" सांत्वना..."
" सांत्वना..."
सर्दियों का मौसम हो और मेवों, ड्राई फ्रूट्स व तिल-गुड़ से बनी तरह-तरह की चीज़ों का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। हर सर्दियों में में इनकी बिक्री और खपत ज़ोरों पर रहती है। एक दुकान पर हमेशा की तरह इस सीजन में भी इन चीज़ों की बिक्री ज़ोरों पर थी। उस दुकान के शोकेस में विराजमान गजक ने रेवड़ी को उदास देख कर उसकी मायूसी का कारण जानना चाहां। फिर उन दोनों में बातचीत होती है।
गजक - "क्या बात है रेवड़ी..?, आजकल जब देखो, उदास और मायूस नज़र आती हो...।"
रेवड़ी - "कुछ नहीं दीदी, ऐसी कोई बात नहीं है ।"
गजक - "नहीं ऐसा नहीं है.., ज़रूर कोई न कोई तो बात है। शायद तू बताना नहीं चाह रही है। देख, अपनी व्यथा बताएगी तो मन हल्का हो जायेगा । क्यों बेवज़ह मन पर बोझ रखती है।"
इस पर रेवड़ी की रुलाई फूट पड़ी और उसने सिसकते हुए बताया - "क्या बताऊँ दीदी.....। जब से हमारे देश में “रेवड़ी संस्कृति” की बात होने लगी है, तब से लोग मुझे बहुत ही तुच्छ और हेय दृष्टि से देखने लगे हैं। राजनीतिक गलियारों में मेरे नाम का इतना दुरुपयोग हुआ है कि लोग मुझे देखते ही नाक-भौं सिकोड़ते हुए हिकारत भरी नज़रों से देखने लगते हैं। ये ही वजह है कि मैं पिछले काफ़ी अरसे से हाशिये पर आ चुकी हूं । हमारे देश में चुनावों के वक्त सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाले वाक्य “ फ्री की रेवड़ी.... फ्री की रेवड़ी.... फ्री की रेवड़ी....” ने मुझे इतना ज़लील और प्रताड़ित किया है कि मुझे कभी-कभी अपने नाम पर ही शर्मिंदगी-सी महसूस होने लगती है ।"
ये सबकुछ सुनकर गजक भी दुखी हुए बिना न रह सकी। फिर वो सांत्वना देते हुए रेवड़ी से बोली -
देख रेवड़ी, परिवर्तन संसार का नियम है। समय सबका बदलता है। एक दिन तेरा भी समय बदलेगा और अच्छे दिन आएंगे।
