बिन मौसम बरसात
बिन मौसम बरसात


ये अचानक काले बादल कहाँ से आ गए, अभी तक तो मौसम साफ था? लो... अब बारिश भी शुरू हो गई। अब तो कैफ़े बंद करना पड़ेगा। संजीवनी ने दरवाजे पर क्लोज का बोर्ड लगा दिया।
"आंटी.. आंटी! बहुत जोर के भूख लगी है। आपके कैफ़े की स्पेशल डिश मिलेगी क्या? "
"मगर बेटा कैफ़े बंद हो गया है अब मौसम की खराबी के कारण। "
"प्लीज आंटी, आपके कैफ़े की स्पेशल डिश का बहुत नाम सुना है मैंने। सुबह से कुछ नहीं खाया इसलिए मैंने।"
"अच्छा चलो आ जाओ, आराम से आना। बाहर बहुत बारिश हो रही है। ना जाने ये बिन मौसम बरसात कहाँ से आ गई आज।" संजीवनी वापिस खाना बनाने के लिए अपनी जगह पर जाने लगती है।
पर तुम्हें तो बिन मौसम बरसात बहुत पसंद थी ना संजीवनी! तो अब क्या हुआ?
ये शब्द और आवाज सुनते ही मानो संजीवनी के पैरों को जंजीरों ने जकड़ लिया हो। जिस शख्स को वो भूल चुकी थी या भूलने का दावा करती थी उसका अक्स उसे दिखने लगा था अतीत की यादों से। आवाज की दिशा में वो पीछे मुड़ी तो खुद को 10 साल पीछे पाया।
पहाड़ों की तलहटी में बसा छोटा सा गाँव रुद्रपुर कहने को तो छोटा सा गाँव था मगर इस गाँव के लोग अच्छे से जानते थे कि कैसे कम संसाधनों में भी खुश रहा जा सकता है। इसी गाँव में संजीवनी अपने बाबा के साथ छोटे से घर में रहती थी। उस घर को चारों तरफ से चीड़ के पेड़ों ने घेर रखा था मानो उस घर पर उन्होंने छाया कर रखी हो। संजीवनी के बाबा की उम्र ज्यादा होने के कारण वो अच्छे से नहीं चल पाते थे इसलिए वो लेटे रहते थे चारपाई में। संजीवनी की दो बहनें और एक भाई था बाबा के अलावा। दो बड़ी बहनें और भाई की तो शादी हो गई थी। बहनें अपने ससुराल और भाई परदेस में अपनी पत्नी के साथ। बहनों से जितना हो पाता उतनी मदद वो कर देती पर भाई का कुछ अता-पता नहीं। संजीवनी भी बाबा की देखभाल में लगी रहती मगर बाबा को उसकी शादी की फिक्र रहती। आखिर उन्नीसवें साल में कदम रख लिया था उसने। संजीवनी पास ही के बाजार में स्टॉल लगाती थी खाने-पीने का। कहने को तो गाँव छोटा था मगर जब संजीवनी का स्टॉल लगता तब भीड़ देखने लायक हो जाती खासकर उसके हाथ से बने नूडल्स के लिए जो उसके स्टॉल की खासियत थी। चारों तरफ बर्फ से घिरे पहाड़, चीड़-देवदार के ऊंचे पेड़, साथ में कल-कल करती नदी किनारे पर स्टॉल में बन रहे गर्मागर्म नूडल्स की खुशबू, महकती हुई इलाइची की गर्म चाय और कढ़ाई में गर्म खोलते तेल में नहाते हुए सिकाई करते पकौड़े। वाह! सोच के ही मुँह में पानी भर आता। मनोरम दृश्य के साथ स्वादिष्ट खाना।
उन्हीं दिनों अंजुल काम के सिलसिले में रुद्रपुर आया अपने सहकर्मियों के साथ। हफ्ते के पाँच दिन काम करना। शनिवार और रविवार को निकल पड़ना घूमने वादियों में। चूँकि उनके कानों में भी स्टॉल के खाने की खबर पहुँच गई थी तो वो चल पड़े स्टॉल की तरफ। मगर रविवार होने के चलते स्टॉल नहीं लगा था। अगली बार आने का सोच कर वो चले गए मगर काम के कारण उन्हें समय नहीं लगा।
आखिरकार एक शनिवार को उनका स्टॉल जाना हुआ। स्टॉल के नूडल्स को खाकर उनका पेट तो भर गया मगर मन नहीं। ऐसे ही वो हर शनिवार आने लगे संजीवनी के स्टॉल पर। सबको यहाँ पर आकर एक अजीब सा सुकून मिलता था। मगर अंजुल को आस-पास के शांति से ज्यादा संजीवनी के चेहरे की शांति अच्छी लगी। उसकी सादगी, लोगों से बोलने का लहजा, मेहनती। आखिर पहाड़ में रहने वाले लोग ऐसे ही तो होते है ना। थोड़े में खुश रहने वाले। अब अंजुल दोस्तों के साथ नहीं बल्कि अकेले आने लगा। कभी संजीवनी को देखता तो कभी उसके बनाए हुए स्पेशल नूडल्स का स्वाद लेता। धीरे-धीरे वो दोनों एक-दूसरे को जानने लगे। अब तो संजीवनी अंजुल को हर रविवार किसी न किसी जगह ले जाती अपने गाँव के घुमाने के लिए।
ऐसे ही एक रविवार को दोनों घूमने के लिए निकले हुए थे कि तभी बारिश शुरू हो गई। दोनों एक पेड़ की आड़ लेते हुए वहाँ खड़े हो गए और बारिश रूकने का इंतजार करने लगे। संजीवनी तो बारिश के मजे लेने लग गई।
"तुम्हें पता है मुझे बारिश बहुत पसंद वो भी बिन मौसम के।"
"ऐसा क्यूँ सब तो इससे परेशान रहते है" अंजुल ने पूछा!
