Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Abstract Drama Tragedy

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Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Abstract Drama Tragedy

अंतिम इच्छा का संवर्द्धन

अंतिम इच्छा का संवर्द्धन

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आज की चिकित्सा व्यवस्था, अच्छे अच्छों की जेब फार दे। चाहे वो पैसा वाले रतन चाचा हो या साधारण हस्ती वाली रुखिया चाची। शायद ऐसे में वही होगा जो रुखिया चाची का हुआ। चलो जो भी हुआ आखिर रुखिया चाची की अंतिम इच्छा पूरी हो ही गई। पर इस तरह पूरी होगी, ये कभी सोचा न था। 

रुखिया चाची केवल नाम की रुखिया थी। स्वभाव से तो वह मुहल्ला की जान थी। नौकरी नहीं करती अतः साधारण पढ़ी-लिखी ही कहलाती पर उच्च शिक्षा प्राप्त और देहाती दादी-नानी दोनों के गुणों से युक्त। समय-समय पर अपने गुणों का प्रदर्शन कर किसी का भी भला करने में पीछे नहीं रहती। हालाकि अपने इस गुण के कारण उनके लिए लोग अकसर उलटी-सीधी बातें करते रहते। चाची को किसी की बात से कोई असर नहीं होता। 

समय के साथ चाचा बिछुड़ गए संसार से और चाची बड़े घर के मकान से। अब वो 'बेचारी' कहलाने लगी। अकेले बड़े घर के मकान में कैसे रहती अतः उसे छोड़ कर बच्चों के साथ एक तीन कमरे में मकान; जिसे फ्लैट का नाम दिया गया उसमें सिमट गई। भरे-पूरे, घर-आँगन और बड़े फुलवारी वाले सजे हाता की मालकिन चाची, की सामंजस्य स्थायपित करने की क्षमता ने, चंद दिनों में ही, उन्हें एक कमरे में खुश हो कर रहने लायक बना दिया। बालकनी में तुलसी के एक पौधे के साथ दो-चार अन्य फूल लगा उनकी देखभाल में मगन रहने लगी। अब अपना ज्ञान कागज कलम के सहारे छोड़ दी। समय के साथ एक दिन पोती ने उनके ज्ञान को पुस्तक का रूप दे दिया -‘दादी माँ के ज्ञानी नुस्खे'।

 चाची अब फ्लैट में भी मशहूर हो गई। हर उम्र के लोग उनसे मिलने आते, तरह-तरह की ज्ञान की बातें सुनते और उनसे कुछ सीख कर जाते। चाची घर गृहस्थी में भरसक मदद करती रहती। दोपहर और रात्रि विश्राम का समय उनका निजी होता जिसमें वो अकसर अतीत की वादियों में टहलने निकल जाती। अतीत की स्मृतियाँ ज्यादा तर बहुत सुखद होती है। शायद यही कारण था कि जब चाची सो कर उठती तो शांत और प्रसन्न रहती।

बचपन की चुलबुली रुक्मिणी यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही शांत और समझदार हो गई। हर बात को तौल कर बोलती किन्तु सत्य बोलने में कभी न कतराती। धीरे-धीरे रुक्मणी के गुणों की सुगन्ध फ़िज़ा में फैल गई। सुंदर सुशील बहू की कामना मन में रखने वालों की पहली पसंद रुक्मिणी होती। पर रुक्मिणी तो एक थी, उसे तो कान्हा के घर ही जाना था। कन्हैया चाचा के घर में उसकी खुशबू समा गई। 

कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर डॉ. की डिग्री ले आनन्द किशोर सबसे पहले अपने गाँव की ओर रुख किए। दादाजी के खुशी का ठिकाना नहीं रहा, पोता डॉ बन कर सबसे पहले उनका आशीर्वाद लेने जो आया। पुत्र से मिलने , रामजी बाबू अपनी पत्नी के साथ दस दिनों की छुट्टी लेकर गाँव आए। पूरे दस दिनों तक गांव में जलसा सा माहौल बना रहा। राम जी बाबू की छुट्टी समाप्त होते ही एक बार घर उदास हो गया। रामजी बाबू पुत्र के साथ शहर लौट गए क्योंकि उन्हें वहां भी लोगों को पार्टियां देनी थी और पुत्र के लिए एक अच्छा क्लिनिक बनवाना था। 

