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ViSe 🌈

Inspirational

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तरुण

तरुण

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मुझे आज भी उसका आनन याद आ जाता है, जब मैं नहर किनारे होता हूँ। दरिया से उठकर जब लहरें, मेरे कदमों को सहलातीं हैं, तब उसकी बहुत सी बातें याद आतीं हैं। उसकी स्मिता, रेशमी बाल और मलय देह। आँखों में द्युति और लबों पर सुधा। 

तरुण, एक अज्ञेय रसूल। तरुण और मैं कभी मिले नहीं थे, हम तो टकराये थे। मैंने सुना था की हमारा हमसफ़र हमारे जीवन मैं स्वयं ही किसी संयोग से प्रकट हो जाता है। इस आविर्भाव की कोई तिथि नहीं होती। हम भी पार्क में एक दिन टकरा गए, तरुण सुडौल और आकर्षक था। उसकी त्वचा ने मेरी त्वचा को निखार दिया। उसकी बांहों में बिताये चंद लम्हे मेरे जीवन की किताब-ऐ-गुलज़ार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और यादगार लम्हे रहेंगे। 

हम दोनों एक दूजे की बांहों में ऐसे खो गए, जैसे यह कुदरत की कोई युक्ति हो। तन्द्रा की भांति प्रिय और रम्य साजिश। उसने मुझे उठाया और एक बेंच पर बिठा दिया। मेरे पैर पर खरोंच थी, उसने अपने घुटनों के बल बैठ कर मेरे क़दमों को अपने हाथों में लिया और उसपर मिट्टी लगा दी। उसके चेहरे पर जो चिंता थी, उसने मेरा मन मोह लिया। इतने बलशाली पुरुष के पीछे इतना मासूम मनुष्य। 

अपने स्कूल की स्पोर्ट्स टीम का लीडर था, मुझे खेल से बैर था। उसे पुस्तक नापसंद थी, मैं पन्नों से सांस लेता था। हमारी दोस्ती बढ़ती गयी, और हम दोनों जानते थे की हम क्या हैं। यह आभास हमारे दिल में उसी क्षण हो गया था जब हम टकराये थे। दोनों अपने अस्तित्व से सम्मुख थे पर इस सत्य की तरदीद करते आ रहे थे। 

सत्य तो स्वाधीनता देता है। और हम परतंत्रता से ऊब चुके थे। हमारे मध्य केवल कुछ क्षणों का ही आदान-प्रदान नहीं हुआ था, हमने तो एक दूसरे की आत्मा में झांक लिया था। अब हमें भी ठहरना था। पर जब नदी ठहरती है तो खूब कोलाहल करती है, किनारों और वेग के मोह से वंचित होने से घबराती है, पर विश्व विजयी रत्नाकर में तभी तबदील होती है, जब विरह और मिथ्या का झंझाल छिन्न-भिन्न करती है। 

जिस्म से आत्मा का तक का सफर हमने सहर्ष किया। सफर में सभी रस लिए। मुरव्वत और क्षमा का अर्थ समझा, तभी जीवन के उपवन में हज़ारों फूल खिल पाए। पर हम तो अप्राकृतिक थे, इन पुष्पों की पुष्पांजलि कैसे अर्जित होती?

तरुण मुझे खोना नहीं चाहता था, वो फिर से परतंत्रता का शिकार नहीं होना चाहता था। 

पर यह बात छुपी नहीं। सामने आ ही गयी। तरुण के माता-पिता ने उसे बॉयज हॉस्टल में दाखिल कर दिया। उन्हें लगता था की मेरे सबब उसे कोई बीमारी हो गयी है। हमारे पवित्र रिश्ते को अभद्रता के नाम पर धूमिल कर, सबने खुद को विजयी समझा। पर यह उनकी ही हार थी। तरुण ने एक समाज से पीड़ित आदमी की तरह सर्वप्रथम खुद से ही रिश्ता तोड़ना उचित समझा। 

मानसिक तनाव के भंवर ने उसे ऐसा पकड़ा की वो उससे बाहिर न निकल पाया। वो यह भी भूल गया की मेरे जीने की आखरी वजह वो था। उसने आत्महत्या की। और मुझे इस समाज के भूखे जानवरों के समक्ष अकेला छोड़ दिया। मैं उनसे जीत गया। पर सब हार गया। 

जिस दिन तरुण जाने वाला था, उससे एक रात पहले उसने मुझे अपनी मासी के फ़ोन से फ़ोन किया। उसने कुछ नहीं कहा और हम बेलिहाज़ रोते रहे। किसी को हमारा रुदन सुनाई न दिया, पर सबको हमारा प्रेम दिख रहा था। सबको हमारा मिलन दिख रहा था। पर किसी को भी हमारी तन्हाई न दिखी, व्यथा न दिखी। किसी को उस आत्मा पर तरस न आया जो पल पल प्रताड़ित हो मर गयी। 

तरुण ने मुझसे कभी कहा था - "की हारते वो नहीं जो खेल के मैदान में आखरी होते हैं, जो कोशिश नहीं करते हार उनकी होती है और जो दूसरों की जीत का मज़ाक बनाते हैं वो तबाह होते हैं"। मुझे आज भी यकीन नहीं होता की वो कैसे हार गया। 

पर मैं कभी नहीं हारूंगा, तरुण मुझे कभी नहीं मिल सकता। कोई वैसा हो भी नहीं सकता। मैं तो कोई स्त्री भी नहीं की यादगिरी में उसके अंश के लिए कोख बन पाऊं। मैं तो उन हज़ारों प्रताड़ित समलैंगिक लोगों की तरह, हथेली पर नसीब लिए चल रहा हूँ। 

रोज़ नैसर्गिकता का ज्ञान सुनता हूँ, रोज़ अल्लाह की ताकीद का शिकार होता हूँ, रोज़ अपनी नीचता से ज्ञात होता हूँ, मैं समाज का वह अभिन्न हिस्सा हूँ, जिसे समाज ने हर मोड़ पर नीचा दिखाया है। 

पर क्षितिज पर खड़े सूरज की ओर देखकर केवल इतना कहना चाहूंगा सबको, की अब आपकी क्रूरता और अभिन्नता का समय समाप्त हो चूका है। अब हम रुकेंगे नहीं, केवल न्याय और स्वाधीनता के लिए तत्पर और अग्रसर रहेंगे। 


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