"क्योंकि बता के तो सब आते जाते रहते है लेकिन बरसात हमेशा अपने साथ नमी ले कर आती है और माहौल को खुशनुमा बना देती है। थोड़ी देर के लिए ही सही मगर जिंदगी रुक जाती है और हम इसके रूकने का इंतजार करने लग जाते है। वरना जब देखो भागते रहो, काम करते रहो जिंदगी को आसान बनाने की जद्दोजेहद में। कुछ पल मिल जाते है खुद के बारे में सोचने और समझने के लिए। ठहराव आ जाता है। "
"हम्म... अच्छा सोचती हो तुम काफी अलग सबसे। मुझे तो बिल्कुल पसंद नहीं बिन मौसम बरसात। "
"कोई बात नहीं। सबकी अपनी सोच है। चलो अब चलते है। बारिश रुक गई। "
उस रात अंजुल संजीवनी के बारे में ही सोचता रहा कि कैसे वो शहर की लड़कियों से अलग है। उसकी हमसफर बनने के लिए बिल्कुल
सही। प्यार तो करने लगा था उससे पर उसकी अलग सोच से ज्यादा। मगर क्या संजीवनी को वो पसंद है? वो क्या सोचती है उसके बारे में। अगली बार जब उससे मिलूँगा तो उसको अपनी दिल की बात बताऊँगा।
अंजुल अगली बार संजीवनी से मिलने गया तो उसने अपनी दिल की बात बता दी। संजीवनी ने धैर्य से सब सुना, समझा। इसमें कोई शक नहीं था कि वो भी अंजुल को पसंद करती थी। मगर उसकी भी कुछ जिम्मेदारियाँ थी, कुछ सपने थे उसके और वो शहर जा कर खुद को खोना नहीं चाहती थी। संजीवनी ने बड़े प्यार से अंजुल को अपनी मनोस्थिति बता दी। वो उसके जवाब का सम्मान करता था। फिर भी उसने संजीवनी को सोचने का वक्त दिया।
संजीवनी ने सारी बात अपने बाबा को बताई। उसके बाबा ने कहा देख बेटी, मैं तो अब ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाऊँगा। तो मेरी खातिर क्यों अपना भविष्य खराब रही है। मैं जानता हूँ तेरे ना कहने के फैसले का जिम्मेदार में हूँ। तू मेरे बारे में खुद से पहले सोचती है। मगर अब मैं चाहता हूँ कि तू अपने बारे में सोच। आने वाली जिंदगी के बारे में सोच ताकि मैं भी चैन से मर सकूँ।
"थी कभी पसंद मगर अब नहीं संजीवनी ने गहरी साँस लेते हुए कहा। तुम्हारा कैसे आना हुआ इतने साल बाद? "
"क्यों खुशी नहीं हुई क्या मुझे यहाँ देखकर। चिंटू के साथ आया था यहाँ उसके स्कूल की प्रतियोगिता के लिए। तो सोचा चलो तुमसे मिलता जाऊँ। वही पुरानी जगह गया था मगर लोगों ने बताया कि तुमने कैफ़े खोल लिया है अब। अब तो तुम और भी ज्यादा मशहूर हो गई हो। ये गाँव भी कितना बदल गया है अब। "
"हाँ, बदलाव किसी का इंतजार नहीं करता। लोग बदल जाते है, शहर बदल जाते है, भावनाएँ बदल जाती है ये तो फिर भी गाँव है। बदलने के लिए 1 सेकंड ही होता है फिर तुम्हें तो यहाँ आए 10 साल हो गए हैं।"
"शायद तुम सही कह रही हो या नहीं भी। अच्छा ये बताओ कि बाबा कैसे हैं? "