चंद दिनों में ही डॉक्टर बाबू गाँव लौट आए। उन्हें लगने लगा शहर में तो अनेक डॉक्टर हैं, उनका फर्ज अपने ग्राम वासियों के प्रति होना चाहिए। गाँव के लोग आज भी चिकित्सा के अभाव में झाड़-फूंक के हवाले दम तोड़ रहे हैं। दादाजी की खुशी दुगुनी हो गई। होती भी क्यों न। पोता इतना ज्यादा सामाजिक स्वभाव वाला जो निकला।

दूर दूर के गाँवों में डॉ आनन्द किशोर मशहूर हो गए पर अपने 'औरस' ग्राम में तो वो 'कन्हैया' भाई के नाम से ही जाने जाते। कोई भी बीमार पड़ता तो हर दूसरा व्यक्ति बोलता - 'कन्हैया भाई के पास जा।'

समय के साथ दादाजी का साथ छूटा। अब गाँव के सारे घर की जिम्मेदारी कन्हैया और रुक्मिणी पर आ गई। अब तक कन्हैया और रुक्मिणी तीन पुत्रों के माता-पिता बन चुके थे। सभी बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में हुई और उच्च शिक्षा के लिए वे लोग अपने दादाजी रामजी बाबू के घर रहे। उसके आगे की शिक्षा पिता के समान कलकत्ता में रह कर पूरा किए। 

रुक्मिणी ब्याह कर आई तो बहू रानी नाम पड़ा। वो अपने रुक्मिणी नाम को सुनने को तरस जाती। जब कोई मायका का आता तो वो पुलकित हो उठती। अनेक संदेश के साथ कभी चाचा, कभी मामा तो कभी कोई भाई आता रहता। मायका में ददिहाल और ननिहाल दोनों तरफ केवल लड़के ही थे। ददिहाल में चार चाचा के बीच रुक्मिणी अकेली थी और ननिहाल में भी लड़की के नाम और रुक्मिणी अकेली ही मानी जाती क्योंकि उसके बाद सबसे छोटे मामा को एक बेटी थी जो उससे मात्र अठारह साल छोटी थी। एक दिन जब सबसे बड़े भैया बड़े चाचा के बड़े बेटा रुक्मिणी से मिलने आए तो संदेश की पिटारी को गिनने में, गिनती कम पड़ रही थी। रुक्मिणी प्रसन्नता से कभी भैया के पास जाती तो कभी शर्मा कर पांव देहरी से अंदर कर लेती। छोटी ननद आई हुई थी। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा -"भाभी मायके के संदेश ने तो आपको अति पुलकित कर दिया है आज।" झट रुक्मिणी ने कहा - "नहीं आज सबसे बड़ा संदेश मेरे कानों को मिल रहा है 'मेरा नाम'। यहाँ तो अपना नाम ही भूलने लगी हूँ।"

"आपका मतलब नहीं समझी भाभी, कोई अपना नाम कैसे भूल सकता है ।' ननद बोल पड़ी। 

थोड़ा सकुचा कर पर खुशी से रुक्मिणी ने कहा - "मुझे यहाँ अत्यंत खुशी मिलती है पर यहाँ मेरा नाम मुझसे छीन जाता है। जब कोई मायका से आता है खास कर बड़े लोग और वो मुझे मेरे नाम जब 'रुक्मिणी' से पुकारते हैं तो मुझे लगता है मेरा वजूद मुझे मिल गया।" जानती हैं , अब समझ में आ गया पहले के लोग अपने दादी नानी के नाम नहीं जानते थे आखिर क्यों।

  रिनी(छोटी ननद) ने अपने भाभी के मन की बात दादाजी को बताई तो उस दिन सबसे पहले दादाजी ने उसे 'रुक्मिणी' नाम से पुकारा और वे सदा उसे 'रुक्मिणी' नाम से ही पुकारते रहे, जबकि दादीमाँ और अन्य लोग बहू रानी ही काफी दिनों तक पुकारा। समय के साथ बहू रानी, रुक्मिणी भाभी बनी फिर रुक्मिणी चाची और यौवन की दहलीज पार करते करते न जाने वो कब रुक्मिणी चाची से रुखिया चाची बन गई। पर अब उन्हें अपना ये नाम भी भाने लगा था। 

