Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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अवश्यंभावी

अवश्यंभावी

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अवश्यंभावी (Inevitable) ... वे अपरिचित थीं। मैंने उनको हाथ जोड़कर और वाणी से प्रणाम कहकर उनका अभिवादन करना आरंभ किया था। यह करने के पीछे भावना यह थी कि लगभग 75 वर्ष की अपनी आयु, जिसमें वे थोड़ा झुककर और एक हाथ में लकड़ी (Walking stick) लेकर चलतीं थीं तब कई लोगों की दृष्टि उनकी उपेक्षा करते दिखाई देती थी। मैं सोचता था, मेरी मम्मी अभी होतीं तो 82 वर्ष से कुछ अधिक की होतीं। मुझे लगता था वे मेरी माँ से 7-8 वर्ष ही तो छोटी थीं। 

मुझे उन पर पड़ती लोगों की उपेक्षित दृष्टि से, उनकी मनोदशा का विचार आता था। मैं सोचता था, शायद पिछले 20-25 वर्षों में उनको क्रमशः बढ़ती जा रही अपनी ऐसी उपेक्षा होने की आदत हो गई होगी। मैं सोचता था 20-25 वर्षों पहले जब वे पचास-पचपन वर्ष की रहीं होंगी तब कोई उनके सामने या आसपास होकर उनकी ऐसी उपेक्षा नहीं कर पाता होगा। 

वास्तव में तब उनके हाथ में वॉकिंग स्टिक नहीं होती होगी। तब वे आज जैसी थोड़ी झुककर नहीं चलती रहीं होंगी। वे तब अपने पूरे कद अर्थात 5 फुट 6 इंच की आकर्षक, क्रमशः प्रौढ़ होती जा रही महिला रहीं होगी। उनके अभी के वर्तमान को देखकर, मैं कल्पना करता था कि उनका गौर वर्ण ऐसा रहा होगा कि उन्हें देखने वाला कोई अपरिचित संशय में निश्चित पड़ता होगा कि वे भारतीय हैं या यूरोपियन?

उनका यह विवरण लिखने का मेरा आशय यह है कि वे पचास वर्ष की आयु में तब 35 से अधिक की नहीं लगती रहीं होंगी। वे जिस संभ्रांत परिवार की लगती हैं उससे लगता है, 25 वर्ष पहले जब मोबाइल फोन आने आरंभ हुए थे तब उनके पास मोबाइल का आरंभिक वर्सन का नोकिया सेल फोन अवश्य रहा होगा। तब देश में गिने चुने व्यक्तियों के पास मोबाइल फोन रहे होंगे इसलिए वे अनेकों की फोन बुक में नहीं रहीं होंगी। अन्यथा जैसा आज देखने में आता है, एक आकर्षक नारी के कांटेक्ट लिस्ट में, सब अपना स्थान देखना चाहते हैं। वैसा ही उनके साथ हुआ होता। वे फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर होती तो उनके हजारों समर्थक (Followers) होते। ये जिनके कॉन्टेक्ट लिस्ट में होतीं, वे लोग उन्हें अनेकों ग्रुप्स में जोड़ते। अर्थात उनकी आसपास के लोगों में उपस्थिति (Presence) की, आज जैसी अनदेखी नहीं होती। 

इन सब बातों से मुझे अच्छा नहीं लगा था कि उनकी ऐसी उपेक्षा हो। अन्य लोग उनकी प्रजेंस को महत्व देते हैं या नहीं, मुझे लगा था कम से कम मैं तो यह नहीं करूँ। मुझे प्रातः कालीन भ्रमण में और भी कुछ 75-80 वर्षीय स्त्री-पुरुष जीवन से इसी तरह संघर्ष करते हुए वॉकिंग स्टिक लेकर चलते मिलते हैं। उन सभी की ऐसी ही शारीरिक एवं मानसिक दशा होती होगी। 

मैं इस कहानी में, इनको उन सबका प्रतीक मानते हुए, कहानी का मुख्य पात्र (नायिका) बनाकर इनकी लिख रहा हूँ। 

जब कुछ दिन हुए तो मुझे ऐसा लगने लगा कि मेरा अभिवादन करते हुए पास से निकलना इन्हें अच्छा लगने लगा था। अब वे इसकी प्रत्याशा में, स्वयं मुझे आशीर्वाद देने की मुद्रा में, जिस हाथ में छड़ी नहीं उसको मेरी ओर उठा देतीं थीं। मेरा प्रणाम करना और उनका ऐसे आशीष देना लगभग एक साथ होता था। इससे मुझे लगता था कि मैं अगर उनको किसी दिन नहीं मिलता तो निश्चित ही उनकी दृष्टि मुझे खोजती होगी। 

अब वे मुझसे कुछ बात करने लगीं थीं। वे स्पष्ट हिंदी कह रहीं थीं। इससे मुझे उनका भारतीय होने पर संदेह नहीं रह गया था। वे इस आयु की हैं फिर भी वे अपनी प्रति उदासीनता होने पर भी, स्वयं समाज के प्रति उदासीन नहीं हुईं थीं। उन्होंने मुझसे कुछ बार बातें कीं थीं। इन्होंने मुझे कहा था, बच्चे पौधों से पुष्प तोड़ते हैं आप ऐसा करते देखो तो उन्हें मना किया कीजिए। एक बार इन्होंने पानी का अपव्यय (Wastage) होते देखा तो भी मुझे गॉर्ड(/JLL) से करने के लिए कहा था। वे अपनी उपेक्षित हो जाने की वय में भी, अपनी समाज चेतना का परिचय देते हुए, समाज की उपेक्षा नहीं करतीं थीं। उन्हें क्या था, शायद 15-20 या इससे कुछ वर्ष अधिक जीना था, फिर भी वे आगामी समय में होने वाली पानी की समस्या के प्रति जागरूक थीं। 

