Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Inspirational

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Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Inspirational

पात्र के सवाल

पात्र के सवाल

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“मैम! कहानी लिखना और कहानी का पात्र बन जीवन जीना बिलकुल अलग है।”

       कौन हैं आप? मैं आपको पहचानी नहीं?

  “मैम ! आप मुझे नहीं पहचानेंगी, पर मैं आपको पहचानती हूँ। मैं आपकी कहानी की एक अदृश्य पात्र हूँ।”

       ये कैसे हो सकता है कि मैं अपने पात्र को ना पहचानूँ। मैं कहानी लिखने बैठती हूँ तो पहले अपने हर पात्र से परिचय करती हूँ फिर आगे बढ़ती हूँ।  “हाँ ! सिर्फ कल्पना में, सड़क से गुजरते वक्त किसी बूढ़े, बेबस या हँसती -खिलखिलाती जोड़ी को देख, किसी पर्वत, नदी-नाले को देख कलम उठाई और कल्पना में डूब सुन्दर शब्दों से उसे नवाजा। कभी उस पात्र की जिंदगी को जी कर देखिए, उस नदी-नाले, पर्वत के पास कुछ क्षण नहीं, कुछ दिन बिताइए जिसमें सुख-दुःख सबका मिश्रण हो तब सही जिंदगी का चित्रण होगा। यूँ तो हम हमेशा आभासी ही होंगे।”

   “ मैं पूछती हूँ कहानीकार समाज की विकृति में डूब उसके वर्णन ऐसे करते हैं कि उसे पढ़ लोग सोचने को बाध्य हों, अपनी शांति भंग कर लेते हैं। कहानीकार खुद को उन विकृतियों से अलग कैसे कर पाते हैं..?” आप कहना क्या चाहती हैं..?

 “वही, जो आप समझना नहीं चाहती। नारी अत्याचार के विरुद्ध आपने झंडा गाड़ दिया, तिलक-दहेज़ के खिलाफ अनेकों रचनाएँ की। तो आप अपने उपर होने वाले अत्याचार को क्यों नहीं रोक पाई? अपनी बेटी के लिए तिलक की मोटी रकम दे सुदर्शन दामाद क्यूँ खरीदा..?” मेरी बेटी …

“हाँ…, मैं आपकी बेटी की ही बात कर रहीं हूँ।”

      आप मेरी बेटी को जानती हैं, तो उसकी कमजोरी भी जानती होंगी..? वो मूक है।

मूक लड़की की शादी कितना कठिन काम है, सो पैसा के बल पर मैंने ऐसा योग्य लड़का ढूंढ लिया जो उसे जीवन भर खुश रख सके। “हमारे समाज में संस्कार के नाम पर पढ़ी-लिखी, डॉक्टर, इंजिनियर लड़की को भी मूक बनना पड़ता है। जैसे आप एक कमी के कारण तिलक को बढ़ावा दी वैसे ही बिना कमी के भी योग्य से योग्यतम वर की चाह में तिलक प्रथा कायम है “आपकी लेखनी तो बहुत बोलती है पर आप क्यों मूक बन जाती हैं..?”

  मैं.. और मूक..क्या कह रहीं हैं…?

   “ क्यों आप मूक नहीं ...गर नहीं, तो अपने ऊपर अत्याचार….इसके लिए क्या जवाब है..?”

      मेरे ऊपर..; मुझ पर भला कौन अत्याचार कर रहा..?

  “यदि आप पर कोई अत्याचार नहीं होता तो यदा कदा आपके घर से ऊँची आवाज़ आप दोनों की क्यों आती है..?”

      अरे ! आप तो अजब बात कर रहीं हैं, घर है, विचारों का आदान-प्रदान तो होगा ही। इस आदान-प्रदान में स्वर ऊँची-नीची होना स्वाभाविक है।’

  “मैं आपके समान साहित्यकार तो हूँ नहीं जो जब चाहूँ अपनी बातों में मिश्री घोल लूँ और जब चाहूँ उसे तीखी कर दूँ। मैं तो जो देखती हूँ, जो महसूस करती हूँ वही कह रही। यदि आवाज़ की उतार चढ़ाव ही है तो अकसर आपकी आँखें क्यों नम हो जाती है।”आप हैं कौन ..कहाँ रहती हैं जो मुझे इतना क़रीब से जानती हैं..?

