इच्छित जी आर्य

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इच्छित जी आर्य

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बस... बन गयी चुड़ैल

बस... बन गयी चुड़ैल

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‘‘अगले हफ्ते तुम क्या कर रही हो?‘‘समीक्षा ने चुप बैठे-बैठे अचानक से सवाल किया।

रति की आँखें तन गयीं-‘‘क्यों?‘‘

समीक्षा ने एक बार को रति को घूरकर देखा। फिर मन ही मन जाने क्या चला, उसने निगाहें जमीन पर टिका दीं-‘‘ऐसे ही। बस थोड़ा काम था।"

रति ने भौंहे गोल करते हुए ताना कसा-

‘‘क्या काम? आज-कल बड़े काम याद आते हैं तुमको।"

समीक्षा की आँखें वैसे ही जमीन पर टिकी रहीं-‘‘क्या कहूँ? सबकुछ एकदम से बहुत बदल गया है।"

रति के माथे पर बल पड़ गये-‘‘कह दो। मैं हूँ न, सुनने के लिए। दोस्त हूँ न तुम्हारी? मुझे नहीं बताओगी कि क्या समझ नहीं आ रहा? आखिर है क्या? क्या बदला-बदला लग रहा है?"

समीक्षा ने गर्दन घुमायी और नजरें रति के चेहरे पर टिका दीं-

‘‘कहना है। तुम्हीं से कहना है। पर कहने में वक्त लगेगा। इसीलिए तो पूछ रही थी।"

रति ने फिर से भौंहें तानीं-

‘‘तुम पूछ क्या रही थी? तुम तो अगले हफ्ते की बात कर रही थी। परेशानी अभी है और तुम मुझसे अभी की बजाय, अगले हफ्ते बात करना चाहती हो।"

समीक्षा ने बीच में टोकने की कोशिश की-‘‘नहीं, ये नहीं।"

रति ने फौरन गाल बिचकाये-

‘‘ये नहीं, वो नहीं, ऐसा-वैसा कुछ नहीं, तो फिर क्या? आखिर बात क्या है समीक्षा, जो तुम सबकुछ ऐसे गोल-गोल घुमा रही हो?"

‘‘अगले हफ्ते तुमको मेरे साथ चलना पड़ेगा।" समीक्षा ने लंबी साँस भरते हुए जवाब दिया।

रति तुनक पड़ी-‘‘कहाँ? आखिर कहाँ चलना पड़ेगा? तुम पहले मुझे सब साफ-साफ बताओ, फिर हम मिलकर तय करेंगे कि कहाँ जाना है और क्या, कैसे करना है।"

समीक्षा ने नजरें नीची झुका लीं। दो पल खामोश रहकर जाने क्या सोचती रही। फिर रति की आँखों में झाँकते हुए बोली-

‘‘मैं अक्सर मीरा के बारे में बोलती रहती थी न! सब उसी के बारे में है।"

रति ने फौरन आँखें गोल घुमाते हुए एक लंबी साँस खींची-

‘‘क्यों? अब उसके बारे में क्या हो गया?"

समीक्षा की आँखें छत के एक कोने पर जा टिकीं-

‘‘हुआ कुछ नहीं। बस उसको अब परेशानी होने लगी है।"

रति समीक्षा के करीब आकर बैठ गयी। दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा और बातें गहरायी से होने लगीं-

‘‘परेशानी! कैसी परेशानी?"