अब मैं जब सपत्नीक वॉकिंग में होता था, उनका हमें आशीर्वाद देना, मुस्कुराहट सहित होता था जैसे वे कह रहीं हों, आप दोनों की जोड़ी बने रहे। 

मैं अब सन 1972 में वे क्या रहीं थीं इसकी कल्पना करता हूँ तो लगता है वे निश्चित ही तब विवाहिता होने के बाद ससुराल आ चुकीं होंगी। इन्हें ससुराल वालों को अपनी बहू और जिन महोदय की वे पत्नी थीं, इनको इस रूप में पाकर ये सभी गर्व करते रहे होंगे। वे स्वयं भी सुखी रहतीं होंगी और इनको तब आगे अपना जीवन बहुत दिखाई देता होगा। 

यह और बात थी कि तब बड़ा सा दिखने वाला इनका जीवन तेजी से ऐसे बीत गया होगा जैसे किसी की मुट्ठी में बंद बालू (रेत) निकल जाती है। तब इनको देख कर इनके परिचित परिवार यह चाहते होंगे कि उनके घर में इनकी जैसी ही सलोनी सुंदर बहू आ जाए। कुल मिलाकर उस समय का यथार्थ इनका ऐसा रहा होगा कि ये जहाँ भी जातीं होंगी वहाँ इनके आसपास के लोग इनको अपने बीच देखकर चमत्कृत से रह जाते होंगे। 

ऐसे अनुकूल समय में इनको कभी कल्पना नहीं रही होगी या अगर होती भी होगी तो उसे, वे अपने मन से झटक देतीं होंगी। निश्चित ही वे विश्वास नहीं कर पाती होंगी, इनके इसी जीवन में एक समय वह भी आएगा तब इन्हें चलते हुए अपने साथ वॉकिंग स्टिक रखनी होगी। 

अब मैं इनके समय को और पीछे ले जाते हुए देखता हूँ। जब ये सोलह वर्ष की किशोरी रहीं होंगी। उस समय लड़के रहे व्यक्ति इनके रूप-लावण्य पर सम्मोहित होकर, इन्हें अपनी आँखों में बसाए रखते होंगे। तब की लड़कियाँ सोचतीं होंगी कि काश! उन्हें भी इनके जैसा रूप मिला होता। उनमें से कुछ लड़कियाँ तो इनके भाग्य से ईर्ष्या भी करतीं रहीं होंगी। 

तब अगर यह फेसबुक होता तो इनकी फ्रेंड संख्या कुछ ही दिनों में 5000 की हो जाती और ऐसे में, इन्हें अपनी आईडी (पेज) एक पब्लिक फिगर जैसी निर्मित करनी होती। इस पेज पर इनके फॉलोवर संख्या हजारों/लाखों में हो जाती। 

अब मैं समय की घड़ी को वहाँ तक पीछे ले जाता हूँ जब ये दो तीन वर्ष की नन्हीं बालिका रहीं होंगी। ये बार्बी डॉल जैसी आकर्षक और सुंदर रहीं होंगी। इनके मम्मी-पापा, दादा-दादी भाई-बहन आदि, इन्हें देख देख कर अति प्रसन्न रहते होंगे। ये सबकी चहेती रहीं होंगी। इन्हें हर समय साफ और महँगे कपड़ों में रखा जाता होगा। इन पर सबका लाड़ दुलार बरसता रहा होगा। इनके पास खिलौनों के ढेर लगे होते होंगे। इनके मुख से जिस बात की फरमाइश निकलती होगी, वह तुरंत एवं अवश्य ही पूरी की जाती होगी। 

लिखने का आशय यह कि अपने जन्म से चालीस वर्ष की वय तक इन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि इसी जीवन में एक समय वह आएगा जब जमाना इनके तरफ से उदासीन रहेगा। 

इनकी कहानी लिखने के बाद अब मैं हमारे बीच आज की दो तीन वर्ष की नन्ही बालिकाओं की कल्पना करता हूँ। वे भी इनके (बालपन) जैसे ही, आज अपने अपने मम्मी-पापा कि इनकी जैसी ही लाड़ दुलारी होंगी। ये मेडिकल साइंस कितनी भी उन्नति कर जाए मगर आज की इन छोटी छोटी सी बालिकाओं को इनके जैसी ही अवस्थाओं से गुजरना होगा। और जब तेईसवीं सदी अर्थात सन 2200 आएगा तब उनमें से अनेकों की शारीरिक दशा, आज की इनकी दशा जैसी होगी। वे लाख चाहेंगी कि वे समाज के उपेक्षित वर्ग में नहीं रहें किंतु उनको उपेक्षित होना होगा। 


यह सब की अवश्यंभावी जीवन कहानी, मैं पाठकों को डराने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। अपितु इस हेतु लिख रहा हूँ कि यदि हमें किसी प्रकार से उपेक्षित रहना पसंद नहीं है तो हम यह अच्छी परंपरा बनाएं, जिसमें किसी की उपेक्षा नहीं की जाती हो। हम परंपरा बनाएं कि हम किसी का दिखावे का आदर नहीं अपितु हृदय से आदर करते हैं। ताकि जब हमारी वृद्धावस्था आए तो हम उपेक्षित नहीं रहें। हमें अपने जीवन में किसी की, अपने प्रति उदासीनता नहीं सहना पड़े।


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