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Vigyan Prakash

Abstract

4.2  

Vigyan Prakash

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जब मौत आये...

जब मौत आये...

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मैं चाहता हूँ जब मौत आये अचानक न आये, मुझे थोड़ा थोड़ा आभास हो कि वो आ रही है। अनायास नहीं, एकबारगी नहीं, जैसे नींद आती है धीरे धीरे वैसे! पता होता है नींद आ रही है पर एक अलग सुख होता है। जब धीमे धीमे मृत्यु मेरी ओर बढ़ रही होगी मैं खुश होउँगा!

सुना है मरने के पहले सारी जिन्दगी किसी शार्ट फिल्म कि तरह आँखों के सामने घूम जाती है, मैं चाहता हूँ मैं इसे इतने कम वक़्त में ना देखूँ। मैं पूरी जिन्दगी आराम से देखना चाहता हूँ, सब घटते हुए, सुखों को थोड़ा फास्ट फॉरवर्ड किया जा सकता है पर दुख मुझे स्लो मोशन में देखने है!

मैं अपनी गलतियाँ देखना चाहता हूँ, अपने डर देखना चाहता हूँ। मैं छत के कोनो पे खड़े होने से डरता हूँ मैं खुद को वही देखना चाहता हूँ अपने सबसे आखिरी पल में! मैं चाहता हूँ जब मैं अन्तिम साँस लू मैं उस कोने से गिर जाऊँ और जमीन छूने के ठीक पहले मुझे गोद में उठा लिया जाये!

मैं हवा के उन थपेड़ों को साँसों में ही महसूस कर लेना चाहता हूँ। जब मैं मर जाऊँ मेरी अस्थियाँ मेरी गाँव के उस बागान में बिखेरी जाये जहाँ मेरे दादा दादी को मैंने मिट्टी में मिलते देखा है! कुछ राख उस पावन गंगा में जो शायद अपने स्नेह से ही मेरे कुछ पाप धो दे।

और एक हिस्सा उन ऊँची पहाड़ियों में ले जाया जाए जिनकी शांती मुझे हमेशा से खींचती रही है। उन पहाड़ियों पे उगे अशोक, बर्फ से लदे युकेलीप्ट्स के बीच कही मुझे थोड़ा थोड़ा कर बिखेर दिया जाये! और थोड़ा दबा दिया जाये उस बर्फ की चादर के नीचे जो बरसों से मेरे दिल की तरह ठंडी है!


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