‘‘है। थोड़ी अलग सी परेशानी है।"

‘‘अलग सी! मतलब क्या? कुछ बताओ तो।"

‘‘करीब महीने भर पुरानी बात है। मै और मीरा दोनों साथ थे उस वक्त। उसके मोबाइल फोन पर काॅल आयी। एक लड़के ने कहा कि पार्टी चल रही है, उसे पहुॅचना है। सब लोग अपनी पार्टियों में उसे बुलाते हैं, क्योंकि उसे अपनी अमीरियत दिखाने का बहुत शौक है। कहीं भी, किसी की भी, कोई भी, कैसी भी पार्टी चल रही हो, अगर वो होती है, तो पैसे वही देती है। उस वक्त भी उसे बिल के पैसे देने के लिए ही बुलाया गया था। उसे भी पता था कि उसे पैसे देने के लिए ही बुलाया जा रहा है। बिल्कुल रात हो चुकी थी। मैंने वही उससे कहा कि इतनी रात हो गयी है। इतनी रात में जायेगी, तो फिर लौटेगी जाने कब? मैंने तो उसके भले के लिए ही कहा था। उसे इसमें जाने क्या बुरा लग गया? बस उस दिन के बाद से वो सारे लड़कों को मेरे बारे में जाने क्या-क्या बताने लगी। उसने सभी से मेरी बुराई की। उसने सभी से इतना कुछ कहा कि अब तो सभी ने मुझसे बात करना ही छोड़ दिया है। मुझे उन्हीं सबको समझाना है कि वैसा कुछ भी नहीं है, जैसे मीरा उनको मेरे खिलाफ भड़का रही है।"

समीक्षा की सुनते-सुनते रति उठ खड़ी हुई-

‘‘मतलब तुमको लड़कों के पास जाकर उनको बताना है कि मीरा जैसा भी, जो कुछ भी, उनको बता रही है, वो सब सही नहीं है।‘‘

समीक्षा की मासूमियत उसके चेहरे पर उमड़ पड़ी-

‘‘हाँ।"

‘‘पर क्यों?" रति की आवाज में उसकी खीझ झलक रही थी-

‘‘मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा कि किसी से कुछ कहने, किसी को कुछ समझाने, बताने की आखिर जरूरत ही क्या है?‘‘

‘‘वो मेरे दोस्त हैं। उनको तो मुझे समझाना ही है।‘‘ समीक्षा ने रति के चेहरे को निहारते हुए जवाब दिया।

रति अपने हाथ समीक्षा के कंधों पर टिकाते हुए बोली-

‘‘वही तो मैं कह रही हूॅ। वो तुम्हारे दोस्त हैं। उनको तुम्हें समझना चाहिए। उन्हें तुमको जानना चाहिए। अगर वो सचमुच तुम्हारे दोस्त हैं, तो उन्हें समझाने की तो कोई जरूरत ही नहीं।‘‘

रति की सुनकर समीक्षा का चेहरा कुछ सिकुड़ गया। दोनों की अपनी-अपनी दलीलें थीं-

‘‘समझाने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि वो बुरा मान गये होंगे।‘‘

‘‘बुरा! भला क्यों? और अगर कुछ बुरा-वुरा मान भी गये हों, तो वो तो लड़के हैं।‘‘

‘‘लड़के हैं! इसका क्या मतलब?‘‘

‘‘बिल्कुल सीधा-सीधा मतलब है। तुम लड़की हो। लड़की होने का मतलब ही है कि तुम मासूम हो, तुम गलती कर सकती हो। तुम्हें गलती करने का हक है। और अगर कुछ ज्यादा है, तो एक बार साॅरी बोल दो।‘‘

‘‘वो तो मैने बोल ही दिया। मैने समझाया भी उन्हें कि मीरा...‘‘ बोलते-बोलते समीक्षा के होठों पर पल भर को चुप्पी सध गयी। माथे पर शिकन गहरी पड़ चुकी थी। रति के चेहरे को एक गहराई से निहारते हुए वो बोली-

‘‘पर वो समझ ही नहीं रहे।‘‘

रति ने आखें चैड़ी करते हुए एक लंबी सांस भरी और फिर बोली-

‘‘ओहो! ये तो तुम बिल्कुल झाँसी की रानी वाली बात कर रही हो। खुद की खैर मुश्किल है और दुनियाॅ का ठेका लेकर चलने की बात कर रही हो। तुमने एक बार साॅरी कह दिया न! अब तो खुद उनको तुम्हें मनाने आना चाहिए कि आखिर तुमको साॅरी कहने की जरूरत पड़ी ही कैसे?‘‘

