शिव - केतकी
शिव - केतकी
बड़े मंदिर में तुलसी पूजा थी। गांव के सभी लोग वहां उपस्थित थे। पंडित जी और सभी महन्तगण पूजा-पाठ में व्यस्त थे। पंडित जी तुलसी की महिमा और माहात्म्य का वर्णन कर रहे थे।
"कहते हैं की आँगन में तुलसी की जितनी जड़ें पनपती हैं, कुल के उतने ही पाप नष्ट हो जाते हैं"
यह सुनते शिव ने केतकी के कान के पास आकर हलके स्वर में कहा - "तुझे तो तुलसी का बगीचा ही उगाना पढ़ेगा"
केतकी बिगड़ गयी। शिव का पैर कुचल दिया। शिव की हालत ख़राब हो गयी। केतकी उसे दर्द से सिसकते हुए देखकर हंसने लगी। शिव मुँह फुलाकर खड़ा हो गया। केतकी उसका मन बहलाने लगी, पर शिव हठी था। एक बार नाराज़ हुआ तो दो दिन तक न बोलता था, न खाता था। केतकी स्वाभिमानी थी, जब तक वह स्वयं उसके घर नहीं आता था तब तक वह उसे मनाने नहीं जाती थी। शिव केतकी के बिना ज़्यादा दिन रह ही नहीं सकता था। सदैव अपने आत्म-सम्मान को आहत कर उसके घर पहुँच जाता था। दोनों बीती बातें ऐसे भूल जाते जैसे कोई सपना हो। दोनों साथ ही खेलते थे, साथ ही रहते थे, साथ ही पढ़ते थे, साथ ही घूमते और साथ ही मंदिर जाते थे।
केतकी की दादी, एकांकी, दोनों को बचपन से ही मंदिर में लेकर जाती थी। एकांकी उनके साथ मंदिर में सेवा करती थी। केतकी के माता-पिता सरकारी नौकर थे, उसने जो बचपन बिताया अपनी बीजी के साथ ही बिताया। दोनों का अंतरैक्य अटूट था, पर देह तो नाशवान ही होता है। एकांकी परमहंस की हो गयी। वो शिव जो उसका दोस्त था, उसने अब केतकी के जीवन में वो जगह भी प्राप्त कर ली जो एकांकी की थी। केतकी ने निस्संदेह अपनी आसक्ति शिव को अर्जित कर दी।
और आज केतकी का हाल ऐसा है की वो खुद भी समझ नहीं पाती। वही शिव जिसको वो कभी मनाती नहीं थी अब उसकी एक पल की नाराज़गी भी उसके दिल को छलनी करती थी। शिव के पास न होने का एहसास उसकी आत्मा में छिद्र कर देता था। वो अब किसी को खोना नहीं चाहती थी।
शिव केतकी को देखकर सब भूल जाता था। इसलिए केतकी के थोड़े से प्रयास से ही विवश होकर झट ही मान गया। शिव केतकी को दिन-रात निरख सकता था। उससे ३ साल बढ़ा था। बेहद खूबसूरत और कुशाग्र-बुद्धि। केतकी स्वर्ण वर्णीय देवी थी, द्युतिवान और बुद्धिमानी। पर आज भी दोनों जब साथ होते तो किसी बच्चे की तरह नादान और नासमझ ही लगते थे।
शाम को जब सब अपने घर चले गए। केतकी और शिव मंदिर के साथ लगती अमराइयों में ठहर गए।
शिव पेड़ की मुख्य शाखा पर बैठ गया। इस स्पंदन से कुछ पत्ते उसके और केतकी के सर पर अर्जित हो गए। केतकी ने अपना हाथ शिव की तरफ बढ़ाया। शिव उसके इशारे को समझ गया और उसे अपनी तरफ खींच लिया।
"इतनी बढ़ी हो गयी हो, यह वृक्ष भी तुमसे छोटा है, फिर भी महारानी के नखरे तो देखो, नौकर चाहिए है हाथ देने के लिए " यह कहकर शिव हंसने लगा।
केतकी को मज़ाक बर्दाश्त न हुआ। झट से नीचे उतर गयी और क्रोधित होकर शिव को घूरने लगी। उसकी गोल आँखों में इतना क्रोध देखकर शिव मुस्कुरा उठा और ठहाका लगाकर फिर से हंस पढ़ा। यह अभद्रता देख केतकी की आँखों में आंसू आ गए। शिव की हंसी अकस्मात् अचरज में परिवर्तित हो गयी।
वो भयभीत हो गया। केतकी का यह रूप उसने पहले कभी नहीं देखा। जब एकांकी की मृत्यु हुई थी तब उसने प्रण लिया था की अपने स्वांस त्याग देगा पर कभी केतकी को रोने नहीं देगा। उसने छलांग लगायी और केतकी को गले लगा लिया। केतकी सिसक-सिसक कर रोने लगी।
शिव ने उसके खुले बालों को पीछे सरकाया और अपने सीने से लगाकर उसकी साँसों को नियंत्रित करने लगा।
"शांत हो जाओ केतकी, यूँ रुदन न करो, मेरा दिल बैठा जाता है , क्या हुआ?"
