कोविड-डर के साये में
कोविड-डर के साये में


सुबह-सुबह खबर मिली दो दिनों से माँ, पेट दर्द के कारण ठीक से खाना नहीं खा रही थी। हर तरह की जांच हो गई। कुछ खास नहीं निकला। हेमोग्लोबिन कम था और हाँ ऑक्सीजन लेबल भी कम हो गया था। दिन भर सबकी सांसे अटकी रही, जब 'डॉ सुलभ' ने कहा कि -" नहीं हो तो माँ का एक बार कोविड टेस्ट करवा लीजिए।"
कोविड टेस्ट के लिए स्वस्थ्यकर्मी आने वाले हैं ये सोच आँख के सामने वो दृश्य गुजरने लगा - "पूरी तरह पी ई पी किट में लिपटे दो स्वस्थ्यकर्मी आए, माँ की तरफ बढ़, उन्हें सहारा देकर खड़ा किया और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए घर से बाहर लेकर चल दिए। सभी मूक दर्शक बन खड़े रह गए।"
दहशत और भावना के बीच उलझा मन, भरा हुआ था। हर पल दौड़ कर जिसके गले लग जाया करती थी, आज उसी जिंदा इंसान को अपने पांव पर चल कर श्मशान की ओर भेज रही थी। मन ही मन अपने आप को धिक्कार रही थी, इस जीवन से क्या फायदा जो जन्मदात्री को इस तरह निरीह बना कर अकेला छोड़ दे।
पति से इजाजत ले मैं अपना सामान पैक कर ली, कि कोविड हो या कुछ किसी को तो सेवा करनी ही पड़ेगी। अभी मैं अपने आप को सबसे उपयुक्त समझ रही हूँ इस कार्य के लिए। अतः मैंने अपने आप से कहा मुझे बॉर्डर पर जाने वाले सिपाही की तरह आगे आना है।
घर से निकलने से पहले भाई-भाभी का फोन आया, आप अभी नहीं आइए। मन विचलित तो था ही मुख से निकला क्यों ..?
बिना कोविड शब्द बोले सवाल जवाब प्रारम्भ। हर प्रश्न और उत्तर अकाट्य। सभी मूक हो गए।
अब मुझे अपने अंतर्मन से द्वंद्व करना था। तुलना करना प्रारम्भ की, कि मेरे इस प्रेम के वशीभूत हो आगे बढ़ने पर कौन ग्रसित हो रहा है, तो पाया कि सीधे डॉक्टर भाई, क्योंकि अब डर के साये में वो अपने किसी कम्पाउंडर को माँ के कमरे में नहीं जाने दे रहा। खुद ही सूई और स्लाइन लगा रहा है। तो क्या ऐसी स्थिति में वो मुझे माँ के कमरे में सोने देगा। कदापि नहीं और घर के दो कमरे में ही ए.सी. है जो आज एक अनिवार्य वस्तु हो गई है। अतः अपना कमरा छोड़ वो कहीं भी अन्यत्र रात बिता कर माँ की सेवा करता रहेगा।
दिनभर की शारीरिक व मानसिक थकान के बाद पल भर भी सही तरह से वह देह सीधा भी न कर पाए ये कहाँ तक उचित ? फिर मन में प्रश्नों की बौछारें चलने लगी। तो इसका उपाय...ये विचार आते ही मैं उसकी बात मानने को तैयार हो गई कि 'कोविड टेस्ट आ जाए तब तुम आना।'
"मैं समझ नहीं पाई, मैं उसकी बात मान रही थी या डर गई थी..?"
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जब कोई काम न हो, तो तरह-तरह के विचार दिमाग में आते-जाते उसे थका देता है और फिर नींद कब अपने आगोश में ले लेती पता ही नहीं चलता। हालाँकि ये भी सच है कि ऐसे समय में जब नींद आती है तो वह शुकुन नहीं भयावह स्वप्न ही देती है। चिंताग्रस्त हो दोपहर में बिस्तर पर अधलेटी थी जाने कब आँख लग गई और शरीर धीरे-धीरे सिमट कर गठरी बन बिस्तर पर लुढ़क गया। मैं देख रही थी, पी ई पी किट पहने दो स्वस्थ्यकर्मी आगे आए। माँ को बड़े आराम से बैठाया फिर खड़ा कर घर से बाहर ले जाने लगे। माँ भी बुत बनी चुप-चाप उसके साथ चली जा रही थी। पीछे मुड़ कर हमलोगों की तरफ देखी भी नहीं। कहीं भी जाने से पूर्व अपनी छोटी दस वर्षीय पोती से या तो साथ चलने को कहती या जरूर पूछती कि तुम्हारे लिए क्या लाऊँगी, आज उसके तरफ भी नहीं देखी...
मुझे तो वो दृश्य मुगले-आजम पिक्चर का अंतिम दृश्य से लग रहा था - अनारकली को अकबरे-आजम के सिपाही लिए जा रहे हैं, वो बुत बनी उसके साथ जा रही है और सलीम बेबस खड़ा है जैसे हमलोग। सलीम को होश नहीं था, उसे बेहोशी की दवा सुंघाई गई थी और हमलोग डर के मारे बेहोश थे। सभी एक दूसरे की हिफ़ाजत को सोच अपनी कमजोरी छुपा रहे थे।
एक सूक्ष्म वायरस कोविड ने हमें कितना कमजोर बना दिया कि हम निष्ठुर बन माँ को अपने पांव पर चल श्मशान की ओर जाते देखते रहे। ये अंतिम विदाई ही तो थी, क्योंकि कोविड को हराना इतना सरल नहीं। हर जंग सरलता से हम जीत सकते हैं जब अपनों का साथ हो। यहाँ तो अपने ही साथ छोड़ रहे।
मैं तो अपने आप पर क्रोधित हूँ कि बैठ कर अँगुली हिलाकर शब्दों से खेलना कितना सरल है और आगे बढ़ कर उस दृश्य को रोकना
कठिन ..?
वो मेरी माँ है, मैं या मेरा बेटा नहीं इसलिए साधन सम्पन्न होने के बाद आज मैं अर्थात हमारी पीढ़ी, बुढ़ापा में अपनों को अकेला महसूस करा रही है। इसके लिए हम खुद दोषी हैं। कोविड हमें यही सिखाने आया है। कोविड ने डंडा घुमाकर कहा हार गई न मुझसे। छोड़ दिया न माँ को... कल तुम्हारी बारी है...। कल तुम्हें लेने आऊँगा...
अपनी बारी सुन चीख निकल गई और डर के मारे आँख खुली।
डर से कांप रही थी। घिग्घी बंध गई थी। मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी। चाय के बहाने अपने को शांत कर रही थी। पर सच्ची शांति तो तब मिली जब माँ का कोविड रिजल्ट निगेटिव आया।माँ का कोविड रिजल्ट नेगेटिव है जान मन संतोष से भर गया। अभी जब शांति से बैठी हूँ तो अपने आप से मैंने सवाल किया -'कोविड रिजल्ट माँ का निगेटिव आया या हमलोगों का...?'