धरती पुत्र
धरती पुत्र


"साहब कोनो काम हो तो कहो हम कर देंगे।" एक अधेड़ सा व्यक्ति राजेन्द्र जी से कह रहा था । वेशभूषा से वो मजदूर नहीं लग रहा था। लेकिन बहुत अमीर भी नहीं लग रहा था। किसान जैसा दिख रहा था।
राजेंद्र जी-"कौन सा काम करोगे ?"
"कोनो। जैसे बाग बगीचे की साफ-सफाई।"
"वैसे तो माली सब कर जाता है, किन्तु पीछे पेड़ों के नीचे कुछ जंगल सा हो रहा है। क्या तुम से हो जाएगा ?" राजेंद्र जी उसकी उम्र और वेषभूषा को देखते हुए शंका जताते हुए पूछा।
"हाँ ..हाँ .साहब सब हो जागा।"
"कितना लोगे ?"
"पूरे दिन की मजूरी दे देना साहब। बहुत अच्छे से साफ कर दूंगा।"
"ठीक है।" कहकर उसे कुदाल और खुरपी देते हुए राजेंद्र जी ने पूछा- "तुम कहाँ रहते हो ?"
अधेड़-"हम तो साहब यहाँ से 40किलोमीटर दूर गांव में रहत छूं।"
"वहां घर है ?"
"साहब गाँव में खेती है म्हारे। बहुत जमीन छे। ट्रेक्टर छे। ट्रैक्टर सं खेत जोतबा छूं। अबार महारे खेत में सोयाबीन का पौधा लहलहाई रहल छे।" अधेड़ के चेहरे पर हरियाली साफ-साफ झलक रही थी।
"जब इतना कुछ है तो फ
िर यहाँ काम क्यों ?" राजेंद्र जी कुछ अचंभित होके पूछे।
"अब का बताएं साहब!!!..... काश्तकार सब भूखो मरे छे। बीज बोवा खातिर कर्ज लेनो पड़ै छे।"
"अच्छा-अच्छा..... ऐसा क्यों ?" राजेंद्र बाबू सवालिया नजरों से उसे देखते हुए बोले। वैसे तो आये दिन किसानों की आत्महत्या के बारे समाचार पत्र और टीवी में देखने को मिलता रहता है। आज साक्षात्कार हो गया तो जिज्ञासा बढ गई।
"उपज बहुत कम कीमत में बिके छे। पूरा साल ऊ से घरखर्च कैसे चलोगो ?" उसने ही सवाल पूछ लिया।
".........."
"एही से लोगबाग सूद पर पैसा उधार ले लेत छे। हम कर्जा ना लेई छूं।"
"अच्छा ........"
"साहब हम जमीन से जुड़ल लोग छूं। अबार सोयाबीन पकवा में देर छे। बैठ के का करब ? हाथ पैर चलात रहे के चाहे और कोनो काम करवा में शरम काहे। कछु दिन बाद अपना खेत से फुरसत नाही। फुरसत में इधर-उधर कछु कमा ले छूं। जे से घर चलबा में आसानी हो जावा छो।" अधेड़ कुदाल उठाते हुए कहा।
"अच्छा ! आप चलिये अभी चाय बनवाकर भिजवाते हैं।" राजेन्द्र जी को वो मजदूर नहीं धरती पुत्र लग रहा था।