मैं क्या बनना चाहती हूँ
मैं क्या बनना चाहती हूँ
मैं फ़लक का वो तारा बनना चाहती हूँ जिसका जन्म अभी-अभी हुआ है। जहाँ पर बहुत बडे़ और अपनी-अपनी अहमियत रखने वाले तारे मौजूद हैं और उन सबमें से अलग एक छोर में तारों से आकार में बडा़ गोल रोटी जैसा चाँद है। वो चाँद चुपके से सब तारों पर नजर रखता है और वो तारा जिसका जन्म अभी-अभी हुआ है, वो भी चाँद की नजरों से अछूता नहीं है। बस नए तारे को इस बात का इल्म नहीं है। नया तारा तैयार है चमकने को। पूरे फ़लक में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहता है पर वो चमकने से डरता है। चमकने से इसलिए कहीं वो अपना अस्तित्व ना खो दे। जो
उसके पास अभी है, जो जगह उसने बनाई है अभी कहीं उसे भी ना खो दे। क्योंकि उस फ़लक में अनंत तारे है उसकी तरह। उससे कहीं ज्यादा चमक और आकार में बडे़। पर वो ये भी जानता है कि सबकी अपनी-अपनी अहमियत है। वो तारा धीरे-धीरे चमकना चाहता है। धीरे से अपनी रोशनी बढा़ना चाहता है। किसी को अपने आगे झुकाना नहीं बल्कि खुद को साबित करना चाहता है। मगर हाँ, चमकना तो है और खुद को साबित भी करना है पर अपनी औकात में रहकर। क्योंकि उसने देखा है ऐसे तारों को बहुत जो पहले चमकते तो बहुत हैं, पर फिर अपनी चमक खो बैठते है। हाँ, उसे चमकना है अपनी औकात में रहकर।