“ आपकी साया.., जो कभी आपके पीछे और कभी आपके बगल में रहती है।”

  “आज सुबह चाय के समय आपको अपने पति से बक-झक नहीं हो रही थी क्या..?”

 अरे वो तो चलता है। मैं सुबह-सुबह घड़ी के अनुसार काम पर लग जाती हूँ, उसी क्रम में चाय बना कर बड़े प्यार से पति को उठाया। मुझे क्या पता था रात उनको देर से नींद आई और वो अभी और सोना चाह रहें हैं। इसी बात को अच्छा से भी कह सकते थे, पर उन्होंने ताना दे दिया- ‘खुद तो घोड़ा बेच कर सो जाती हो तुम्हें पता भी है मैं रात में नींद नहीं आने से मैं कितना परेशान रहा।’ अब बताओ बिना बताए कोई कैसे जान सकता कि अगले को क्या परेशानी है। मुझे भी गुस्सा आ गया। थोड़ी बक-झक हो गई। पर , जीवन में इतना तो चलता  “तुम्हारे लाख मनाने पर भी वो बिना नास्ता किए ही चले गए। उन्होंने तो ऑफिस में कुछ खा लिया किन्तु तुम तो भूखी रह गई।”

अरे, यही तो है पत्नी धर्म।

“पत्नी धर्म... ! पति का कोई धर्म नहीं होता...? कुछ दिन पहले ही तो तुम्हारी भी तबियत खराब हुई थी, तुमने महरी से खाना बनवा लेने को कहा। घर को सर पर उठा लिया था उन्होंने, याद है न ! या पत्नी धर्म में भूल गई ?”

अरे, ये सब छोटी-छोटी बातें हैं घर गृहस्थी में सामंजस्य के लिए इसे ध्यान नहीं दिया जाता।

 “घर-गृहस्थी में सुख-सुविधा और सामंजस्य की जिम्मेदारी सिर्फ पत्नी की है..? पति का कोई कर्त्तव्य है या नहीं..?”

है न, पति का धर्म है धन अर्जित करना, घर की सुख-सुविधा के लिए बाहरी व्यवस्था करना।

  “नौकरी तो तुम भी करती हो और जो औरतें नौकरी नहीं करती वो दिन भर घर-परिवार को सजाने संवारने में अपना बहुमूल्य समय देती, क्या वो धन अर्जन नहीं ? घर के पिछले भाग की दीवार टूट गई थी, जन मजदूर के साथ माथा खपा कर तुमने ही उसे ठीक करवाया, ये तो बाहरी काम थे?”

उफ़्फ़! पता नहीं तुम कहाँ से आई हो, तुम्हें समझाना दीवार से सर टकराने के बराबर है “बिलकुल सही फरमाया, पर मेरे लिए नहीं अपने लिए। नारी के ऊपर होने वाले अत्याचार को ख़त्म करने की बात, नारी को सशक्त करने की बातें करना और लंबा-चौड़ा लेख लिखना जितना सरल है उसे कार्यान्वित करना उतना ही कठिन, क्योंकि इसके लिए समाज की सोच को बदलने से पहले नर नारी के सोच को बदलनी होगी। नारी को अपनी अहमियत समझनी होगी। तुम्हारे कहने का तातपर्य क्या है, हम नारी, पुरुषों के ख़िलाफ़ तलवा तान लें?

