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ViSe 🌈

Tragedy

5  

ViSe 🌈

Tragedy

सारंगिणी

सारंगिणी

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आज राजन भईया के साथ अपनी दोस्त तृषा को मिलने अस्पताल गई थी। तृषा को ४ दिन बाद होश आया था। कल तक तो उसकी यादाश्त भी टुकड़ों में उसको दस्तक दे रही थी। आज वहां गई तो सबसे पहले सुरेश अंकल को मिली, उन्होंने बताया की रीना आंटी बढ़े मंदिर गईं थी। तृषा को मिलने जाने देने में कुछ समय था। अंकल कैंटीन में कुछ खाने के लिए गए। मुझे सारांश का फ़ोन आया। वो भी थोड़ी देर में पहुँचने वाला था। सारांश के पापा की बहुत लोगों से पहचान है। उन्हीं के आश्वासन पर मुझे भरोसा भी था और उम्मीद भी। इससे पहले की सारांश आता डॉक्टर ने मुझे बुलाया। तृषा मुझे देखकर मुसकुराई। फिर जैसे ही मैंने उसके हाथ में अपना हाथ दिए वो तो रोने लगी। रुदन से गले में दर्द होता था इसलिए सुख रे विलाप भी न कर सकी। मैंने पूछा की क्या दर्द होता है ? तो कहती की अब पापा मां कभी घर से बहार नहीं जाने देंगे। यह सुनके मेरा दिल ठंडा पढ़ गया। मेरी सांस उखड गयी और आभास की बेड़ियों मुझे जकड़ा की मेरा दिल ही टूट गया। मैं आयी तो तृषा को हिम्मत देने थी पर उसकी बात सुनकर बहुत ही और मजबूर महसूस करने लगी।

मेरी आँखों में आँसू नहीं थे। पर चेहरे पर शिकन थी। क्या ज़्यादा बुरा है? यह की कोई सड़क पर चलते हुए आपको टक्कर मर जाये या फिर की आपको दिलासा देने की जगह आपको परतंत्र के पिंजरे में फेंक दिया जाये ? हम लड़कियों की ज़िन्दगी भी क्या ही होती है? कोई भी लड़का हमें अपनी जागीर समझकर हमारी मरज़ी के खिलाफ हमारे पीछे पड़ जाता है और फिर किसी दिन अपने दीवाने पन में हमारी ही जान लेने आ जाता है। और इसे सिनेमा में प्रेम कहानी दिखाया जाता है। आदमियों की यह कम सुनने की बीमारी का इलाज कब ईजाद होगा?

एक महीने पहले तृषा जब अपनी स्कूटी पर ट्यूशन जा रही थी तब ३ लड़के अपनी कार में शराब पीकर उसके पीछे आने लगे, एक दिन तो उन्होंने इसको ट्यूशन के बाहर रोक ही लिया। तृषा ने उन्हें टाल दिया और फिर भी नहीं माने तो तृषा ने उन्हें खरी खोटी सुनाई, फिर क्या था पिछले हफ्ते वो अपनी कार में आए और बीच सड़क इसको मार के चले गए । मुझे तो यह सब कल ही पता चला। तृषा ने किसी को नहीं बताया था की वो कितने तनाव में थी। 

मैंने सारांश को कहकर उन लड़कों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करवाई। तृषा के माता पिता ने इनकार किया, उन्हें डर था की कही यह लोग फिर से तंग न करने लगें। यहीं सारांश के पिता ने कमिश्नर से सलाह करके कहा की कचहरी के बाहर ही उन्हें सुधार दिया जायेगा। मेरे कहने पर वे मान गए। एक अच्छी बात तो यह है वो लड़के बहुत ही बड़े घराने के नहीं है , उनको हड़काना मुश्किल नहीं होगा, अगर किसी बड़े नेता के बेटे होते तो कभी न टलते।