केतकी ने कसकर शिव को गले लगा लिया और उसके दिल पर अपना सर रखकर रोती रही।
"मैंने कुछ गलत कहा क्या?" शिव ने पूछकर पूछा
"हम्म!" केतकी रोते बोली
"क्या पर ?"
"तुम नौकर नहीं हो!"
"अरे वो तो हम मज़ाक करते थे "
"मज़ाक भी नहीं कहोगे!"
"ठीक है नहीं कहूंगा केतकी, तुम पहले शांत हो जाओ, नहीं तो मैं घर चला जाऊंगा"
लालच देकर शिव ने केतकी को शांत किया और आम के पेड़ पर बैठकर दोनों ने सूर्यास्त निहार कर अपना दिन ख़तम किया।
दोनों अपने घर चले गए। पर आज की रात दोनों को नींद कहाँ आनी थी ? केतकी ने आज महसूस किया की दोस्त और प्रियतम में क्या अंतर होता है। आराध्य की भक्ति क्या होती है और श्रृंगार रस की अनुभूति क्या होती है। शिव को चिंता थी की कहीं केतकी की तबीयत तो खराब नहीं हो गयी ? जब पिछली बार केतकी को डिप्रेशन की शिकायत हुई थी तो केतकी के माता-पिता समेत उसे केतकी को खोने का दर खाने लगा था। वो केतकी को फिर से उस दर्द से गुज़रता नहीं देखना चाहता था।
केतकी सुबह खाने के मेज़ की कुर्सी पर बैठी थी। उसके पिता आये और साथ ही शिव भी आ गया। माता जी ने खाना परोसा।
"शिव, मेयर का आर्डर आ गया है!"
"हमने भी देखा!"
"कौन सा आर्डर ?" केतकी ने पूछा
"शारदम में स्थित सभी फैक्टरियां, यहाँ से पाँच सौ किलोमीटर दूर की जा रही हैं!"
"पर क्यों?" केतकी चीख उठी
उसकी माता भयभीत हो गयी। शिव ने उसे देखा और सर हिलाया। केतकी शांत हो गयी। फिर स्वर बदलकर बोली - "क्यों पर?"
"शारदम में प्रदूषण का स्तर अनियंत्रित हो गया है, स्मारकों का रंग फीका पढ़ने लगा है इसलिए सभी इंडस्ट्रीज शिफ्ट हो रहीं हैं " शिव ने केतकी से कहा
उसके पिता बोले - "इसमें जो मैं कर सकता था मैंने किया पर सरकारी प्रेशर है इसलिए कुछ नहीं हो सकता "
केतकी ने कहा - "तो फिर तुम चले जाओगे?"
शिव के मुख से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। उसने हिम्मत की और केतकी को मुस्कुरा कर कहा - "हाँ! पर एक दिन पढ़ लिखकर तुम्हे मिलने ज़रूर आऊंगा!"
