रिश्तों की पुकार.....
रिश्तों की पुकार.....
उत्तराखंड के पहाड़ों में बसा सीमांत गांव और गांव की कच्ची पथरीली गलियों से होते हुए एक कोने में छोटे झोपड़ीनुमा मकान में बुज़ुर्ग मां गौरा देवी हर शाम आंगन से दूर पहाड़ों पर सर्पीली सड़क की ओर निहारती रहती। उसका बेटा हरि सालों पहले एक अदद नौकरी की तलाश में शहर की ओर पलायन कर गया था। जाते समय उसने अपनी बूढ़ी मां को ढांढस दिया–(हे मां मी "अगली बग्वाल म घोर ओलू, तू थे कभी अकेला नि छोडुल").. ओ मां मैं अगली दीपाली में घर आऊंगा फिर कभी तुझे अकेला नहीं छोड़ूंगा। और ये कहते हुए हरि शहर चला गया। बूढ़ी मां उसका रास्ता देखती रहती पर वो दिवाली कभी नहीं आई। साल बीतते गए, मां लाचार होती गई, बाल सफेद हो गए, आंखों में मोतियाबिंद हो गया , मगर दिल में बेटे के लौटने की आस कभी धुंधली नहीं पड़ी। गांव में आस पड़ोस के लोग कहते, हे बोड़ी (काकी) हरि शहर जाकर बदल गया, तुझे भूल गया है।
लेकिन मां हर बात को मुस्कुरा कर टाल देती। बेटा है मेरा, जरूर आएगा… आज नहीं तो कल आयेगा पर आयेगा जरूर।
उधर शहर में हरि एक बड़ी पब्लिशिंग हाउस कंपनी में सेल्स का काम करने लगा। मेहनत लगन से दिन पर दिन कंपनी का विश्वास जीतता गया और एक दिन कंपनी ने उसे मैनेजर बना दिया। हरि कंपनी के लिए भाग दौड़ में लगा रहता, कंपनी के काम के सिलसिले में वो यहां वहां व्यस्त रहता। हरि के जीवन में ढेरों जिम्मेदारियां थी और कंपनी में ऊँचा पद… !
पर किसी को नहीं पता था हर रात हरि अपनी मां की पुरानी तस्वीर के सामने खड़ा होकर रोता था। हरि के मन में अपराधबोध था, पर शहर के मकड़जाल में इस तरह फंस गया था गांव लौटने का समय नहीं था। अक्सर सोचता इतना समय हो गया “क्या मुंह लेकर मां के पास जाऊंगा।"
मां ने मेरे लिए क्या-क्या सपने देखे थे और मैं यहां शहर की चकाचौंध में, व्यस्तता में इतना व्यस्त हो गया कि मां को ही भूल गया। वो बेचारी दिन रात मेरी राह देखती होगी कि मेरा हरि आयेगा। ये सोचकर हरि परेशान रहता था।
एक दिन उसकी कंपनी में “परिवार और रिश्तों पर एक कार्यशाला” आयोजित हुई। वक्ता ने हरि से एक सवाल पूछा —"अगर आज आपसे कोई आख़िरी बार मिलने आए तो आप किसे देखना चाहेंगे?"
सवाल सुनकर हरि का दिल कांप उठा…! उसकी आंखों में अपनी बूढ़ी मां का चेहरा घूमने लगा। हरि रात भर सो न सका और अगले ही दिन वो बिना कंपनी में बताए गांव की ओर चल पड़ा। गांव पहुंचा तो देखा घर के बाहर दरवाज़े पर भीड़ लगी थी। मां एक खाट पर लेटी हुई पड़ी थी। रिश्तेदारों से घिरी मां को देख कर हरि का दिल कांप गया। भागते हुए भीड़ से मां के पास पहुंचा और मां के पैरों में गिर पड़ा।
(हे मां मी आ ग्यो, त्यार हरि ये ग्या)..
“मां… मैं आ गया देख तेरा हरि आ गया।
बूढ़ी,थकी हुई,चेहरे पर अनगिनत झुर्रियों से लदी मां, उसकी आंखें अब भी अपने हरि का रास्ता ताक रही थीं।
मां की आंखों से आंसू थे,लेकिन होंठ खामोश और वही स्नेह भरी मुस्कान थी – घुत्तू चाचा ने हरि को ढांढस बंधाया और बोला,तेरी मां आखिरी वक्त तक भी यही रट लगाई थी कि
“मेरा हरि मुझे लेने एक दिन जरूर आएगा।" उसे एक दिन मेरी पुकार जरूर सुनाई देगी।
ये सुनकर हरि मां के पैरों में लिपट कर फूट फूट कर रोने लगा।
(बग्वाल: पहाड़ों की दीपावली
बोड़ी :काकी)
सीख:
रिश्तों की पुकार कभी बेवजह नहीं होती। समय चाहे कितना भी बदल जाए, लेकिन अपनों की दुआएं और इंतज़ार दिल की गहराइयों में गूंजती रहती है। अगर आज भी किसी अपने की याद दिल में हलचल मचाती है — तो देर मत करो… जाओ, रिश्तों की पुकार सुनो…
क्योंकि हो सकता है — कल बहुत देर हो जाए।
स्वरचित कृति:
*संजय असवाल*
(स.अ)
*देहरादून, उत्तराखंड*