 समय के साथ रुखिया चाची भी अब थोड़ी अस्वस्थ्य रहने लगी। चाची शरीर से थोड़ी अस्वस्थ्य थी पर उनका हँसमुख स्वभाव वैसा ही बना रहा। बीमारी कोई जटिल नहीं होती पर हमेशा किसी न किसी रूप में चाची से चिपकी रहती। चाचा डॉक्टर थे अतः चाची को डॉक्टर के यहाँ दौड़ नहीं लगानी पड़ती। धीरे-धीरे अपनी बीमारी और चाचा की दवा ने चाची को भी आधा डॉक्टर बना दिया। उसमें जब उनके घरेलू नुस्खों का समावेश होने लगा तो चाची, चाचा से भी अच्छी डॉक्टर हो गई। बची- खुची कमी गूगल महाराज से पूरे होने लगे। क्योंकि अब गाँव भी पहले वाला गाँव कहाँ रहा। इंटरनेट की अच्छी व्यवस्था होने से चाची खुद तो नेट से मित्रवत हुई ही, गाँव की अनेक बहू बेटियों को भी इससे जोड़ा और नई-नई जानकरी हासिल करने में मदद करने लगी।

एक बार चाची पेचिस और जोड़ों के दर्द से काफी दिनों से परेशान चल रही थी। हींग अजवाइन काला नमक में और कुछ-कुछ मिलाकर पेट का इलाज करती अजवाइन की पोटली से जोड़ों को सेंकती रहती। ऐसे में भी हँसते रहती। एक दिन हँसते हुए कही- “मैं तो सदा डॉक्टर साहब से कहती रही मेरे शरीर को मेडिकल के बच्चों को दान में दे दो। तरह-तरह के बीमारियों से ग्रसित शरीर भी कैसे सुचारु रूप से चल रहा है इस पर रिसर्च करें तो आगे अच्छी-अच्छी दवाइयाँ बनेगी जिससे लोगों को कम कष्ट झेलना पड़ेगा। देखो न डॉक्टर साहब कहते हैं शरीर का दान मरने के बाद ही होता है। अस्पताल में भर्ती मरीज पर ही डॉक्टर अपना रिसर्च करते हैं। अब मैं इतने रोगों से ग्रस्त हूँ पर ऐसी अवस्था में नहीं पहुँच जाती कि अस्पताल में भर्ती करना पड़े।”

चाची वृद्धावस्था में भी बहुत खुशमिजाज थी। किसी बात को कहने का अंदाज इतना अच्छा होता कि कोई भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता। एक दिन चाची बड़े मजे से कहने लगी - “ जानती हो आज फिर पेचिस मुझसे मिलने आ गई और घुटना दर्द बार-बार शौच जाकर उसका स्वागत करने देने में बाधक बन रहा था। मैं अजवाइन वाले तेल से घुटना की मालिस कर रही थी तो पोती आकर कहती है- ’दादी कुछ मत करो। पस्त हो जाओगी तो अस्पताल में भर्ती कर देंगे। तुम्हारे शरीर पर डॉक्टर को रिसर्च का मौका मिल जाएगा और तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाएगी।’ अब बताओ हमारी इच्छा को ये लोग मजाक बनाते हैं।” 

मय की मार से कोई नहीं बचा। लाख जतन से रहने वाली चाची को भी एक दिन अस्पताल का साथ निभाना पड़ा। विभिन्न रोगों से ग्रसित शरीर का क्रिया-कलाप डॉक्टरों के लिए एक कौतूहल का विषय था। डॉक्टर नित्य नए रिसर्च करते और चाची के बच्चे पैसा पानी की तरह बहाते जाते। चाची की बड़ी हवेली जो अब तक मासिक आमदनी की श्रोत थी एक मुश्त पैसे के लिए बिक गई। बच्चे चाची को कुछ बताते नहीं पर पढ़ी-लिखी होने के कारण उन्हें अपनी बीमारी पर खर्च हो रहे पैसे का आभास तो था। वो हर दिन कहती इस प्राइवेट हॉस्पिटल से हटा कर सरकारी में ले चलो। ये लोग नई-नई दवा के नाम पर लूट रहें हैं। पर बच्चे अपने कर्तव्य का निर्वहन बिना कुछ सोचे हुए किए जा रहे थे। 

