छोटे कदम
छोटे कदम
"रवि! तैयार हो गए क्या ? चलो दुकान खोलने का समय हो रहा है । जल्दी करो ।" बनवारी जी पैर जूता में डालते हुए कह रहे थे ।
-"......." कोई आवाज नहीं ।
बनवारी जी के दो पुत्र हैं । एक गांव के ही सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं । दूसरा पुत्र किसी तरह बी.ए. कर चुका है और वह चाहता है कि शहर में बड़ी दुकान खोले । जबकि बनवारी जी चाहते हैं कि कुछ दिन उनके साथ दुकान पर बैठे और दुकानदारी के तौर-तरीके पहले सीख ले । किन्तु रवि को गांव के इस दुकान पर बैठना भी अपमानजनक लगता था ।
आंगन में बैठी आनंदी देवी ( बनवारी जी की पत्नी ) अपने दस महीने के पोते को चलाने की कोशिश कर रही थी । बच्चा खटिया पकड़-पकड़ कर चलने लगा ।
"दादी माँ! देखिए बाबू कितना छोटा-छोटा कदम बढ़ा रहा है ।" वहीं खेलती हुई छः वर्ष की उनकी पोती बोली ।
"अरे हाँ रे गुड़िया ! बड़े-बड़े कदम बढ़ाने के लिए इसी तरह पहले छोटे-छोटे कदम उठाने पड़ते हैं ।" आनंदी देवी रवि की तरफ देखते हुए बोली ।
रवि जो मुंह लटकाये हुए कुर्सी पर बैठा था । ये सुनकर, बही-खाते का थैला उठाकर बनवारी जी के पीछे-पीछे चल दिया ।