अनपढ़ कौन??
अनपढ़ कौन??


जीतू (जीत सिंह ) के तीन लड़के। सबसे छोटा नरेश, बीच वाला सुशील सबसे बड़ा रतिराम।
रतिराम अलमस्त, दुनियादारी से दूर। आज में जीना। जीतू के पास काफ़ी ज़मीन जायदाद, औसत घर,जानवर सब कुछ था। सुनते हैं ज़मीन बंटवारे में जीत सिंह ने छोटे भाई को बेवकूफ बनाकर,अपने नाम ज़्यादा ज़मीन लिखवा ली थी।
जीतू का पहनावा एक दम गरीबों वाला। लंबा सा खद्दर का कुर्ता (जो शायद महीने बाद ही धुलता हो ) खुजली करते रहना, हर वक़्त।नीचे मात्र एक लंगोट। ग़रीब से गरीब आदमी को मैने इस वेष भूषा में नहीं देखा (कम से कम अपने गांव में तो नहीं) चमड़े का जूता चर्र चर करता, इतनी आवाज़ कि एक किलोमीटर दूर से पता चल जाता कि जीत सिंह की सवारी आ रही है।
मेहनती बहुत, सुबह चार बजे से खेत में हाज़िर।खेत भी छांटे हुए गांव के बीच (रखवाली का झंझट नहीं )!
धान वाले खेत जो नीचे की ज़मीन पर थे, पानी के टैंक के एकदम अगल बगल,मतलब पानी लगाने में मेहनत कम। मौका लगते ही किसी के पेड़ की टहनियां काट कर ले आना अपने जानवरो के लिए (खासकर दो किस्म के पेड़ों की टहनियां जानवरों को ज़्यादा पसंद है एक बिहुल और दूसरी खड़की)।
एक बार घर में आ गए तो बीड़ी/चाय पिये बगैर जाएंगे ही नहीं।
अम्मा/चाची देख कर भुनभुनाती, निकलने की कोशिश करती तो तुरंत जीत सिंह की आवाज़ आती फलानी बहू चाय तो बनाओ।
इन्हीं महान विभूति की आठ संतानों,पांच लडकियों और तीन लड़कों में सबसे बड़े रतिराम।
रतिराम उर्फ रत्तू स्वभाव से अपने बापू से एक सौ अस्सी डिग्री उलट। किसी को भी मदद की ज़रूरत, रत्तू हाज़िर। पूरा दिन किसी दूसरे के खेत में काम करते रहते। बस खाना भर दे दो। जीत सिंह को अक्सर रत्तू की धुनाई करनी पड़ती। सुशील चालाकी में जीत सिंह से चार क़दम आगे, असली औलाद था। वो बाप को भी ठग लेता था, कोई भी कहानी बना कर।
रत्तू को हम लोग चाचा बोलते हैं, गांव में जैसे होता है, कोई ना कोई रिश्ता जोड़ लिया जाता।
दादा जी ने घर में जागरण करवाया था, सारे रिश्तेदारों और गांव के सभी लोगों को बुलाया गया था। रात भर कीर्तन होगा और दूसरे दिन सब का खाना। रत्तू चाचा पंद्रह दिन पहले से हम लोगों के घर आने लगे मदद कराने। उनके बापू ने अब जान लिया था, कि वो नहीं सुधरेंगे, सो मार/पिटाई बंद कर दी। पर कभी कभी धमकाते तुझे मैं जायदाद से बेदखल कर दूंगा। रत्तू चाचा कोई ज़वाब नहीं देते।
उन पंद्रह दिनों में काफी समय रत्तू चाचा के साथ गुज़ारा था। मसाले कूटने, धान कूटने, चावल, दाल बिनने वो मुझे साथ ले लेते, जब भी बन पड़ता।
एक दिन शाम को धान कूट रहे थे। उनके हाथ में नया मूसल था, मेरे पास पूराना। नए मूसल खुरदरे होते हैं, छाले पड़ जाते हैं। कई बार उनसे बोला कि बीच बीच में मूसल बदल लेते हैं, पर वो नहीं माने, अरे तुम्हे इतनी आदत नहीं है, पुराना मूसल तुम ही रखो। ठक ठक बारी बारी ऊखल में मूसल टकराते, एक लय के साथ। आपस में नहीं टकराने चाहिए। परफेक्ट टाइमिंग चाहिए होती। फिर भूसी को उड़ाना। हवा के झोंके से। यह काम रत्तू ही करते। जब चावल के दाने ऊखल से बाहर छिटकते, रत्तू चाचा मुस्कुराते हुए बोलते, यह चिड़ियों के भाग्य का। देखो ऊपर वाले ने सब का इंतजाम किया है, मैं मुंह देखता रह जाता उनका, क्या यह अनपढ़ हैं? क्या इस आदमी ने कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखा, जैसे कि सब बताते हैं। या शायद स्कूल में बहुत सारी बातें जो पढ़ाई जानी चाहिए, नहीं पढ़ाई जाती।
एक दिन जब लाल मिर्च कूट कर जार में भर ली। रत्तू चाचा ऊखल धोने लगे। अरे यह क्या कर रहे हो चाचा? अरे मिर्च का असर अगले धान कूटने वाले के चावलों में आ जाएगा, हो सकता हो उसके घर कोई छोटा बच्चा या बूढ़ा मिर्च से परेशान हो जाए। मैं उनका मुंह देखता रह गया। अनपढ़ कौन वो या हम लोग ?
बाद में सुना सुशील ने जीत सिंह की मौत के बाद रत्तू चाचा को घर से भगा दिया। जायदाद में हिस्सा न देना पड़े इसलिए। दो साल पहले जब गांव गया तो पता चला रत्तू चाचा की मौत हो गई है। मरने से पहले अपने हिस्से की सारी ज़मीन नरेश के नाम कर दी थी। ज़मीन की रजिस्ट्री नरेश के नाम करने के हफ़्ते भर बाद ही चलते फिरते दूसरे गांव में रत्तू चाचा दुनिया से चले गए। क्या भगवान भी निश्चल हृदय रत्तू चाचा को पहले से बता दिए ? उनके जाने (वापिस लौटने)का समय।