चन्द्रमा को चिठ्ठी
चन्द्रमा को चिठ्ठी
सप्तपर्णी के श्वेत पुष्प बयारों के वेग से विवश होकर आत्मा की तरह सुगंध बनकर विलीन हो जाएं, तब हमारे यहाँ कार्तिक मास का आरम्भ होता है। मुझे शरद पूर्णिमा के बाद केवल उस क्षण की ही प्रतीक्षा होती जब यह सुगंध रात रानी की तरह किवार और झरोखों को टाप कर मेरे घर प्रवेश में करती है। यह ही तर्पण है। यह मौसम मुझे ज्वर देता है और यह सुगंध मुझे शांति।
फिर अग्नि की लपटों से निखरकर चाँद उग्र होता है। चन्द्रमा का यह आनन् कितना मोहक है। तन्द्रा सा धूमिल और आचमन सा शीतल। इसकी रश्मि में स्नान कर मेरा ज्वर स्वयं ही हर जाता है। यह चन्द्रमा श्याम के माथे का तिलक है। प्रभु आपने ही मेरे सब गुणों अवगुणो को देखा है, और आपने ही इनको संजोया है। चंद्र तुम पत्र हो जो मेरे भावी प्रेमी ने भेजा होगा, तभी तुम्हारा आनन इतना सुकून देह है। जिस दिन मुझे उनका दीदार होगा तो उनकी कांटी से ही मुझे उनका अनुमान होगा, उनकी द्युति आप ही की तरह अभय और अखंड होगी। करती अभिलाषा मन की लोह प्रभु आज तुम्ही से, जल्द ही उनसे भी यूँ साक्षात्कार हो। किसी बढे दिन नदी किनारे ज्वार पर मैं, तुम और वोह होंगे।

