*गुमनाम क्रांतिकारी चौधरी उदमीराम*
*गुमनाम क्रांतिकारी चौधरी उदमीराम*
"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का यही बाकीं निशां होगा"।
देश के लिए सब कुछ कुर्बान कर देने का जज्बा महज इन दो पक्तियों को सुनकर आ जाता है, लेकिन हमारे इतिहास के कुछ ऐसे वीर शहीद हुए हैं जिनकी चिताओं पर न तो हर बरस मेले लगते हैं और न ही उनका कोई निशान इतिहास की किताबों में शामिल है। देश की आजादी से ऐसे गुमनाम नायकों में एक थे *चौधरी उदमीराम* हरियाणा के सोनीपत जिले के एक छोटे से गांव लिबासपुर का एक ऐसा सपूत जो अपने गांव के नंबरदार थे और दूर-दूर तक उनकी देशपरस्ती के किस्से मशहूर थे। चौधरी उदमीराम ने अपने गाँव के वीर योद्धाओं का एक संगठन बना रखा था, जो उन दिनों छापेमार युद्ध कर अंग्रेजों की नींद उड़ाए हुए था। क्रांति के उस दौर में चौधरी उदमीराम व उनके साथी अंग्रेजी हुकूमत के लिए खौफ का पर्याय बन गए थे।
उनके नेतृत्व में लगभग 22 नौजवान क्रांतिकारियों का एक संगठन अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध काम करता था,तथा उनके शोषण आत्याचारों के खिलाफ उन्हीं की भाषा में जवाब देता था। इस संगठन में चौधरी उदमीराम के अलावा गुलाब सिंह, जसराम, रामजस सहजराम, रतिया जैसे अनेक युवा क्रांतिकारी शामिल थे जो देश की आजादी में मर मिटने को तैयार बैठे थे। यह संगठन गांव के नजदीक लगते राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरने वाले अंग्रेजी अफसरों को ठिकाने लगाने के मिशन में लगा रहता था। इस संगठन के युवा क्रांतिकारी भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों लाठी, जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी तथा फरशे से यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते और उन्हें मौत के घाट उतार कर गहरी खाइयों व झाड़ में फेंक देते थे।
चौधरी उदमीराम व उनके साथियों का मानना था कि हथियार उठाए बिना हमें आजादी कभी नहीं मिल सकती, इसीलिए उन्होंने अपना जीवन देश को समर्पित करके हमेशा के लिए सिर पर कफन बांध लिया था। इन युवा क्रांतिकारियों की इस घातक रणनीति ने अंग्रेजी सरकार में हड़कंप मचाकर रख दिया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि अंग्रेजी सरकार लाख हाथ-पैर पटकने के बावजूद इन विद्रोह को अंजाम देने वालों का सुराग तक नहीं लगा पा रही थी।
चौधरी उदमीराम ने एक दिन साथियों सहित एक अंग्रेजी अफसर पर घात लगाकर हमला बोल दिया और उस अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेज अफसर के साथ उनकी पत्नी भी थीं। भारतीय संस्कृति के वीर स्तम्भ उदमीराम ने एक महिला पर हाथ उठाना पाप समझा और काफी सोच-विचार कर उस अंग्रेज महिला को लिबासपुर के पड़ोसी गाँव भालगढ़ के एक घर में बड़ी मर्यादा के साथ सुरक्षित पहुंचा दिया और ब्राहमण महिला(बाई )को उसकी पूरी देखरेख करने की जिम्मेदारी सौंप दी।
लेकिन बाद में अंग्रेज महिला ने ब्राह्मणी (बाई)से कहा कि अगर वह उसे पानीपत के अंग्रेजी कैंप तक किसी तरह पहुंचा दे तो उसे मुंह मांगा इनाम दिलवाएगी। ब्राह्मणी बाई ने इनाम के लालच में अंग्रेज महिला की मदद करना स्वीकार कर लिया और रातों-रात उस अंग्रेज महिला को एक मुखबिर की सहायता से पानीपत के अंग्रेजी कैम्प में पहुंचा दिया। कैम्प में पहुंचकर अंग्रेज महिला ने सभी गोपनीय जानकारियां अंग्रेजों को दे दी और यह भी बताया कि विद्रोह में लिबासपुर गांव के मुखिया चौधरी उदमीराम और उसके संगठन की अहम भूमिका है।
अंग्रेज अफसर की पत्नी और मुखबिर की सूचना पर अंग्रेजों ने उस गांव में धावा बोल कर चारो ओर से घेर लिया जहाँ सभी क्रांतिकारी छिपे हुए थे। इसके बाद अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को भयंकर यातनाएं दीं।
अंग्रेजों ने गांव के पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से टांगकर क्रांतिवीर चौधरी उदमी राम और उनकी पत्नी रत्नी देवी को तिल-तिल करके तड़पाया। कुछ दिनों तक हुए घोर आत्याचारों और दमन के पश्चात उनकी पत्नी ने पेड़ पर कीलों से लटकते-लटकते ही जान दे दी।
अंग्रेजी सेना ने अन्य क्रांतिकारियों को जीटी रोड पर लिटाकर बुरी तरह से कोड़ों से पीटा और सड़क कूटने वाले कोल्हू के पत्थरों के नीचे सरेआम रौंद दिया। इनमें से एक कोल्हू का पत्थर सोनीपत के ताऊ देवीलाल पार्क में आज भी स्मृति के तौर पर रखा हुआ है।
क्रांतिवीर चौधरी उदमी राम ने 35 दिन तक मौत से जंग लड़ी और 35 वें दिन 27 जून, 1858 को भारत मां का यह लाल इस देश व देशवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए आजीवन ऋणी बनाकर चिर-निद्रा में सो गया।