें गूँजने लगी। कुछ समय के लिए सर्वत्र बहरापन छा गया।
देवी के श्रीविग्रह से बहुत सी शक्तियाँ प्रकट हुईं। कालिका ,बाला ,तारिणी, भैरवी, मातंगी, त्रिपुरा, कामाक्षी, जम्भिनी, मोहनी आदि बत्तीस शक्तियाँ प्रकट हुई। इसके पश्चात चौंसठ शक्तियाँ प्रकट हुई। इसके अनन्तर अनेक शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। ये शक्तियाँ नाना प्रकार के आयुधों से सुसज्जित थी। युद्ध स्थल में शंख, मृदंग आदि वाद्य बजने लगे।
दस दिनों तक घोर युद्ध हुआ। दैत्य सेना विनाश को प्राप्त हुई। ग्यारहवें दिन दुर्गम ने स्वयं युद्ध करने का निश्चय किया। उसने लाल वस्त्र धारण किया, लाल चंदन से अपने देह को सजाया, फिर गले में लाल रंग का माला धारण किया। युद्ध के लिए प्रस्थान करने से पूर्व बहुत उत्सव मनाया। तब अपने रथ पर आरुढ़ होकर युद्ध भूमि को प्रस्थान किया।
उसने, समस्त शक्तियों पर विजय प्राप्त कर ली और अपना रथ जगदम्बा के सम्मुख ले गया। दोपहर तक दुर्गम तथा देवी के मध्य भयंकर युद्ध हुआ। तदनन्तर अत्यंत क्रोधित होकर जगदम्बा ने दुर्गम की ओर पंद्रह बाण छोड़ा। इनमें से एक ने उसके रथ की ध्वजा को, काट डाला। चार बाणों से उसके रथ के चारों घोडे धराशायी हो गये। एक बाण से उसका सारथी मारा गया। दो बाणों ने दैत्य के नेत्रों को बींध डाला, दो बाणों से उसकी दोनों भुजाएं कटकर गिर गयी तथा पाँच बाण उस दुर्गम की छाती में घुस गये। वह दैत्य मुख से रक्त वमन करता हुआ प्राणविहीन होकर जगदम्बा के सामने भूमि पर आ गिरा।
दैत्य के शरीर से एक तेज निकला जो देवी के श्रीविग्रह में समा गया। दैत्य दुर्गम के मरते ही त्रिलोकी में हर्ष व्याप्त हो गया। देवताओं ने ब्रम्हा, विष्णु तथा शिवजी को अपना अगुवा बनाया तथा देवी की स्तुति करने लगे। देवता, ब्राह्मण बोले –
हे जगत का कल्याण करने वाली परमेश्वरी ! हे शाकम्भरी !! हे शतलोचने !! आपको नमस्कार है। । हे देवी ! आप सम्पूर्ण उपनिषदों के द्वारा प्रशंसित हैं। आपने दुर्गम दैत्य का संहार करके त्रिलोकी का उपकार किया है। हे देवी ! आपको नमस्कार है। मुनिगण शांतचित्त होकर जिनका ध्यान करते हैं,हम उन भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करते हैं। हे देवी आपसे ही यह अनंतकोटि ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ है। आपने ही ब्रम्हा, विष्णु आदि देवताओं को प्रकट किया है। हे शताक्षी ! आपकी जय हो ! आपके सिवाय ब्रह्मांड में ऐसा कौन है, जिसे दुखी जनों को देखकर इतनी रुलाई आती हो। हे दयामयी ! हे करुणामयी ! हे वात्सल्यमयी माता ! आपकी जय हो !
ब्रम्हादि देवताओं तथा ब्राम्हणों की स्तुति से भगवती जगदम्बा अत्यंत प्रसन्न हुई। उन्होंने वेद तथा वेद विद्या पुनः देवताओं को प्रदान किया।
देवी ने ब्राम्हणों से कहा -हे ब्राम्हणों ! यह वेदवाणी मेरे ही शरीर से उत्पन्न हुई है, अत: हर प्रकार से इसकी रक्षा होनी चाहिए ! तुम लोगों का यह कर्त्तव्य है कि तुम लोग मेरी पूजा में संलग्न रहो ! इसी से तुम्हारा कल्याण होगा। मेरी महिमा का निरंतर गान करते रहना, इससे तुम्हारे सारे कष्ट दूर होंगे।
मेरे द्वारा दुर्गम का वध हुआ है अत:मेरा एक नाम ‘दुर्गा’ है। मैं ही शताक्षी हूँ, मैं ही शाकम्भरी हूँ तथा मैं ही दुर्गा हूँ। जो भी व्यक्ति मेरे इन नामों का श्रद्धा पूर्वक स्मरण तथा उच्चारण करेगा, वह अंत में मेरे लोक में स्थान प्राप्त करेगा। अब तुम लोग अपने-अपने स्थानों को प्रस्थान करो तथा धर्मयुक्त आचरण करो ! वेदों को प्रतिष्ठित करो !
ऐसा कहकर भगवती दुर्गा अंतर्ध्यान हो गई।
ऊँ दुं दुर्गायै नम: !