पर अब सवाल तृषा की ज़िन्दगी का था। उसके माता पिता ने सोच लिया था की इसको खुद ही हर जगह छोड़ के जाया करेंगे। और फिर इसे पढाई के लिए बाहर देश भेज देंगे। तृषा ने मुझसे कहा था की उसको कभी भी बाहर नहीं जाना था, उसको अपने देश के लिए कुछ करना था। क्योंकि बचपन से ही वो एक अमीर घर में पली इसलिए हमेशा गरीब बच्चों के भविष्य की चिंता उसे रहती थी। पर सही मायने में आज वो सबसे गरीब थी , गुरबत के गुलिस्तां में कोई फूल नहीं खिलते। उसके माता पिता को कोई समझा भी नहीं सकता था।

तृषा की ज़िन्दगी का फ़ैसला हो चूका था पर हैरानी की बात यह है की यह ज़िन्दगी उसकी थी, फैसला उसका होना चाहिए था। क्योंकि समाज में ऐसे लड़के है इसका मतलब यह नहीं की हम लड़कियां बाहर जाना ही बंद कर दे।

सारांश जब आया तब तक तृषा को नींद की दवा दे दी गयी थी। सारांश मुझे पास ही के एक कैफ़े ले गया। सारांश ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा की "तुम कभी परेशान न होना, तुम कभी भी तृषा की तरह हालातों से सौदा मत करना और हमेशा आगे बढ़ना और कोई जो तुम्हें रोके तुम उससे भी आगे बढ़ जाना, मोह तन्द्रा जैसा होता है रिधा तुम इसके तले कभी न दबना किसी से न कभी दिल लगाना"। सारांश को जब देखती तो सोचती हूँ की समाज में सब तरह के लोग हैं, एक जो औरतों को इंसान समझते हैं और जो उन्हें खिलौना समझते है। माँ बाप को लड़कियां गुड़िया लगती हैं, वही गुड़िया जिसकी आँखें बचपन में मेरा भाई निकल दिया करता था वही गुड़िया जो दुकानों के बाहर कपड़े पहनकर खड़ी रहती है,वही गुड़िया जो शादी में बेच दी जाती है वही गुड़िया जो पति घरों में रखते हैं वही गुड़िया जो माता बनते ही मंदिर की मूर्ति बन जाती है, क्योंकि जो औरत घर न संभाले वो देवी कैसे हो सकती है? एक औरत तभी महान बनती है जब वो अपने सपने छोड़कर अपने पति और बच्चों की सेवा करती है, क्यों?

जैसे फिल्मों में हीरो नहीं बदलते पर नायिका बदलती रहती है वैसी ही सही जीवन में भी औरतों की कोई ख़ास औकात नहीं होती , हमारे साथ कुछ भी किया जा सकता है। सुबह शाम हम लोगों की आँखों में रहती हैं और हमारी इज़्ज़त हमारे वक्ष और योनि में । आदमी अपनी एक तकनी से ही हमें नंगा कर देते है । वही आदमी हमें निरखकर कायल भी हो जाते हैं। आदमी मेरे पिता जैसे जो कभी मुझे हारने और झुकने नहीं देते , जिन्होंने बचपन से मुझे सबसे आगे चलना का साहस दिया , आदमी मेरे दादा जैसे जिन्होंने कभी भी मुझसे यह उम्मीद नहीं की मैं घर आए मेहमानों को चाय दूँ, वो कहते थे की ' कुढ़िये तू पढ़ेया कर, प्राउने ते ऑन गे ही , तू ते पढ़ लिख के गवर्नर बनना ए ', आदमी जैसे सारांश, मेरा सारांश जो मुझे प्यार तो करता पर कभी नहीं कहता , पर मदद करने सबसे पहले आता है, जो डरता है की कहीं हमारी प्रेम कहानी मेरे सपने कुचल न दे, सारांश मुझे एक इंसान की तरह देखता है। और मैं उसमें एक नेक इंसान देखती हूँ, आदमी जैसे मेरे मामा जी जिनपर किसी ने बलात्कार का झूठा केस कर दिया था , और निष्पाप उन्हें ४ लाख जुरमाना देना पढ़ा। जब इन्हें देखती हूँ तो सोचती की आदमियों की भी क्या ही ज़िन्दगी है।


