दो मीठे बोल
दो मीठे बोल


शांता जी की परछाई थी ,रज़िया।ब्याह कर जब पैंतिस साल पहले ,सुदामा सदन में आई थी तबसे ;सभी के ज़ुबान पर सुबह से शाम तक रज़िया रज़िया..ही सुनती आई थी।सासु माँ को तो सभी चिढ़ाते “अम्मा की चहेती ...”घर के हर व्यक्ति की चहेती थी-रज़िया।क्यों न हो दिलो-जान से सेवा -भाव
कर्मठ,हंसमुख,ईमानदार ,अपनापन से सराबोर।बोली में मिठास इतनी की मानो शक्कर घुले हों।रतन बेटे की शादी के समय बहुत ख़ुश थी।फ़रमान जारी कर दिया था ‘अब मैं कुछ दिनों की छुट्टी लेकर मक्का हो आऊँगी ,”शांता बीबी।”
भरी दुपहरी रतन की पत्नी के कड़वे बोल बरछी की तरह सन्नाटे को चीरते हुए सभी के कमरें केदिवारों को हिला रहे थे।”जाहिल औरत ...।”ससुर जी ,पहली बार ढयोड़ी लांघते रज़िया के सामने सोनिया को कठघरे में खड़ा किया।
सोनिया ने भी रज़िया को रोज़ी कहकर गले से लगाते हुए ;एक नया नाम देकर घर के अंदर लेआयी।झर झर बहते आँसू पोंछते हुए रज़िया ने कहा “दो मीठे बोल” की भूखी हूँ ,बिटिया।मुझे औरकुछ नहीं चाहिए।