 माँ की समुचित सेवा के लिए बहू ने नौकरी का परित्याग कर दिया। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया। चाची कभी वेंटीलेटर पर तो कभी वापस आ आई.सी.यू. में विश्राम करतीे। वेंटिलेटर और आई.सी.यू. पर ऐसे आती-जाती रहती मानो कभी कमरा तो कभी बरामदा में दिल बहला रहीं हों।

एक दो दिन करते-करते पूरा माह हो गया। चाची के साथ सभी की कमर टूट गई।

एक दिन सुनने में आया हार कर बच्चे उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दिए। पड़ोसी अपना धर्म निभाने के लिए अस्पताल का पता पूछने जब उनके घर गए तो घर में ताला लटका पाया। कुछ दिनों के बाद नए पड़ोसी किराएदार के रुप में पहुँचे। मकानमालिक और उनकी माँ का कोई पता नहीं चला।

एकाएक एक दिन पेपर में न्यूज़ पढ़ी - "सरकारी अस्पताल में मृत वृद्धा का कोई वारिस नहीं। दो दिनों तक वृद्धा के मृत शरीर को परिजन की आस में रखा गया फिर शरीर को मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया।”

नीचे एक दूसरे कॉलम में वृद्धा की तस्वीर और उस नर्स का बयान था जिसने उसे अस्पताल में पहली बार देखा और भर्ती किया। तस्वीर में वृद्धा का चेहरा झुर्रियों से भरा और बीमारी से झुलसा था जिससे विशेष पहचान नहीं की जा सकती थी। उसके पास पड़ी पोटली से एक पुस्तक झांक रही थी - “दादी माँ के ज्ञानी नुस्खे” जिस पर रुखिया चाची का दमकता चेहरा व्याप्त था। 

नर्स ने बयान में कहा - “सात दिन पहले यह वृद्धा इसी पोटली पर सर रख अस्पताल के काउंटर के खुलने के इंतजार में वहीं पड़ी थी। जब मैंने उसे जगाया और पूछा क्या बात है तो धीरे से अपनी कमजोर आँखों को खोल कर कहा - ‘वो सब लूट रहे थे। बोटी नोच रहे थे। मैं किसी तरह बच कर भाग निकली ’ और भी कुछ कह रही थी जो अस्पष्ट था। कहते-कहते वो बेहोश हो गई।"

भर्ती कर उसका इलाज चल रहा था। जब कभी होश में आती तो कहती बेटा आ रहा है। एक दिन कही - ' यदि मर जाएँगे तो मेरा शरीर दान कर देना.... । बच्चे पढ़ें...गे....। हमेशा बात अधूरी ही कर पाती।

 तार जोड़ने बैठी तो याद आया लगभग सात दिन पहले का ही न्यूज़ - शहर के नामी अस्पताल के आई.सी. यू. वार्ड से एक वृद्ध मरीज बिना पैसा चुकाए फरार। परिजन का भी पता नहीं।

इस घटना के एक दो दिन बाद गुमशुदा में एक रिपोर्ट ' मेरी अठत्तर वर्षीय माँ गायब हैं। पता बताने वाले को इनाम दिया जाएगा।' पता के तौर पर केवल मोबाइल नम्बर दर्ज था।

सारी घटनाओं को मिलाने के बाद सोचने को विवश हो जाती हूँ कि कहीं ऐसा तो नहीं की पैसा के अभाव की जानकारी होते ही चाची किसी तरह प्राइवेट अस्पताल के चंगुल से निकल सरकारी अस्पताल इस आस में पहुँच गई कि बच्चे उन्हें ढूंढ लेंगे। नहीं मिलने पर वर्षों की अधूरी आस कि मेरा शरीर किसी की पढ़ाई के काम आए, पूरा हो जाएगा। पर बच्चे किसी को बिना कुछ बताए घर छोड़ क्यों चले गए ..? पैसे का अभाव या कुछ सोची समझी चाल ..?


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