छठां दिन
छठां दिन
प्रिय डायरी।
छठां दिन, लॉकडाउन का छठवां दिन भी खत्म
भौतिकता से मन आध्यात्मिकता की ओर भाग रहा है। सब कुछ बेमानी सा क्यों लगने लगा है
मन को समझाते रहते हैं कि 'मन के हारे हार है,मन के जीते जीत' पर दिल कि हालत भी कुछ उस शेर के जैसे हो गई है
'दिल भी इक ज़िद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह
या तो सब कुछ ही चाहिए या कुछ भी नहीं'
बहरहाल बेमन से ही सहीआज बहुत दिनों बाद घर की चौखट से बाहर कदम रखादोस्तों ने बताया कि सब्जी वाला कॉलोनी गेट पर आया है मैं भी चली गईअपनी कॉलोनी भी अपनी जैसी नहीं लग रही थीपार्क के झूले बच्चों के इंतज़ार में उदास और शांत दिख रहे थेकार पार्किंग एरिया भी गाड़ियों की गड़गड़ाहट के बिना सूना सूना ल
ग रहा थापूरी कॉलोनी उस घर की तरह लग रही थी जहाँ से अभी अभी लड़की की विदाई हुई होसूनी सूनी
काम तो कमोबेश सब हो ही रहा है ,पर एक मशीन की तरहवो जोश, उत्साह, जज़्बा कहाँ है? क्या कोरोना लील गया उन्हें? उन तक शायद पहुँच गया खुद को बचा कर रखें
आज घर के कामों में भी सबको शामिल किया सबको उनकी क्षमतानुसार काम सौंपा, सबने मेरा साथ दिया भीपूरे मन सेअपनी मदद तो हुई ही पर ये बात भी दिमाग मे घूम रही थी अगर बच्चे कभी 'life skills' नहीं सीख पाते हैं तो कभी कभी उसका कारण हमारा प्यार दुलार भी रहता हैपर लगता है प्यार दुलार के साथ साथ कभी कभी कड़ा रुख़ भी अपनाना चाहिए, क्योंकि ज़िन्दगी कब कड़ा रुख़ दिखाएगी पता नहीं, ख़्याल रखें अपना और अपनों का।