Lokanath Rath

Tragedy Classics Thriller

3  

Lokanath Rath

Tragedy Classics Thriller

बचन (भाग -उन्नीस )....

बचन (भाग -उन्नीस )....

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महेश जी ने सुचित्रा जी के घर से निकल के सरकारी दप्तार गए और उनकी अबतक का सारे शुल्क का चालान भर दिए। वहाँ से वो आने के वक़्त विकास जी को फोन किए और बोले, " आप जो दुकान का मालिकाना सरोज के नाम करने की बात बोल रहे थे, उसे कैसे करूँगा? और अगर कोई आपके पहचान का वकील है तो मुझे उनके पास अगर लेकर जाएँगे तो आपकी बहुत मेहरबानी होगा। मैं इसको जल्द से जल्द निपटना चाहाता हूँ।" विकास जी उनका तकलीब समझ रहे थे।उन्होंने महेश जी को बोले, " आप परेशान मत होना। आज शाम को दुकान बन्द करके आप दुकान की सारे कागज लेकर वक़ील साहब के घर के पास पहुँच जाइएगा, मैं आपको उनका पता लिखवा देता हूँ।मैं भी तब तक यहाँ से निकलकर वहाँ पहुँच जाऊँगा। शाम को आठ बजे से उनका काम शुरू होता है। उनके साथ बात करके वो जैसे बोलेंगे वैसे कर लीजिएगा।" इतना बोलके विकास जी ने वक़ील साहब का पता महेश जी को लिखवा दिए।

महेश जी फिर अपनी दुकान के लिए निकले। तब तक शाम के पाँच बज चुका था। वहाँ पार वो देखे की सरोज के साथ आए हुए गुन्डे हसीं मज़ाक कर रहे है और धूम्रपान भी कर रहे है। उनको घुसा आ रहा था और बहुत तक़लिब भी होरहा था। दुकान के अन्दर जाकर महेश जी दुकान की सारे कागज को इकट्ठा किए, बैंक का भी सारे खाता और चेकबुक को साथ मैं रख लिए। दूर से महेश जी देख रहे थे की सरोज और उसका साथिओं को उनकी कोई परवा नहीं था। कुछ पुराने ग्राहक उनको देखकर आए पर उनलोगोंको देख के चले गए। फिर भी सरोज को कुछ फरक नहीं पड़ा। तब महेश जी को समझ मैं आया की असल मैं सरोज को इस दुकान को चलाने के लिए नहीं पर उसका नशे का कारोबार के लिए चाहिए। वो दुकान से निकल के बाहर चले गए। जब शाम को सात बजने लगा तो महेश जी आकर सरोज को बोले, " अभी दुकान बन्द करने को है। फिर मैं तुम्हारा नाम पे कागज बनवाने के लिए जाऊँगा। अगर तुम लोग जाओगे तो मैं बन्द करके निकलूँगा।" तब महेश जी देख लिए की कुछ दारू की बोतल भी वहाँ उनके पास रखा हुआ है। उनकी बात सुनके सरोज बोला, " आप को जाना है तो जाइए। मैं दुकान बन्द करके जाऊँगा। कल ग्यारह बजे मैं आकर खोलूंगा।अभी हमें यहाँ कुछ काम करना है।" महेश जी को समझ मैं आगया सारी बाते। वो दुकान के सारे कागज लेकर चुप चाप वहाँ से निकल गए। अब अपनी इज्जत को और कियूँ खराप करेंगे।

