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ViSe 🌈

Tragedy

3  

ViSe 🌈

Tragedy

माघ सा बचपन

माघ सा बचपन

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ज़मीन का सीना कितना विशाल है , कितना कुछ दफन है इसमें। ज़मीन ही सत्य है और ज़मीन से ही हम उठना चाहते हैं। आसमान तो एक मिथ्या है और उसी को हम छूना चाहते हैं। परम मैं तो सूरज को चूमना है, शुक्र के सीने पर पैर रखकर चाँद को अपनी माला में जड़ना है। शनि की अंगूठी को पहनना है और धरती को अपने माथे पर सजाकर बुद्ध को अपने हृदय में उतार लेना है। संसार और समय के खेल में कभी इधर तो कभी उधर, मैं चंचल अग्नि की तरह खेलना चाहती हूँ।

 पर ज़मीन मुझे उठने नहीं देती। ज़मीन की ज़ंजीर ने मेरे क़दमों को जकड़ा हुआ है। ज़मीन जिसपर खूबसूरत फूल खिले हैं और ज़मीन जिसपर मेरे सपने सजे हैं। यह विडंबना ही मुझे बेचैन करती है। ज़मीन मोह की सरलतम व्याख्या है। सभी सपने इससे उठकर पूरे होंगे इस बात का आभास होते हुए भी इसकी छोह मन से छटती ही नहीं। ज़मीन ही में मैंने गढ़ें है सब राज़ जो किसी सर्प की तरह मेरे सीने पर लोटते हैं। 

ज़मीन ही में हैं मेरे पूर्वज और यही से उनकी आवाज़ें आतीं हैं। ज़मीन ही में मैंने बोए हैं बीज उम्मीद के और यही पर सर बिछाया है भीषण ग्रीष्म में। ज़मीन का सीना ठंडा है और ज़मीन का आनन् अटल है। जाती शिशिर ऋतू में यह ज़मीन का वेश सुनेहरा हो गया है। पत्ते ही पत्ते इसकी असीम नग्नता को ढके हुए हैं। इसपर चलती हूँ तो स्मृत्यों का रिंगन सुनाई देता है। चूर-चूर रिश्तों की सरसराहट और अतृप्त आत्माओं सा रुदन वृक्षों से टकराती बयारों का सुनाई देता है।

 नदी का मस्तक कल तक हरा था और आज अचानक नीला हो आया है। इस पर फिलहाल प्रतिबिम्ब नहीं है क्यूंकि हवा और पत्तों से यह अक्षुण्ण नहीं है। इसका मुख ताज़ी धुप से गर्म है पर इसका दिल ठंडा है। इसमें जितना हाथ डालूं उतना ही यह धड़कता है , इसमें अब मछलियों का आगमन हुआ है। यह सारा आलम सजग हो आया है। मानो माया और प्रकृति मिलकर नृत्य कर रही हैं।

 सबकुछ गीतमयी और शोभनीय हो आया है। दावानल से भी अचिक दहकता सूर्य अब जवान हो गया है , कुछ ही महीनों में इसका तेज सबको भस्म कर देगा पर तब तक के लिए यह बहुत सी मीठी यादें छोड़ जायेगा। सबका आलस्य अब छूट चूका है। ज़मीन में जो भी दफन था अब जीवनधारा और उल्लास से युक्त होकर उभरने लगा है। अब सब प्रत्यक्ष है। माघ ही है यह कितना सुन्दर।

 श्वेत वर्ण से युक्त कुंद मुझे रक्त की याद दिलाते हैं। लाल रंग श्वेत वर्ण पर खिलकर आता है। रक्त जैसे गुलाब का फूल। यह पाटल ही है जो इश्क़ की व्याख्या करता है। इसकी सुगंध तक पहुँचने के लिए काँटों से छीलना ही होगा , जबतक हाथ से सुहा रक्त मुक्त न हो, सुहे की गुलाब की अतुल्य सुगंध का सुख नहीं मिलता। पर २ पल की सुगंध के लिए खुद को चिरकाल का घाव देना क्या उचित है ? में कहती हूँ, हाँ। 

घाव की चिंता तो उसके शरीर के लिए है जो ज़मीन पर खड़ा है पर जिस दिन ज़मीन में गया फिर तो न चिंतन रैहगा न चमड़ी। पर उस गुलाब की सुगंध का एहसास तो आत्मा के पास सदा रहेगा और आत्मा तो ज़मीन में नहीं रहती , आत्मा को तो न कोई मोह है न छोह वो तो धरती को अपने मस्तक पर रखकर सूर्य को चूमती हुई पूरे संसार में विलीन हो जाएगी , आत्मा तो स्वछंद है और केवल आत्मा ही स्वतंत्र है। शरीर तो बंधन है। 

मैं तो इन सभी पुष्पों को अपनी सांसों में बसा लेना चाहती हूँ क्यूंकि जाते समय के साथ इन वल्लरियों के मुरझा जाने की चिंता मुझे डसने लगी है। माघ सदा तो नहीं रहेगा। तो इससे पहले सूर्य जल उठे और मैं उससे छू न पौन मैं तो सरे अलाम को जीत लेना चाहती हूँ। बचपन से ही इन खेत खलिहानों में बढ़ी हुई , इसी नदी और इसी आलम के श्रृंगार ने मुझे हमेशा सुकून दिया है। पर आने वाले समय में यहाँ से हाईवे निकलेगा और यह सब ख़तम हो जायेगा।

 यह कैसा विकास है ? इस वक्त मैं उन सभी भटकती आत्माओं के शोक और विस्मय को महसूस कर सकती हूँ जो केवल लोगों की कहानियों का पात्र बनकर रह गयीं। मैं भी अब एक लाश सा महसूस करने लगी हूँ। यह आत्माएं न ही परलोक सिधार पायीं न ही इनके पास शरीर नमक कोई पोषक है। बंधन और स्वतंत्रता के मध्य केवल विचरण करती इन आत्माओं के पास रोष और अफ़सोस के अलावा है ही क्या ? यह आत्माएं चिरकाल तक भटकेंगी और फिर भी इन्हें चैन नहीं मिलेगा। जिसका घर ही छिन्न गया हो और जिसके पास कोई नया ठिकाना न हो उसपर दया ना करूँ तो क्या करूँ? जिन आत्माओं पर पूरा जीवन हस्ती आयीं हूँ , देखो कुछ क्षणों में ही उनकी हमदर्द हो गयी।

 शायद इसे ही बचपन छूटना कहते हैं ?


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