जकड़न
जकड़न
"लिखती ही रहोगी या कुछ और भी करना है ?" ये आवाज आते ही मैं घड़ी देखी तो सुबह के 8 बजने वाला है।
मैं बुदबुदाते हुए--"ओह ! शांति से एक लघुकथा भी पूरी नहीं करने देता है ये काम। अभी लिखना छोड़ कर चली गयी तो फिर जो प्रवाह में अभी है वो खो न जाए।"
और मैं लिखने लगी।
"चलो भई ! अब सुबह के साढ़े आठ बज चुके हैं। नाश्ता नहीं बनाना है ?"
मैं "हाँ, हाँ " में सिर हिलाते हुए इधर-उधर बिना देखे अपनी कथा को पूर्ण करने में ऐसे जुटी हुई थी जैसे मन भटकते ही सब्जी में नमक की तरह कुछ महत्वपूर्ण बातें न भूल जाऊं।
"हद हो गई ! अब नौ बजने को है। कामवाली भी नहीं आती है। कब करोगी काम ?"
और मुझे बाजुओं से खींच कर उसने रसोई में खड़ा कर दिया।
मैंने देखा रसोई में चारों तरफ काम बिखरा पड़ा है। मन ही मन सोची 'हाँ ये काम मुझे ही करना होगा। कब करूंगी ?' मैं खींच कर यहाँ लाने वाले की ओर मुखातिब होने के लिए मुड़ी तो कोई नहीं था। मैं समझ गयी यहाँ लाने वाला और कोई नहीं मेरा अवचेतन मन है। वही मुझे जकड़ रखा है।
मैं उसपर बिफर पड़ी "क्या लिखना मेरा काम नहीं ? पंच लाइन तो लिख लेने देते।"