बहू-बेटी
बहू-बेटी
एक पिता ने अपनी लाडली बिटिया रोली की शादी एक अच्छे गुणी एवं सुसंस्कारी लड़के से करवाई। उसका परिवार भी अच्छा और सुसंस्कारी था।
बेटी भी अपने ससुराल में खुशहाल ज़िन्दगी बसर कर रही थी। ससुरालियों के संग बेटी रोली भी दूध में मिश्री सी घुलमिल गई थी।
नौकरीपेशा लड़की रोली को ब्याहकर घर ले आये थे रजत के माता-पिता। ससुरालवालों के अनोखे रहनसहन में भी रोली बेटी बन जी रही थी।
रजत अपने सास ससुर जी से भी रोली की भाँति ही अपनेपन का अनोखा रिश्ता बनाये बेटा बनकर ही जी रहा था।
बिज़नेस के सिलसिले में जयपुर आते जाते रहते रजत अचूक अपने ससुराल सहर्ष जाता। और उनकी सेवा करता। दामाद होने का रत्तीभर भी घमंड उसमें न था।
रोली और रजत की शादी के चार या पाँच साल बीत चुके थे। रोली अपनी पहली डिलीवरी के चलते मायके जयपुर गई हुई थी।
और रोली के मायके आने के कुछ ही हफ्तों में ऑफिस के कुछ काम के सिलसिले में
रोली के पापा जनकराय जी को बेटी के ससुरालियों के शहर इंदौर जाने की नौबत आई।
पुराने खयालातों को माननेवाले जनकराय जी को बेटी घर पानी पीना भी गँवारा न था।
उनके पुराने खयालातों को जानकर ही
रोली बेटी के ससुरालवालोंने उसके पिता को दोपहरी खाने का न्यौता दिया। सरल स्वभाव के पिता जनकराय जी अपनी नर्म गर्म सेहत होते हुए भी मना न कर पायें, और भोजन करने चले गए।
और ऑफिस के कामकाजों को निपटाकर आते आते उन्हें बहोत देर हो गई। देर हो जाने से जनकराय जी झिझक कई गुणा अधिक बढ़ गई।
वो तो अच्छा हुआ कि, दामाद
रजत कुमार अपने ससुर जी को पिक अप करने उनके ऑफिस पहुँच गए। और जनकराय जी आनाकानी न कर सकें। और उनके साथ चल दिये।
ऑफिस और घर के बीच के सात आठ किलोमीटर के फासले में जनकराय जी चुप्पी साधे हुए बैठे थे।
एक तो बेटी का पिता होने की झिझक, ऊपर से सम्बंधी जी के घर भोजन करने जाने की बात और देर होने की एक और वजह उनकी झिझक में शामिल होती चली गई।
"पापा जी, इत्मीनान से बैठिएगा। बस, दस मिनट में हम घर पहुँच ही जाएँगे।" कहते हुए दामाद ने बड़ी ही विनम्रता से अपने ससुर जी से बातचीत का दौर शुरू किया।
कार में ऑंखें मूँदकर बैठे जनकराय जी को उनकी ऑफिस के सारे कर्मचारियों की बातें
याद आने लगी।
ऑफिस के बाकी सारे कर्मचारी भी बारी बारी से जनकराय जी के सामने उनके सुसंस्कृत दामाद के अच्छे व्यवहार की तारीफ़ करते चले जा रहे थे। राह चलते या कहीं बाजार में या किसी प्रोग्राम्स में रजत कुमार मिल जाये तो बेअदबी से कभी न पेश आते। उतना ही मानसम्मान देते की जितना वे अपने ससुरालियों को देते।
और, ये सब किस्से सुनकर जनकराय जी की झिझक और भी ज्यादा बढ़ती जाने लगी।
तभी उन्हें लगा कि, अपने सम्बंधी जी को फोन करके मना कर दे। पर दूसरे ही पल अपनी बीवी और छोटी बेटी शैली की बातें ज़हन में बुदबुदाने लगी -
"अपने शर्मीले स्वभाव के चलते कुछ ग़लत शलत न कर देना। सम्बधी जी हैं वो हमारें। रोली बिटिया को उल्टे पाँव वहाँ दौड़ना न पड़े आपकी किसी बेवज़ह की झिझक के चलते।"