   “कदापि नहीं, पर उन्हें और अपने को समझाए कि नारी वस्तु नहीं जो जब जी चाहा जैसे चाहा प्रयोग कर लिया। लड़कियों के साथ-साथ लड़कों को भी संस्कार की शिक्षा देना उतना ही आवश्यक है। दोनों को जन्म देने में और परवरिश करने में माँ को सामान कष्ट उठाने पड़ते हैं फिर दोनों में भेद-भाव क्यों? लड़कियों की शादी में दहेज़ के रूप में यदि उसके माँ-बाप उनके घर को सजाने-संवारने की जिम्मेदारी उठाते हैं तो लड़के के माँ-बाप की जिम्मेदारी क्यों न      पिता के धन में बेटा-बेटी दोनों का हक़ है। बेटा को धन ज़ायदाद के रूप में पिता के मरने के बाद मिलता है और बेटी को दहेज़ के रूप में दे दिया जाता है। इसमें बुराई क्या है “ज़ायदाद जितना बचता है वही बेटा का होता है, पर दहेज़ के रूप में पिता के शरीर से खून भी चूस लिया जाता है। दहेज़ रूपी दानव निर्धन और धनवान दोनों को एक ही तराजू पर तौल देते हैं। अतः पिता की ज़ायदाद का बँटवारा चाहे जैसे भी हो दहेज़ रूपी दानव का वध अनिवार्य है अन्यथा लड़का को नीलाम या बिका हुआ माल समझा जाना चाहिए। पुरुषों की नजर में नारी का सम्मान होना चाहिए न की दोहन की प्रवृति। अपनी लेखनी से समाज को नई दिशा प्रदान करें न की विकृतियाँ दर्शन  “बुरा मत मानिए, अब मैं आपकी कमी गिना रही हूँ, जो नारी होकर भी आप नारी पर करतीं हैं।”

  मैं भला नारी पर क्यों अत्याचार करूँ..?

 “अपनी कमी कभी नहीं दिखती, मैं इंगित करती हूँ - आपकी बेटी तीन माह के बच्चे को गोद में लेकर आई। उसकी परेशानी देख आपका कलेजा मुँह को आ गया। नतनि की पूरी जिम्मेदारी आपने उठा लिया और बेटी को आराम करने को कहा।"

    “गर्मी से बेहाल बेटी सलवार-कुरता और दुपट्टा उतार थ्री क्वाटर पैन्ट और टॉप पहन आराम फरमाने लगी। जहाँ जी में आता लेट जाती जहाँ मन किया बैठी और बहू, नन्द की खिदमत में पूरे कपड़ो में लिपटी आवभगत करती रही। क्या बहू के लिए मौसम बदल गया था ..?”     अरे, अब पहले वाली बात कहाँ। हमलोग तो साड़ी पहन सर पर घूँघट रखा करते थे। मेरी बहू तो सलवार-कुरता पहनती है। अब बहू है तो दुपट्टा तो रखनी ही होगी।

   “यही तो मैं आपको कहना चाह रही थी, कुछ नहीं बदला। पहले की बहू यदि घूँघट करती थी तो बेटियाँ भी थ्री क्वाटर नहीं पहनती थी। बहू और बेटी में तब भी अन्तर था आज भी है। यदि बहू को भी आप बेटी के समान गर्मी से निजात पाने की छूट देती और गर्मी में सभी मिल कर काम कर लेती तो बहू की नजर में आपका मान बढ़ जाता। पर आप सास बनी रही , माँ कहाँ बन पाई।”  “आप यदि चाहेंगी कि बहू अपनी माँ के जैसा आपसे बर्ताव करे, दिल में कोई राज न रखे तो पहल आपको करनी होगी।” 

    “क्यों चुप हो गई..? मेरी बात कड़वी लगी..? मैं यही कहना चाह रही थी कि कहानी लिखना और उसका पात्र बन जीवन जीना दोनों में बहुत अंतर हैं।”  हाँ मेरी साया, मेरी मार्गदर्शिका आज से मैं अपनी हर लेख, कहानी को नया आयाम दूँगी और सह लेखक और लेखिकाओं से भी अनुरोध करुँगी की नए समाज के निर्माण के लिए सामाजिक विकृतियों पर प्रकाश डालने के साथ-साथ उन्हें दूर करने के उपायों को ढूंढने का प्रयास अपने अंदर पहले करें फिर समाज को दिशा दें।

ओ मेरी साया आज के सुझाव और गोष्ठी के लिए आपको धन्यवाद।

" मैम मेरी बात समझने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। किंतु जाते-जाते एक बात याद दिला दे रही हूँ लेखन में पात्र चयन कर पहले उस पात्र के जीवन को जी कर देख लें फिर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करें।

 धन्यवाद मैम, आपकी नई रचना का इंतजार रहेगा…

   

नोट - कहानी लिखते वक्त पात्र का चयन कैसे हो इस पर आधारित कहानी।



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