महेश जी करीब आठ बजे की आसपास विकास जी का बताया हुआ पते पे पहुँच गए। थोड़ी डेर बाद विकास जी भी आकर वहाँ पहुँच गए।दोनों मिलकर वक़ील जी के पास गए। वक़ील जी ने विकास जी को देखकर मुस्कुराए और बोले, "क्या बात है विकास जी? आओ के नई काम कब सुरु कर रहे है? सुचित्रा भाभी कैसी है? अचानक आप का आना कैसे हुए?" तब विकास जी ने महेश जी का परिचय उन से करवा दिए और उनकी परेशानी के बारे मैं बताए। महेश जी को मिलकर वक़ील जी बोले, "अरुण और मैं दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे।आप उसका समदी है मतलब मेरा भी समदी है।मैं आशीष का शादी मैं गया था पर आप से ठीक से जान पहचान नहीं हुई थी। चिन्ता की कोई बात नहीं।आप अपनी दुकान के सारे कागज मुझे दे दीजिए,आप अपनी बेटा का नाम और उम्र बता दीजिए। मैं उस हिसाब से आज रात को सारे कागज बना दूँगा। आप सुबह दस बजे एक बार मुझे मिलके जाइएगा, मैं बताऊंगा आगे क्या और कैसे करनी है।हाँ, आपके बेटा सरोज को भी आकर मजिस्ट्रेट के सामने उस दस्ताबेज पर दस्तखत करना पड़ेगा।मैं कल बताऊंगा उसे कब लेकर आप कचेरी आएँगे।अब छोड़ दीजिए सारे उसके ऊपर। जो इतना गिर चूका है, उसे आप क्या मदत कर सकते है। क़ानून के हिसाब से ये दुकान उसके नाम पे होने के बाद आप की कुछ जवाबदारी नहीं रहेगा। उसके बाद वो जाने और उसका काम। आप बिलकुल फिकर मत कीजिए। " वक़ील साहब को महेश जी ने दुकान की सारे कागज दे दिए। वक़ील जी सब देखे और कहे, "आप कल मुझे मिलने के बाद जाकर बैंक का खाता बन्द कर दीजिए और उसका रशीद मुझे देने से मैं शुल्क बिभाग को जानकारी देकर आपका ये बिक्री शुल्क का रजिस्ट्रेशन को ख़ारिज करने को आबेदन करूँगा। उसके बाद आप दुकान सरोज के नाम करिएगा और वो उसका नाम पर बिक्री शुल्क का रजिस्ट्रेशन के लिए आबेदन कर सकता है, जो उसका मर्जी कर सकता है।" तब महेश जी सब बात समझ के वक़ील साहब को धन्यबाद दिए।फिर दोनों महेश जी और विकास जी वहाँ से निकलकर अपने अपने घर चले गए।


घर पहुँच के महेश जी हात मुँह धो लिए और एक जगह पर बैठ गए। उनको ऐसे देखकर अमिता देबी पास आकर बैठी और पूछी, "क्या हुआ? आज कुछ और काण्ड किआ क्या सरोज?" तब आँखों मैं आँशु लिए महेश जी बोले, " मेरे सारी मेहनत को वो बरबाद करने मैं लगा हुआ है।दुकान मैं उन गुंडों के साथ बैठ के दारू पी रहा है। उस दुकान को वो लोग एक अड्डा बना दिए है। मैं दुकान उसके नाम कर दूँगा, जो वो चाहाता है। फिर हम लोग गाओं चले जाएँगे। वहाँ कम से कम थोड़ी सुकून तो मिलेगा। हम मान लेंगे की हमारी सिर्फ एक बेटी है। उसके साथ सारी रिश्ते ख़तम। अभी यही हमारी लिए अच्छा होगा। तुम मुझे बचन दो की तुम मेरा साथ दोगी। सारी ममता को तुम्हे भूलना होगा।बताओ ऐसा औलाद को कौन अपना कहता है ? ऐसे वो तो सारे हद पार कर लिआ है। हम क्यूँ उसको लेकर परेशान होंगे ? " महेश जी के ये बात सुनकर अमिता भी रोने लगी और बोली, " मैं तो सदा आपके साथ हुँ और रहूँगी। ये बचन तो शादी के समय से हम एक दूसरे को दिए थे। पता नहीं ऊपरवाला हमें ऐसा औलाद कियूँ दिआ ? सायद मेरी परबरिस मैं कुछ गलती हुई है, जो आज उसके सज्जा हमें मिल रहा है। आपको जो ठीक लगे वही कीजिए।अब आइए खाना खा लीजिए।"इतना बोलकर अमिता वहाँ से उठके चली गई। उनकी पीछे अपनी आँखों से आँसू पोंछते हुए महेश जी भी चल।


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