संजय असवाल

Abstract Others

4.0  

संजय असवाल

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अंग्रेजी ना हुई आफत हो गई

अंग्रेजी ना हुई आफत हो गई

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सर्दियों के इस मौसम में, जब हम शांत लम्हों में एक जगह बैठ चिंतनशील होते हैं तो विचारणीय प्रश्न मन मस्तिष्क में कौंधने लगता है..........!


 मुझे अंग्रेजी नही आती मैं क्या करूं? 

ये प्रश्न विचारणीय है अक्सर हर किसी अंग्रेजी ना जानने वाले आज के युवक युवतियों के मुंह से यहां वहां सुनने को मिल जाता है और हो भी क्यों ना आज अंग्रेजी स्टेटस सिंबल जो बन गई है। हर कोई चाहे आर्थिक रूप से या सामाजिक रूप से सक्षम हो या ना हो उसे अंग्रेजी बोलना,दूसरों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ समाज के हर हिस्से में एक भेड चाल से शुरू हो गई है। क्या गरीब क्या अमीर हर कोई अपने बच्चों को अंग्रेजी बोलते देखना चाहते हैं और अंदर ही अंदर खुद से गर्वित महसूस करना चाहते हैं। अंग्रेजी बोलने वाले हिंदी बोलने वालों से खुद को ऊंचा मानते हैं और स्वयं भी हिंदी बोलने से बचते हैं। अब चोट लगने पर ओ मां या उई मां के स्थान पर oh shit बोलने फक्र महसूस करते हैं। अंग्रेजी बन गई है स्टेटस सिंबल और हिंदी हो गई अन कूल।

हमने अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाला लेकिन उनकी अंग्रेजी को अपने आत्मा में इस कदर रचा बसा दिया है कि हमारी पहचान हमारी मानसिकता इस अंग्रेजी की गुलाम हो गई है। हमारे आपसी विचार विमर्श, वार्तालाप में ये अंग्रेजी बेधड़क आने लगी है, फिल्म हो नाटक हो, वेव सीरीज हो हर जगह अंग्रेजी भाषा का उपयोग इस कदर होने लगा है कि लोग खुद को अंग्रेजी के साथ देखना चाहते हैं, उन्हें गौरवान्वित होने का अवसर मिल जाता है जब लोग कहते हैं wow ये कितना सोफिस्टिकेटेड है कितना कुल है क्या अंग्रेजी बोलता है भाई, जरूर अच्छे अंग्रेजी माध्यम स्कूल से पढ़ा लिखा होगा।

जबकि शुद्ध हिंदी बोलने वाले, हिंदी में वार्तालाप करने वाले को लोग दोयम दर्जे का या हंसी का पात्र समझने लगते हैं । यही मजबूरी हिंदी बोलने वालों को उनके आत्म विश्वास को झकझोर देती है। कहीं भी ऑफिस में जाइए अंग्रेजी में बोलिए सामने वाला कितना भी बड़ा अधिकारी होगा खुद ब खुद आपको इज्जत देने लगता है। इंटरव्यू में भले आप अपने विषय के ज्ञाता हो पर अगर अंग्रेजी में जवाब नहीं देते या अपने ज्ञान को अंग्रेजी में एक्सप्लेन नहीं कर पाते तो मात खा जाते हो नौकरी से भी और जिंदगी से भी। अक्सर हिंदी बेचारी इसी अंग्रेजी की खुन्नस झेलती है। अगर अंग्रेजी नही आती तो इसका दोष हिंदी को ही दिया जाता है। आप जीवन में हार गए या असफल हो तो इसका दोष भी हिंदी को ही दिया जाता है।

अंग्रेजी बेशक कूल हैं लेकिन हिंदी खूबसूरत है जो अपनी हिंदी भाषा का सम्मान नहीं करते या तो पाखंडी होते हैं या स्टेटस सिंबल के मारे अंधे होते हैं। बेशक अंग्रेजी आज समाज का अभिन्न हिस्सा है रच बस गई है लेकिन अपनापन जो हिंदी में है अंग्रेजी में नहीं...!

लेकिन इतना सब जानते हुए भी हम हिंदी बोलने से कतराते हैं। आज हिंदी मात्र 14 सितंबर तक सीमित हो गई है और अंग्रेजी पूरे साल मन मस्तिष्क में हावी हो गई है। " अंग्रेजी ना हुई आफत हो गई है" ।

आज इस भागते माडर्न युग में खुद को बेहतर दिखाने की चाहत लोग अंग्रेजी बोलना शुरू कर देते हैं। शराब के नशे में मन से कुंठित व्यक्ति अंग्रेजी बोलने लगते हैं। हिंदी बोलने में शर्म महसूस करना, मॉल में कपड़े या समान आदि लेते समय अंग्रेजी बोलना रेस्टोरेंट हो या फिल्म की टिकट लेते हुए अंग्रेजी ना आते हुए भी टूटी फूटी अंग्रेजी बोलते हैं। किसी को इंप्रेस करना हो तो अंग्रेजी बोलो। देशी प्रोडक्ट भी इंपोर्टेड टैग के रूप में खरीदना अपनी शान समझते हैं।

यही स्मार्टनेस की पहचान बन गया है।

लोग भूल जाते हैं हिंदी अपनत्व दिखाती हैं 

जबकि अंग्रेजी बोलना स्टेटस सिंबल है बेशक इसे दक्षता, कौशलता के रूप में, गतिशीलता के रूप में, ज्ञानवान के रूप में पहचाने जाने लगा है। और तो और अब आप अंग्रेजी किस एक्सेंट में बोलते हैं ब्रिटिश या अमेरिकन ये भी आपके स्टेटस सिंबल का एक मानक बन गया है। जबकि सच्चाई इससे कोशों दूर है ये सिर्फ भ्रम है मन की संतुष्टि के लिए। 

एक छलावा.................!!

अंग्रेजों के जाने के बाद स्वतंत्र भारत में साठ के दशक में लोहिया जी ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का सूत्रपात किया इस गुलामी की भाषा को दूर करने और भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलवाने के लिए पर भारतीय इस अंग्रेजी भाषा के इतने गुलाम हो गए थे कि उनका ये प्रयास असफल हो गया और भारतीयों ने ही हिंदी को रसातल में पहुंचा दिया।

दो दोस्त हिंदी और अंग्रेजी जब घूमने जाते हुए दुर्घटनाग्रस्त हो गए तो "हिंदी ने कहा मदद करो" हिंदी सबका भला सोचती है और अंग्रेजी ने कहा" help me" अंग्रेजी बस अपना सोचती है और कोई दूसरा जाए भाड़ में।


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