" असर कला, साहित्य और संस्कृति का ..."
" असर कला, साहित्य और संस्कृति का ..."
किसी भी स्थान की कला, साहित्य और संस्कृति का सीधा-सीधा असर वहाँ पर निवास करने वाले रहवासियों के आचार-विचार व व्यवहार पर होता है, यह बात मुझे अपनी हाल ही की कला, साहित्य और संस्कृति से समृद्ध भोपाल शहर की यात्रा के दरमियान अनुभव करने को मिली।इस अनजान शहर में मेरा पहली बार जाना हुआ था। सो मन में कई तरह की बातें चल रही थीं, तरह-तरह के विचार चल रहे थें। मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि बहुत ही कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा चीज़ों को जानना और समझना है। मैं जैसे ही बस से उतरा तो कुछ ऑटोरिक्शा वाले आ गए और बोले, " भाई साहब कहाँ चलना है ? " मैंने यूँ ही कहा, " मुझे कोई लेने के लिए आ रहा है। " जैसे ही मैंने ये कहा, एक ने भी दुबारा से किसी भी तरह की जोर-जबरदस्ती नहीं की। सब अपने-अपने हाल में व्यस्त हो गए। यानी किसी भी तरह की झिकझिक और किचकिच की नौबत ही नहीं आयी।
अब मैंने सोचा आगे क्या करूँ ? 3-4 जान-पहचान वाले भी थें। अगर किसी को बताता तो सारा का सारा समय खाने-पीने और बेवजह की औपचरिकताओं में ही चला जाता। फिर तो उस स्थान की कला, साहित्य और संस्कृति को समझने और महसूस करने का मौका हाथ से छूट जाता। और मैं इस मौके को किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहता था। सो मैंने किसी को भी कुछ भी न बताने का फैसला किया। तो अब क्या करें ? भीतर से आवाज़ आयी, "वो रहा हेयर सैलून, शेविंग करवा लेते है।" फिर क्या था, पहुँच गया उस दुकान पर। वहाँ पर पवन नामक प्यारे से इंसान से मुलाकात हुई। पवन ने शेविंग बना दी। शेविंग बनाने के बाद मैंने उनसे कुछ जानकारी चाही तो पवन ने मुझे आसपास की जगहों, घूमने की जगहों, आने-जाने के साधनों और आस-पास में ही खाने और ठहरने के स्थानों के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी बहुत ही आत्मीयता और प्यारे तरीके से मुहैया करवा दी। पवन को मैंने कहा, "आपने तो मेरी अधिकांश समस्याओं को हल ही कर दिया। पवन ने कहा, " जी ऐसी कोई बात नहीं है, अपनी तो यही कोशिश रहती है कि किसी को कोई दिक्कत ना हों। अगर आपको कोई दिक्कत पेश आए तो मुझसे वापस संपर्क कर सकते हों। " यकीन मानिए, पवन के इस कथन से असीम सुकून और आनंद का अहसास हुआ।
मैं पवन को 50 की बजाय 100 रूपये देते हुए रवाना हुआ। हालाँकि पवन ने बड़ी ही मशक्कत के बाद अतिरिक्त राशि लेना स्वीकार किया। क्या गूगल-वूगल में ऐसी संवेदनशीलता या आत्मीयता हो सकती है ? नहीं ना...!! खैर..., आगे बढ़ता हूँ।
वहाँ से फ़ारिग होकर मैंने यथा-संभव पैदल ही यहाँ की कला, साहित्य और संस्कृति को समझने और महसूस करने का फैसला किया। पैदल चलते-चलते जब भी किसी से कुछ जानकारी मांगता, तो वो बड़े ही प्रेम, तहज़ीब और इत्मिनान के साथ जानकारी देता। हर बार ही ऐसा हुआ। दो-तीन व्यक्तियों ने तो अपने दुपहिया वाहन पर लिफ्ट देने की पेशकश भी की। फिर मैंने यहाँ की सरकारी रेड बस और ई-रिक्शा में भी सफ़र किया। सभी जगह लगभग-लगभग ये ही अनुभव रहा। शाम की ही बात थी। लाल घाटी चौक स्थित माँ दुर्गा मंदिर के पास खड़ा था। वहाँ आरती का समय हो गया था, सो मैं भी वहाँ के स्थानीय निवासियों के साथ उस आरती में शामिल हो गया। वहाँ पर भी अजनबी होने का बिलकुल भी अहसास नहीं हुआ। यानी सभी जगह एक ही जैसा माहौल देखने को मिला। अंततः मेरा निष्कर्ष ये ही रहा कि किसी भी स्थान की कला, साहित्य और संस्कृति का सीधा-सीधा असर वहाँ पर निवास करने वाले रहवासियों के आचार-विचार और व्यवहार पर होता है।