"अभी कोई वादा मत करो, उम्मीद बोहोत दर्द देती है!" केतकी ने कहा
शिव ने सर झुका लिया। केतकी की माँ की आँखों में आंसू आ गए। शिव के पिता शारदम में ही एक इंडस्ट्री में काम करते थे। इस आर्डर का साफ़ अर्थ था की शिव केतकी के साथ नहीं रह पाएगा।
दोनों मंदिर की ओर चले गए। पुरे रस्ते केतकी शिव का हाथ थामे रही। उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर वो खुद को विश्व विजयी मान रही थी। केतकी स्थिर थी और शांत भी। शिव मंदिर की सीढ़यों में बैठकर जूते उतारने लगा। केतकी उसको निहार रही थी। उसने अपने कोमल हाथों से उसके माथे पर आये गेसुओं को उसके कान के पीछे रख दिया। उस वक्त उसकी आँखों में जो दिव्यता थी वो अद्वित्य थी। वो शिव के साथ बिताये जाने वाले कुछ आखरी पलों में उसे जी भर के निहारना चाहती थी। शिव को केतकी के ठन्डे हाथ का स्पर्श चन्दन के स्पर्श से भी ज्यादा पवित्र और सुखदेह प्रतीत हुआ। केतकी ने शिव का पैर देखा, कल केतकी के पैर की वजह से उसपर खरोंच थी, केतकी ने उसे सहलाया और मुस्कुराकर शिव के कान में फुसफुसाया - "में कोई माफ़ी नहीं मांगने वाली, समझे?"
शिव भी मुस्कुरा दिया। नम आँखों से केतकी को देखते हुए कहता है - "तुम ऐसे न दिखाओ की सब ठीक है!"
"तो क्या तुम्हारी तरह अभी से मनहूसियत दाल के रख दूँ ?"
"तो क्या हम मनहूसियत डाले हुए हैं?"
"कोई शक?"
शिव मुँह फेर कर बैठ गया।
"आज हमारे पास समय है और मौका भी , कल हम साथ नहीं होंगे, आज भी अगर ऐसे ही करोगे तो क्या याद देकर जाओगे? मुझे यह कहने में कोई शर्म नहीं है की तुम्हारे जाने के बाद में रोऊंगी, दुखी रहूंगी और शायद गुस्सा भी , पर एक बात कहूं?"
"बोलो!"
"में रुकूंगी नहीं, क्योंकि मैंने यह जान लिया है, की मेरे लिए अपने जीवन के उतने मायने नहीं होंगे जितने तुम्हारे लिए हैं, और तुम्हारे जीवन के मेरे लिए। इसलिए मैं अब कभी ऐसा कुछ नहीं करूँगी जिससे तुम्हें तकलीफ हो, तुम बेफिक्र जाओ और मुझे विश्वास है की हम मिलेंगे!"
शिव ने केतकी को देखा। जो छोटी और नकचढ़ी बच्ची को उसने बड़ा होते देखा था आज वो इतनी सयानी हो गयी थी की शिव को जीवन का पाठ पढ़ने चली थी। शिव ने केतकी के मस्तक को चूमा और उसका हाथ पकड़कर मंदिर की ओर चल दिया। दोनों ने पूजा की और वो दिन भी ढल गया।
अगले महीने शिव और उसका परिवार रवाना हो रहा था। बड़े लोग आपस में बैठकर एक दूजे से यात्रा की बातें कर रहे थे। केतकी शिव को खींचकर अपने घर के बगीचे में ले गयी। आमले के पेड़ की ठंडी छाँव में रेत के ऊपर नंगे पैर दोनों खड़े थे। चिड़िया चहचहा रही थी और वातावरण रम्य था। केतकी भागकर तुलसी का एक पौधा लायी और शिव को इशारा किया। दोनों ने मिल के उस उद्यान में उसे स्थापित कर दिया। जल अर्पित किया।
केतकी झुकी और शिव के पैर छुए और उसके चरणों के आस पास स्थित मिट्टी को अपने माथे से लगाया।
"यह क्या कर रही हो ?"
"जिसने मुझे आजीवन ज़िंदा रहने का मकसद दिया हो और मेरे बुरे वक्त में मेरा साथ दिया हो, जिसकी मैं हर एक स्वांस के लिए कर्ज़दार हूँ , उस महात्मा का नमन कर रही हूँ!"
यह कहते कहते उसकी आंखें भर गयी। शिव ने केतकी को गले लगा लिया और वो फूट फूटकर रोने लगी। शिव उसे पुचकारने लगा।
"बेटा शिव आ जाओ !"
"आ गया !"
केतकी ने उसके अधरों को चूम लिया और उसने उससे विदाई ले ली।
केतकी को यह दृढ़ विश्वास था की किसी एक सावन, स्वर्ण वर्णित आकाश के नीचे, मंदिर के दयार पर वो दोनों फिर मिलेंगे, उस बढ़े सांझ शिव कोई आल्हा गाएगा और दोनों का गीत-अगीत एकरूप हो जायेगा।