‘‘हाॅ, चाहिए तो। पर वो समझ ही नहीं रहे।‘‘ समीक्षा के शब्दों में उसकी बेचारगी थी।

रति अब पूरी तरह सवाल-जवाब के मूड में आ चुकी थी-

‘‘ठीक है। मान लिया, नहीं समझ रहे। तुम्हारी भी मैने समझ ली। बस, तुम्हारी बात पूरी न! अब तुम मुझको बताओगी?‘‘

‘‘क्या?‘‘

‘‘बस इतना बता दो, तुमको भला ऐसी क्या पड़ी है कि तुम उनको मनाने और समझाने के लिए उनके पीछे भागी जा रही हो।‘‘

‘‘मुझे नहीं पता कि मैं क्या कर रही हूॅ और क्यों कर रही हूॅ। मैं बस इतना जानती हूॅ कि वो मेरे दोस्त हैं और अपने दोस्तों को ये समझाना कि मैं उतनी गलत नहीं, जितना वो सोच रहे हैं, मेरा फर्ज है।‘‘

‘‘अच्छा बाबा। मैं समझ गयी। बिल्कुल समझ गयी। तुमने अभी जो बोला, वो बिल्कुल सही है। क्यों, यही न? है न?‘‘

‘‘हाॅ, है। तो?‘‘

‘‘तो, बस इतना कि मैं भी तुम्हारी दोस्त हूॅ। तुमको समझाना मेरा काम है। और जिन लड़कों को समझाने के लिए तुम इतना परेशान हो रही हो, उनको केवल और केवल खुद का काम निकलवाने से मतलब होता है। अगर मेरी बात तुमको जरा भी गलत लग रही है, तो बिल्कुल सीधा-सीधा सा उदाहरण, देखो बिल्कुल ठीक तुम्हारे सामने है। तुम्हारे दोस्त कल तक तुमसे खूब बात करते थे। पर आज वो मीरा की बातों में आकर तुम्हारी सुनने तक को तैयार नहीं हैं, क्योंकि मीरा से उनका काम बन रहा है। वो उनके खर्चे उठा रही है। और तुम इस वक्त उनके किसी काम की नहीं।"

रति की सुनते-सुनते समीक्षा सोच में पड़़ गयी। अपनी गर्दन उसने नीचे झुका ली और जमीन को निहारते हुए बोली-

‘‘ठीक है। मैं सोचूँगी।"

आवाज की तुनक सुनकर रति को महसूस हुआ, शायद सहेली को अभी तक उसकी बात ठीक से समझ में नहीं आयी है। वो उसे फिर से समझाना चाहती थी। पर रति के सोचते-सोचते ही समीक्षा ने जिस तरह कमरे का दरवाजा खोल दिया, रति से फिर एक पल भी कमरे में न ठहरा गया। वो चुपचाप कमरे से सीधी बाहर निकल गयी। बाहर सड़क पर चलते हुए उसके दिमाग में सिर्फ एक ही बात चल रही थी-

‘‘समीक्षा सच में इतनी अच्छी दोस्त है, कि वो अपने सारे दोस्तों को समझाने के लिए इतनी परेशान हो रही है, तो फिर उसे इस बात से जरा भी फर्क क्यों नहीं पड़ रहा कि उसकी इतनी पुरानी सहेली उसे समझाने के लिए इतना परेशान हो रही है! और या फिर ये फर्क इस बात का है कि मैं जिसे अपनी इतनी अच्छी सहेली मान रही हूँ, उसके लिए लड़कों की दोस्ती के सामने मेरी दोस्ती का कोई मतलब ही नहीं।"



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