दामाद रजत कुमार के घर का ऑंगन दूर से ही दिखाई दिया। जहाँ पर घर के सारे सदस्य ऑंगन में उनको लेवाने के लिए खड़े थे।
रोली बेटी के ससुरालियों ने उनका बहोत ही अच्छे से आदर सत्कार किया। उनकी आदत को ध्यान में रखते हुए गुनगुना पानी तांबे के ग्लास में लेकर आये।
जनकराय जी आश्चर्यचकित रह गए। आदतन ही जनकराय जी के दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए।
उनको चाय परोसी गई। अब पिता जनकराय जी सोचने लगे कि डॉ ने मीठी चाय पीना मना किया है। और इतने प्यार से पीला रहे हैं, मना किया तो बूरा मान जाएंगे शायद। तो वे कुछ न कहते हुए चाय पीने लगे। जैसे ही चाय की पहली चुस्की ली, पता चला कि हूबहू घर जैसी ही फीकी एवं अदरक इलायची वाली चाय थी।
फिर खाना खाने डायनिंग टेबल के सिरहाने बैठे। तब भी उन्होंने सोचा कि डायबिटीज का मरीज़ हूँ, मीठा मना करूँगा तो बूरा मान जाएंगे। ठीक है, एक दिन खा लेता हूँ।
पर जब थाली परोसी गई, तो वे फिर एक बार अचंभित हो उठे। सारा खाना उनकी परहेज़ के मुताबिक़ ही परोसा गया था। खाना खाकर उठे तो सौंफ़वाला पानी भी पिलवाया गया।
अब तक तो वे कुछ न बोलें, पर विदाई के वक्त उनसे रहा न गया। और, बड़ी ही विनम्रतापूर्वक पूछ ही लिया जनकराय जी ने अपने सम्बधी जी से।
तब, रोली बिटिया की सास ने बतलाया कि, कल शाम को ही हमारी बहुरानी का फोन आ गया था। कि, मेरे पापा बेअदबी न करेंगे और कुछ न बोलकर चुपचाप खा - पी लेंगें। तो आप इतना ध्यान जरूर रखियेगा।
सास की बात सुनकर पिता की आँखे भर आई।
अपने घर लौटकर जनकराय जी पहलेपहल अपने मंदिर वाले कमरे में गए। और मंदिर के ऊपर रखी अपनी स्वर्गवासी माताजी की तस्वीर से हार हटाकर नीचे रखने लगे। तो उनकी पत्नी ने उनसे पूछा कि, "आप ऐसा क्यों कर रहे हो?"
जनकराय जी ने जो जवाब दिया उससे उनकी पत्नी की आँखे भी नम हो गई। रोली पिताने कहा, "मुझे आज पता चला कि मेरी देखभाल करने वाली मेरी माँ चल नहीं बसी, वो तो बेटी के रूप में मेरे घर में लौट आयीं है।"
माँ जाह्नवी देवी के मुँह से अनायास ही देवी पुराण निकल पड़ा।
फ़र्क सिर्फ इतना था कि,
देवी का स्थान बेटी शब्द ने ले लिया।
बेटी यानी वात्सल्य की मूरत,
बेटी ही तो होती है दया की सूरत।
बेटी ही तो है सबसे समझदार,
बेटी ही होता है चाहत का समन्दर।
बेटी ही है प्यार की झील,
बेटी है तो घर लगता है घर।
बेटी ही माँ का दूजा रूप होती है,
बेटी है तो वृंदावन कहलाती है।
बेटी ही तो है माता का अस्तित्व नया,
बेटी ही तो पिता का मान सम्मान है।
सासु माँ के गीतों के बोल को पूरा करते हुए रजत और उसके माता पिता भी बोल पड़े -
और
जिसके घर बेटी नहीं और बेटा है। उन्हें तो और भी खुश होना चाहिए।
की, ईश्वर ने सामने से मौका दिया होता है। बेटे के साथ साथ बेटी पाने का, बहु के रूप में।
बेटी और बहु एक ही है।
एक जो खून से जुड़ी हो वो है बेटी।
और
दूजी,
जो हृदय से जुड़ी हो।
बेटी सिर का ताज होती है।
तो,
बहू उस ताज में सजा हुआ
हीरा, कोहिनूर।।