Vigyan Prakash

Romance Tragedy

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Vigyan Prakash

Romance Tragedy

देवता ...♡

देवता ...♡

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रास्ते में मन बहलाने को किताब ले ली, सुधा और चन्दर, आज पन्द्रह साल बाद भी वैसे ही थे। ये रेल की पटरियों जैसे...

साथ पर जुदा!

खैर पहले पन्ने को पलटते ही जैसे अन्तर्मन को किन्ही सपनों में खिंच लिया गया।

कैसा होता है देवता बन जाना... जैसे चन्दर सुधा का देवता था।

कुछ ऐसे ही मैं भी देवता बन गया था। पर देवताओं को पूजा जाता है उनसे प्रेम नहीं किया जाता! मैं देवता होना नहीं चाहता था, पर कई बार जीवन इतना अप्रासंगिक हो जाता है की सब बस हो जाता है ...

मैं भी बस देवता हो गया था! और मुझे पूजने वाली मनुष्य रह गई। भावनाएँ सबके लिए एक सी नहीं होती।

मनुष्य की भावनाएँ उसे ढक लेती हैं, फिर उसके निर्णय उन भावनाओं से आच्छादित हो जाते हैं! किताब के कुछ पन्नों ने ही मुझे किस्से में ढकेल दिया।

पन्द्रह साल पहले जब पहली बार धर्मवीर भारती को पढ़ा था तभी उससे मुलाकात हुई जिसने मुझे देवता बनाया। आंख बंद करने पर कई बार सब स्पष्ट दिखने लगता है, मुझे वो दिख रही थी।

वो तस्वीर जो शायद सालों पहले धुंधली हो गई थी आज जाने क्यों तेज होती ट्रेन के साथ आती हवा से साफ होती गई! दो चोटी, सफेद सूट, लाल बिन्दी और हाथ में तॉलस्तॉय की युद्ध और शांति लिए जब मैंने उसे देखा तो बस रुक सा गया।

उंगलियों पे छलक गई गर्म चाय ने भी मेरी एकटक आंखों को नहीं रोका और मैं बस देखता ही रह गया...किसी अनुवादित रुसी कविता सी

ओ लड़की...

तुम बहुत खूबसूरत हो...

अगर प्रेम होगा

अप्सराओं के खेलने की जगह

कहीं छुपा,

वो तुम्हें देखते

मुझ तक आ जायेगा! हफ्तों की दौड़ के बाद उसका नाम पता चला... अप्राजिता!

कई बार ऐसा लगता है की कुछ चीजें किसी दैवीय किताब के पन्ने से उठा हूबहू दोहराई जा रही हैं।

उसका मिलना कुछ ऐसा ही था...महीने भर आगे पीछे चक्कर के बाद उसी चाय की टपरी पे वो हमारे साथ चाय पी रही थी।


उस शाम हमने उसे गुनाहों का देवता दी थी!

हमें लगा बस प्रेम के परवान चढ़ते अब समय नहीं लगेगी पर...पर हमें तो देवता होना था...


चाय की टपरी पे प्यार जाहिर करने वाले लड़के अक्सर उस लड़की की शादी के कार्ड बाँटते देखे जाते थे हमारे जमाने में.

शुक्र है हमें ये सौभाग्य ना मिला। हम तो देवता होने वाले थे सो हो गये...

किसी ने उस किताब के पन्ने पर शायद स्याही गिरा दी और बस सब...


हम दूर हो गये... बहुत दूर...

इतने की शायद फिर शक्ल-सूरत ना देखने मिले मगर उसकी वो युद्ध और शांति है हमारे पास...नम आंखों ने किताब के आखिरी पन्ने को भिगो ही दिया था की स्टेशन आ गया!


"भैया जरा मदद कीजियेगा। मुझे उस व्हील चेयर पे बैठा दीजिए ..."


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