चकोर का दर्द
चकोर का दर्द
शांत जल के संग सरिता, पूर्णिमा की रात, चाँद की बिंदी लगाकर, सितारों से आँचल सजाकर बहे जा रही थी। और उस बहती नदी को एक टक से देख रहा था घाट किनारे बड़े से पत्थर पर बैठा एक चकोर। नदी को चकोर का घूरना पसंद नहीं आया। अचानक से क्रोधित होकर बोली - "चकोर! क्यों तुम मुझे एक टक देख रहे हो। मैंने क्या किया ऐसा?"
क्रोधित सरिता को देख चकोर से अपना दर्द रोका नहीं गया और अश्रु भरी आँखें से कहने लगा - "बहिन सरिता! तुम इस चौसठ कलाओं के स्वामी चाँद को देख रही हो, जिसे पाने के लिए मुझ जैसे कई चकोर अपनी अनंत को
शिशें करते है।"
"हमारे हौसलों की उड़ानें देखकर यह पास के स्थान पर और दूर होने लगता है। बहुत बैरी है रे ये चाँद। कभी कभी सोचता हूँ कि क्यों न ये जो तेरे माथे की बिंदी है इसे ही चुरा लूँ। इसी ख्याल में, मैं तुम्हें देखता रहता हूँ।"
चकोर के दर्द ने मानो सरिता को झंझोड़ कर रख दिया। जिसके कारण सरिता में इस तरह लहरे उठी जैसे मीलों दूर बैठे चाँद ने उन की बात सुन ली हो, कि उसके माथे की बिंदी बना चाँद भी दर्द से कराह उठा। और सरिता के आँचल में सजे सितारे की चमक धुंधले हो गयी।