"बाबा... बाबा वो तो तुम्हारे जाने के बाद ही चल बसे इस दुनियाँ से। तभी मैंने उनकी याद में इस घर को कैफ़े में बदल दिया। अब बस ये कैफ़े मेरे साथ है और उनकी यादें। और तुम बताओ तुमने तो शादी कर ली होगी। मैं पागल भी कैसी बात पूछ रही हूँ अब तो तुम्हारे बच्चे भी होंगे। अरे हाँ ये चिंटू, ये तुम्हारा ही बेटा है ना! गया भी तुम पर ही है" (नकली हँसी से अपना दर्द छुपाते हुए)
"ओह्ह..... अफ़सोस हुआ बाबा के बारे में जानकर। नहीं मैंने शादी नहीं की। चिंटू मेरी दीदी का बेटा का है। लोग बदल जाते होंगे, शहर बदल जाते होंगे, भावनाएँ बदल जाती होंगी मगर पहला प्यार कभी नहीं बदलता। वो एहसास, अपनापन कभी नहीं भुलाए जा सकते। यकीन मानो संजीवनी तुम ही मेरा पहला प्यार थी, हो और हमेशा रहोगी। तुम्हारा कोई जवाब ना मिलने के बावजूद भी।"
"मैं तुम्हें जवाब देने वाली थी और उस दिन तुम्हारे पास ही आ रही थी। मगर तुम्हारे दोस्तों ने बताया कि तुम चले गए दो दिन पहले ही तुम्हारे घर से फोन आया था और वो भी जा रहे थे वहाँ से शहर की तरफ। मैंने उनसे तुम्हारा नंबर भी माँगा मगर जब घर पहुँची तो बारिश के कारण सारी स्याही कागज़ पर फैल गई। अब किससे क्या पूछती, किसको क्या बताती? तभी से ये बिन मौसम बरसात मुझे पसंद नहीं। "
"लो अब तो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूँ। अब दे सकती हो मुझे जवाब। मगर अब मुझे ये बरसात पसंद है। "
"अब... अब नहीं। बहुत देर हो चुकी। अब ना खोने को कुछ है और ना पाने को। तुम चले जाओ वापिस जहाँ से आए थे। मुझे अब किसी की जरूरत नहीं। "
"मैं तो चला जाऊँगा वापिस मगर इस दिल का क्या करूँ? जो अभी तक तुम्हारे पास है। तुम्हें अब मेरी जरूरत नहीं मगर मुझे तो है तुम्हारी जरूरत।"
अब तक जिस दर्द, इंतजार को संजीवनी ने दबा कर रखा था इन 10 सालों में वो सब सैलाब बनकर बाहर निकल पड़ा। बाबा के गुजर जाने के बाद वो अकेलापन उसे पल-पल सालता रहा, कचोटता रहा कि आखिर क्यों उसे देर हो गई जवाब देने में। मगर आज अंजुल को अपने सामने खड़ा देख उसकी वो हिम्मत भी टूट गई जिसके कारण वो ये जिंदगी जी रही थी।
दूसरी तरफ अंजुल खुद को भी कसूरवार समझ रहा था संजीवनी के अकेलेपन का। काश! वो जाने से पहले उस से मिल के गया होता। मगर अब इतने सालों बाद कोई फायदा नहीं था ना पछताने के, ना सफाई देने के। बस उसने एक काम किया और संजीवनी को अपने गले लगा लिया। संजीवनी रोती रही पर कुछ बोल ना सकी। जब दर्द और चोट गहरी हो तो शब्द कही खोकर अंतहीन गहराई में समा जाते है।
"आंटी, खाना कब मिलेगा? कब से चूहे कूद रहे पेट में।" चिंटू की आवाज से दोनों अलग हुए।
"चिंटू आंटी नहीं मामी बोलो" अंजुल ने हँसते हुए कहा।
अभी बनाती हूँ मैं सबके लिए कैफ़े की स्पेशल डिश। और संजीवनी आँसू पोंछते हुए किचन की ओर चली जाती है। आखिर मैं अंजुल और संजीवनी कैफ़े से बाहर की तरफ देख रहे होते है बिन मौसम बरसात को...