रिंगटोन
रिंगटोन
आज श्रुति मन कहीं लग नहीं रहा था। वह पार्क में बैठने के लिए चली आई। आकर एक बेंच पर बैठ गई और सामने बच्चे खेल रहे थे, कुछ बुजुर्ग धीरे-धीरे टहल रहे थे, कुछ युगल घास पर बैठे बतिया रहे थे।
बैठे-बैठे कुछ दिन पहले की बातें श्रुति के मन में चलने लगा 'अवि को कितने प्यार से समझाई थी कि देखो काम अपनी जगह और रिश्ते अपनी जगह काम के लिए रिश्ते को भूला नहीं जाता। लेकिन मेरी बातों का उस पर कोई असर ही नहीं होता। दो दिन से न तो फोन करता है और न ही कोई मैसेज। मैं फोन करती हूँ तो नोट रिचेबल आता है। अब क्या करूँ , कैसे समझाऊँ उसे कि वह बहुत-बहुत दिनों के लिए जब बाहर जाता है तो मुझे अकेले मन तो नहीं ही लगता है , बल्कि बात नहीं होने से चिंता भी होने लगती है। जाने कैसे-कैसे ख्याल आने लगते हैं। कहीं मुझे झूठ तो नहीं कहता। मेरे अलावा कहीं कोई और भी तो नहीं उसकी जिंदगी में ?'
"ना बाबा ना .. " सहसा उसके मुंह से निकला और एकदम से सिहर सी गई वह।
तभी उसका मोबाइल बज उठा। रिंगटोन से ही समझ गई अवि का ही फोन है। ये रिंगटोन अवि ने ही मेरे मोबाइल में सेट कर दिया था। 'क्या मालूम यहाँ से दूर रहने की उसकी मजबूरी मेरे लिए भी क्या सोच रहा हो।'
आंखें पनीली हो गई और बुदबुदाई 'धत् मैं भी ना जाने क्या क्या सोचने लगी थी। पर भूला नहीं है वो..' इधर मोबाइल में रिंगटोन बज रहा था "भुला नहीं देना जी, भुला नहीं देना, जमाना खराब है ... "