manisha sahay

Fantasy Thriller

4.8  

manisha sahay

Fantasy Thriller

काल की सीढ़ियाँ

काल की सीढ़ियाँ

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बड़ी सी दिवार, उँचे किलेनुमा मकान, छोटी छोटी मोखलेनुमा खिड़कीयाँ, सिर्फ आँख और नाक का हिस्सा ही समा सके, दिवारो के बाहर देखने की इजाज़त नहीं, गोल घुमावदार सीढीयाँ जो पता नहीं कहाँ जा कर खत्म हो।


मै उन सिढीयो को चढती जा रही हुँ, उपर नीला आसमाँ, हर तरफ औरतें मुँह पर कपड़ा ढके कुछ काम में लगी है, कुछ खड़े होकर भी काम कर रही है, कुछ आ जा रही हैं....


मैने बहुत बात करने की कोशीश की पर मानो उनके लिये मैं हुँ ही नहीं... बैचैनी और बढ़ती जा रही थी, मेरी साँसे तेज और तेज होती जा रही थी.... मैं और तेजी से सिढ़ीयाँ चढ़ने लगती हुँ, बेतहाशा, बदहवास भागती हुँ कहीं कोई तो हो जो मेरी मौजूदगी को देखे, मुझे रास्ता दिखाए....


अंततः लगता है... मैं उपर तक पहुँच गयी, पर जैसे ही नीचे देखने का प्रयास किया, मानों किसी अंजानी ताकत ने मुझे अपने दोनो हाथों में जकड़ लिया, मैं छटपटाने लगी, तड़पने लगी, पूरी ताकत व इच्छाशक्ति से उस अंजान पंजों से खुद को छुड़ाने के प्रयत्न में लग गई... मुझमें जितनी भी शक्ति व साहस था... सब मैने एक लम्बी साँस भर कर झोक कर... उस जकड़न, बंधन से आजाद होने के प्रयत्न में जोर से हुंकार भर, जोर से अट्टहास किया, मानो जैसे मेरे अंदर दिव्य दुर्गा की शक्ति हुंकारने लगती है, मेरे हाथो के पंजे रूप बदल कर सिंह के पंजोनुमा हो गये है, जो स्वयं को छुड़ाने के प्रयत्न में विकराल रूप में से घात कर स्वयं को मुक्त करने में सफल रहतें है....


वह अंजानी ताकत मुझे पूरे वेग से ब्रह्मांड में उछाल देती है.... मैं तेजी से अनंत में विलीन होती हुई, नीचे गिरने लगती हुँ..... मैं लगातार गिरती जा रही हुँ... गिरती जा रहीं हुँ.... पता नही किन रेखाओं, प्रकाश बिंम्बों से गुजरती हुई.... सतह की तलाश में मैं बड़ी तेजी के साथ नीचे आने लगती हुँ.... परंतु, इतने घोर अंध:कार के बीच में प्रकाश बिंब का रह रहकर चमकना, मेरे साॅंस को निःस्वास करने लगते है, शरीर बूरी तरह काँपने लगता है, पूरा शरीर पसीने से तर बतर होने लगता है...


तभी 12 बजे की घड़ी का घंटा कानों में तेजी से गूँजता है..... और मैं उठ कर बैठ जाती हुँ.... ओह माई गॉड....ये क्या था ??? क्या किसी बीती हुई घटना का दृश्य या आने वाली दुर्घटना का संकेत या पुनर्जन्म का परिदृश्य या एलियनद्वारा मेरा अपहरण..... उठ कर अपने पसीने को पोंछते हुए मैं खुद को दिलासा देती हुँ.... यह एक बुरा सपना ही था।


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