Deepika Kumari

Action Inspirational Others

4.4  

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भारत के सरकारी दफ्तर

भारत के सरकारी दफ्तर

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किसी भी देश का विकास केवल वहां स्थापित सरकार पर ही निर्भर नहीं करता अपितु वह निर्भर करता है वहां रहने वाले देश के नागरिकों पर , और सबसे अधिक सरकार द्वारा पूरे देश में नियुक्त सरकारी कर्मचारियों पर। देश के हर नागरिक का यह दायित्व है कि वह अपने देश ,अपनी मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य को पूरी इमानदारी व निष्ठा के साथ निभाए। यदि हम सरकारी कर्मचारी के रूप में किसी दफ्तर में नियुक्त हैं तो हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम समय पर दफ्तर जाएं ,अपना कार्य समय पर पूर्ण करें व दफ्तर के निर्धारित समय के अनुसार ही दफ्तर को छोड़ें।

परंतु भारत जैसे देश अभी तक विकासशील केवल इसलिए हैं क्योंकि यहां का प्रत्येक नागरिक अपना कर्तव्य नहीं समझता वह सिर्फ इस बात का ध्यान रखता है कि दूसरा अपना काम कर रहा है या नहीं ? यदि कोई दूसरा अपना काम किसी कारणवश नहीं कर पा रहा तो उसे अपना काम ना करने का अधिकार मिल जाता है । 'यदि वह अपना काम नहीं कर रहा तो मैं भी क्यों करूं? दफ्तर थोड़ा लेट पहुंच जाएंगे तो क्या बिगड़ जाएगा? थोड़ा जल्दी दफ्तर से निकल जाएंगे तो क्या हो जाएगा? वह भी तो समय पर नहीं आता तो क्या हुआ कि उसका घर दफ्तर से 40 किलोमीटर दूर है तो, अगर वह लेट आएगा तो मैं भी लेट आऊंगा। चाहे मेरा घर दफ्तर के बगल में ही क्यों ना हो।'

दूसरे की मजबूरी समझे बिना खुद की तुलना दूसरे से करना हम भारतीयों की आदत बन गई है और सिर्फ सामने वाले की बुरी आदतों से ही तुलना होगी उसके द्वारा किए गए काम से कोई अपनी तुलना नहीं करेगा ।तुलना इस बात की होगी कि आज उसको जल्दी क्यों जाने दिया। पिछले 1 महीने से एक घंटा देर तक दफ्तर रुक कर उसने जो काम किया उसकी तुलना नहीं करेंगे । बस एक दिन वह जल्दी कैसे चला गया? वह गया तो मैं भी जाऊंगा। 

'बने रहो पगला, काम करें अगला।' यह वाक्य भारत के सरकारी दफ्तरों के कर्मचारियों का मनपसंद जुुुमला बन गया है । कोई भी काम करके खुश नहीं शायद ही कोई आगे आकर अपनी स्वेच्छा से किसी कार्य को करने के लिए राजी होता होगा। कोई नया काम सीखना तो दूर की बात है , जो काम पहले से आता है उसे भी मना करके ऐसे खुश होते हैं मानो उन्होंने कोई गढ़ जीत लिया हो। स्वेच्छा से काम करने वालों को तो मूर्ख की संज्ञा दी जाती है। कुछ महानुभाव तो ऐसे होते हैं कि यदि कोई ईमानदारी से अपनी नौकरी करना भी चाहे तो उसे भी ताने मार मार कर करने नहीं देते ।

'ना खुद काम करेंगे और ना ही दूसरों को काम करने देंगे ।' यह कहावत भी मशहूर है सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लालाओं में। मंडली बनाकर दूसरों की चुगली करना , बॉस को दूसरों के खिलाफ भड़का कर खुद उसकी नजर में ऊपर उठना , ये कुछ बातें तो भारत के सरकारी दफ्तरों में काम करने के लिए आवश्यक नियम बन गए हैं। 

कान के कच्चे और झूठी तारीफ सुनकर खुश हो जाने वाले बॉस के ऑफिस में काम करने वालों की कोई कदर नहीं होती। वह पूरी मेहनत से काम भी करते हैं लेकिन फिर भी चापलूसी करने वालों को ही अधिक महत्व दिया जाता है।

ऐसे लोगों के कारण ही भारत देश आज भी विकासशील ही बना हुआ है वह अभी तक विकसित इसीलिए नहीं हो सका क्योंकि ईमानदारी से काम करने वालों की संख्या एक तो पहले ही कम है और जो गिने-चुने है भी तो हमारे देश में उनका हौसला बढ़ाने के स्थान पर उनका मजाक ही उड़ाया जाता है।

उनके कदम भी अपने कर्तव्य पथ से भटकने लगते हैं और भटके भी क्यों ना ? जब आराम से बैठने वालों की वाहवाही होगी और काम करने वालों की तौहीन तो भला वह ईमानदार व्यक्ति कब तक अपनी ईमानदारी बचाएगा ? कब तक अपनी मेहनत की रोटी खा पाएगा? हराम की खाने वालों की और उसका मन क्यों नहीं ललचाएगा ?


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