दादी का संकल्प
दादी का संकल्प
शाम के समय छत पर बैठकर दादी हमें ज्ञानवर्धक कहानियाँ सुनाया करती थी।
एक बार की बात है कि हमारे चाचा जी की तबीयत बहुत खराब हो गई। उस समय अंग्रेजी पद्धति के उपचार इतने सहज नहीं थे ,परंतु वह देश में प्रयोग किए जा रहे थे। अंग्रेजी पद्धति के डॉक्टर ने जांच कर बताया कि उन्हें कालाजार हो गया है। बहुत सारी दवाइयों के प्रयोग करने के पश्चात भी यह बीमारी ठीक नहीं हो पाई और वह मरणासन्न स्थिति तक पहुंच गए।
उनकी बीमारी की खबर सुनकर बड़े बूढ़े देखने आने लगे उन्हीं में से किसी ने बताया कि प्राचीन मंदिर के पंडित जी के पास इस बीमारी का उपचार है।
अतः देर न करते हुए मेरी दादी की वहां पहुंच गई और पंडित जी से गुहार लगाई कि वह इस बीमारी के उपाय बताएं।
चुकी पंडित जी स्वयं अस्वस्थ थे और अचेत अवस्था में सिर्फ देखते रहते थे ,इसलिए यह असंभव लग रहा था। परंतु दादी जी ने हार नहीं मानी और वह वहीं डटकर उनके सामने आसन लगा बैठे गई। जब तक आप या भगवान मुझे उपचार नहीं बताएंगे तब तक मैं यहां से नहीं हटुँगी। रात होने को आ गई मंदिर परिसर से पंडित जी को अंदर ले जाने की का समय भी आ गया।
सभी मंदिर अधिकारी दादी जी से आग्रह करने लगे कि वह घर जाएं पंडित की कुछ भी बोलने
असमर्थ है।
तभी पंडित जी ने हाथ हिला के इशारे से मंदिर में से एक ग्रंथ मंगवाया और ग्रंथ के पन्नों को पलटा जो पन्ना खुला उसके अंदर पीपल के हरी हरी पत्तियों के झुरमुट वाले सुंदर चित्र दर्शनीय हो रहा था।
सभी की आंखें ठिठक गयी। तभी पंडित जी के पुत्र ने पढ़कर बताया कि इन पत्तियों को पीसकर लेप लगाने से वह गर्म पानी में उबालकर काढ़ा बना दिन में 5 बार थोड़ा-थोड़ा पिलाने से यह बिमारी ठीक हो जाएगी।
दादी जी पंडित जी के चरण छुए और भगवान को नमन किया और घर आ गई दूसरे ही दिन सारी व्यवस्था कर उपचार चालू हो गया और शीघ्र अति शीघ्र चाचा जी ठीक हो गए आज दादी जी का यह संस्मरण याद आ गया। सचमुच हमारा प्राचीन ज्ञान व वृक्षों की महत्ता अतुलनीय है।