दिमागी फ़ितरत
दिमागी फ़ितरत
अधिकांश तौर पर ये पाया गया है कि मानव मस्तिष्क की कार्यप्रणाली कुछ यूँ है कि उसे कुछ करना न पड़े , इसके लिए वो पता नहीं क्या-क्या सोचने को तैयार है | उसे कुछ करना न पड़े, इस पर तो वो तरह-तरह से सोच सकता है | लेकिन कुछ करना पड़े तो कैसे करे, इस पर सोचने के लिए वो आसानी से तैयार नहीं होता है | इंसानी दिमाग हमेशा इस कोशिश में लगा रहता है कि हे भगवान मुझे कूछ करना न पड़े ..! इस बात को इस बहुत ही सटीक उदाहरण से बहुत आसानी के साथ समझा जा सकता है |
कई लोग घर से 1 किलोमीटर दूर जाने के लिए टू व्हीलर पर निकलेंगे तो वो हेलमेट नहीं लगाते है | बोलेंगे, " पास ही तो है, क्या फ़र्क पड़ता है...!! " फिर होता ये है कि ट्रैफिक वाले से बचने के लिए छोटी-मोटी गलियों से होते हुए 4-5 किलोमीटर तक चल लेंगे, लेकिन हेलमेट नहीं पहनेंगे..!! कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि हेलमेट साथ तो होता है, लेकिन उसे पहना नहीं जाता है | इंसान के भीतर से आवाज़ आती है, " ट्रैफिक वाला मेरे लिए ही बैठा है क्या..? " आदि....आदि....आदि....|
दुनिया में ऐसे छोटे-छोटे उदाहरणों की बिलकुल भी कमी नहीं है |
कुल मिलाकर सार ये है कि मानव मस्तिष्क कुछ न करने यानी ठाला बैठने का विकल्प पहले चुनता है | अब तो ये किसी भी इंसान की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वो अपने मस्तिष्क को सही निर्णय लेने के ली अभ्यस्त करें |
