कहानी मेरे मन की
कहानी मेरे मन की


यह कहानी मेरे मन की मैं बड़े ही भारी मन से लिख रही हूं। जब से पता चला है कि निक्की(मेरी बेटी) के पापा मुझे लेने अगले हफ्ते शुक्रवार को आने वाले हैं तभी से मन बहुत भारी और बेचैन सा है । समझ नहीं आ रहा कि इसको यह बात कैसे समझाऊं कि बस तेरे भारी होने से ससुराल जाने की तारीख थोड़ी ना बदल जाएगी। कहने को शादी हुए 4 साल हो गए पर अभी भी मन न जाने क्यों यहीं अटका है । ढाई महीने गुजर गए पर लगता है जैसे अभी ढाई दिन ही तो हुए हैं यहां रहते हुए। हालांकि ससुराल में किसी भी चीज की कमी नहीं यहां से बहुत अधिक सुख और सुविधाएं हैं वहां, पर फिर भी न जाने मायके का मोह मन से क्यों नहीं जाता। यह पता है कि अब बाकी की सारी जिंदगी वही कटेगी पर फिर भी आखिर मन इस बात को क्यों नहीं समझता? क्यों बिना बात भारी हुए जा रहा है? गुजरता हुआ हर एक दिन मन को बस यही समझाते हुए बीत जाता है कि जितने दिन यहां हूं कम से कम उतने दिन तो खुशी से बिता लूं। क्यों 4 दिन पहले से ही जाने का गम मना रहा है, पर इसे समझाने का कोई फायदा नहीं । क्योंकि ये अच्छे से जानता है कि वहां पापा के हाथ की गरमा-गरम कड़क चाय का प्याला नहीं मिलेगा , वहां मां के हाथों से सिर की मालिश नहीं मिलेगी। वहां कुछ मिलेगा नहीं बल्कि बहुत कुछ देना ही होगा सबको । और यहां चाहे यह सब ना भी मिले तब भी यहां से जाने का दिल ही नहीं करता और करेगा भी कैसे जहां जिंदगी के 25 साल बिता दिए उस जगह को भूल पाना, उस जिंदगी को भुला पाना इतना आसान भी नहीं। जिस कमरे में जाती हूं उसे जी भर कर देखने के लिए वही अटक जाती हूं । विदा हुए 4 साल बीत गए पर फिर भी लग रहा है जैसे पहली बार विदा हो रही हूं ।आते समय जितनी खुशी सामान बांधने पर हो रही थी अब जाते समय उसी सामान को फिर से समेटने में उतना ही दुख हो रहा है। पता नहीं यह मेरे साथ ही होता है या दुनिया की सभी बेटियों की यही कहानी है।