सारांश से मैं कुछ ख़ास बात नहीं कर पाई। सारांश के पिता ने कमिश्नर से बात करके बताया की उन लड़कों का इलाज कर दिया गया है। उनके माता पिता आज शाम को अस्पताल पता करने आएंगे। पर उन लड़कों को जो शारीरिक चोट दी गई है उसका तो तृषा के नसीब के खेल के सामने कोई तोल ही नहीं। उनका क्या गया ? थोड़ा सा अहंकार ? और उनके माँ बाप का क्या गया ? परतंत्र तो इनको भेंट होनी चाहिए थी क्योंकि असंतुलित तो यह हैं तृषा तो कोई सामाजिक खतरा है ही नहीं की उसको बेड़ियाँ बाँध दी जाएं।


मेरे परदादा नम्बरदार थे और मेरी दादी सरपंच। आज यह दोनों ज़िंदा होते तो सुरेश अंकल को समझा पाते की संकट तो आते जाते ही रहते हैं , हम तूफ़ान देखकर आँखें मूँद ले तो उससे तूफ़ान टल नहीं जायेगा। अगर माता पिता ही इन छोटी सी चीज़ों से हार मान जायेंगे तो बच्चे आगे कैसे बढ़ सकते हैं।


अगर मेरे साथ ऐसा होता तो मतलब ही नहीं था की कोई मुझे कह सकता की अब मैं घर के बाहर कदम नहीं रख सकती। मैं कभी किसी को अपने जीवन के फैसले नहीं लेने दूंगी। मैं तृषा जैसे मजबूर नहीं बन सकती। पर अगर में तृषा की जगह होती तो पता नहीं क्या करती।


स्वाधिकार के इस अनुक्रम में कोन जीता कौन हरा? क्योंकि जिसके पास आश्वासक और प्रेरक होते हैं अगर वो ही आगे बढ़ेंगे तो फिर इस विकास का कोई फायदा ही नहीं, विकास तो वो है जो उन लोगों को ऊपर उठाये जिनके पास प्रेरक या साधन नहीं होते। अगर वही लड़कियां स्वाधीनता का स्वाद छक सकती हैं जिनके पास सारांश जैसे समर्थक और मेरे पिता और दादा जी जैसे प्रेरक और मेरी दादी जी जैसे उद्धरण है तो फिर इसका अर्थ है की लड़कियां आज भी वहीँ है जहाँ पहले थी। पहले जहाँ औरतें दिनभर चरखे में सपने संजोती थी, मेरे ज़माने हम लड़कियों ने भी क्या ही देखा? बचपन को गए कुछ साल ही हुए थे पर आज सब कुछ छूट गया मानो। आज तो मैं हर रूप से इस डार से बिछुड़ गयी। 


मेरे पास न तो माँ है न दादी। सोचती हूँ की नानी के पास जाऊँ और उनसे यह सवाल पूछूं, उनके पास ही शायद मेरे उत्तर हो ? है ना सारंगिणी ?


सारांश के दिलासा देने पर भी मैं इस दुःख से उभर नहीं पा रही हूँ की मैं अपनी दोस्त की मदद नहीं कर पायी, काश यह सब हुआ ही न होता। मैंने सही ही सुना है मजबूरी से मौत भली होती है। तिल तिल कर मरना भी क्या कोई जीना होता है ?


आज बटालवी जी की कविता याद आ रही है - 

'नी इक मेरी अख काशनीदूजा रात दे उन्नींद्रे ने मारेआशीशे ते तरेड़ पै गयीबाल वौंदी ने धयान जदों मारेआ'

सौंदर्य अभिशाप है। खेल तो नसीब का है। मेरा नसीब की मेरे पास तुम हो सारंगिणी, अगली मुलाकात जल्द ही होगी। मेरी नानी के घर। अपना ध्यान रखना।



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