संजय असवाल

Inspirational

4.6  

संजय असवाल

Inspirational

जीवन संघर्ष: सफलता का आनंद

जीवन संघर्ष: सफलता का आनंद

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जीवन संघर्ष और उससे लड़कर मिली सफलता का आनंद क्या होता है हर कोई ये जानने को सदा उत्सुक रहते हैं। जीवन संघर्षों से मिली एक छोटी खुशी भी सफलता का आनंद प्रदान करती है।

जीवन में हर कोई सफल होना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है।हर व्यक्ति के जीवन में अनेक अवसर आते हैं जब वह सफलता का स्वाद चखना चाहता है और उसके लिए वह अथक परिश्रम करके अपना सर्वस्व न्यौछावर कर ऊंचे पायदान को हासिल करता है। लेकिन प्रश्न यह है कि सफलता है क्या? क्या ऊंचे मुकाम हासिल करना..! क्या धन दौलत कमाना...! क्या व्यवसाय में उन्नति करना..! शासन प्रशासन में शक्ति अर्जित करना...! समाज सेवी होकर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करना..! आखिर सफलता है क्या..? ये हर किसी को परेशान करता है। यदि मैं आपसे सफलता की परिभाषा पूछूँ, तो मैं जानता हूँ कि आपका उत्तर क्या होगा। आपका उत्तर यही होगा कि जिस उद्देश्य में हम लगे हुए है, उसको प्राप्त लेना ही सफल हो जाना है।

एक खिलाड़ी जब गोल्ड मैडल पा लेता है, एक विद्यार्थी जब परीक्षा में पास हो जाता है, इन्टरव्यू देने वाले को जब नौकरी मिल जाती है, मजदूर को जब मजदूरी मिल जाती है और किसान जब अपनी बोयी हुई फसल काट लेता है तो इसे ही सफल हो जाना कहते हैं। मैं समझता हूँ कि यही आपका उत्तर होगा और निश्चित रूप से आपका यह उत्तर गलत भी नहीं है। लेकिन मैं यहाँ आपको सफलता की अलग और एक नई परिभाषा से अवगत कराना चाहता हूँ। हो सकता है कि यह नई परिभाषा से आप संतुष्ट न हो,यह आपके गले न उतरे। लेकिन विश्वास मानिए यदि आपने किसी तरह इस परिभाषा को अपने गले उतार लिया, तो आपका जीवन एक नई गुणवत्ता और एक नए आनन्द से भर उठेगा।

दोस्तो, सच तो यह है कि सफलता की सच्ची परिभाषा है- *कर्म में आनन्द की प्राप्ति*। यदि आप काम कर रहे हैं और काम करते हुए आपको संतुष्टि मिल रही है , तो इसका अर्थ है कि आप जीवन में सफल हो रहे हैं। आप गाने इसलिए सुनते हैं, क्योंकि आपको गाने सुनना अच्छा लगता है। आप खुद बताइये कि इन गानों को सुनने के बदले आपको यथार्थ में मिलता क्या है-कोई डिग्री, कोई धन, कोई पुरस्कार, कोई प्रषंसा या इसी तरह की अन्य कोई वस्तु? सच तो यही है कि इस तरह मन पसंद संगीत को सुनने के बदले आप अपनी ओर से ही कुछ न कुछ देते हैं। यदि आपको संगीत सुनने के बदले कुछ नहीं मिलता, तो क्या यह आपका असफल हो जाना हुआ? और यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इसका मतलब हुआ कि आप सफल हो गये। और आप सफल इसलिए हो गये, क्योंकि संगीत सुनने में आपको आनन्द आ रहा था। तो यदि कर्म करने में ही आनन्द आने लगे, तो क्या वह अपने आप में ही सफलता नहीं बन जायेगी? बन जायेगी, और खूब अच्छी सफलता बन जायेगी। जिस दिन आप सफलता की इस नई परिभाषा से स्वयं को परिचित करा लेंगे, उस दिन से आपके जीवन से तनाव, दुख, अवसाद,ईर्ष्या, खीझ और निराशा जैसे नकारात्मक भाव खुद ब खुद दूर जाने लगेंगे और आप जीवन का सही अर्थों में आनंद लेने लगेंगे।

मेरा जीवन भी इसी क्रम में कैसे एक साधारण व्यक्ति जो निराशा से भरा था,जिसे पग पग पर जिंदगी ने कष्ट दिए। जो स्वयं संघर्षों से डरता था , जिंदगी के नित्य नए आयामों से रूबरू होता हुआ जीवन के विभिन्न रसों का आनंद लेने लगा। जिंदगी खुशगवार होनी लगी,हर तरफ बसंत सा मौसम दिखने लगा और मैं जिंदगी के आनंद से सराबोर होकर जीवन का रस लेने लगा। वास्तव में छोटी छोटी बातें ही असली जिंदगी का गूढ़ रहस्य है असली आनंद है।

मैं उत्तराखंड के पहाड़ों में एक छोटे से कस्बे में एक साधारण परिवार में पैदा हुआ।पिता सरकारी कर्मचारी थे और कस्बे के मुख्यालय में एक विभाग में कार्यरत थे। परिवार बड़ा होने के बावजूद सभी सदस्य संतुष्टि में जीवन यापन कर रहे थे। साधारण परिवार में जन्मा और स्वभाव से दब्बू,झिझक बचपन से स्वभाव में अंगीकृत हो गई थी। लोगों से मिलने मिलाने से संकोच महसूस करता था। प्रारंभिक शिक्षा कस्बे के ही विद्यालय से पूर्ण करने के पश्चात पास के ही बड़े विद्यालय से इंटर पास की। फिर आगे की पढ़ाई के लिए "बी गोपाल रेड्डी परिसर", गढ़वाल विश्वविद्यालय चला गया,वहां से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की। पिताजी चाहते थे कि मैं शिक्षक बनू इसलिए उनके कहने पर बीटीसी की परीक्षा भी दी पर बड़े अनमने मन से । पिताजी चाहते थे समय रहते सरकारी नौकरी मिल जाए तो उनके ऊपर कुछ भार कम हो जाए, पर मेरा बीटीसी ज्वाइन करने का मन ही नहीं था। मेरा मन शुरुआती दिनों में होटल लाइन या पर्यटन के क्षेत्र में जाने का था। शिक्षक बनने का कभी सोचा भी नहीं था क्यों कि शिक्षक की नौकरी में ना सैलरी अधिक थी न आकर्षण अधिक था। खैर जैसे तैसे पिताजी को मनाया और आगे अपनी स्नातोक्ततर की पढ़ाई विज्ञान विषय में पूरी की। ज्यादा श्रोत ना होने के कारण मैं फिर लक्ष्य से भटक गया और न जाने क्यों पुस्तकालय विज्ञान में अपना कैरियर बनाने हेतु मुख्य कैंपस में कोर्स करने चला गया। कोर्स पूरा करने के बाद पहली बार असली जिंदगी में अपना पदार्पण किया तो महसूस हुआ कि जिंदगी जितनी आसान दिखती है उतनी है नही।

यहां पग पग पर ठोकर है,संघर्ष है। मेरे सभी मित्र अलग अलग क्षेत्रों में नौकरी करने लगे थे, कुछ शिक्षक कुछ सेना में और कुछ प्राइवेट क्षेत्रों में नौकरी करने चले गए। ऐसी स्थिति में मुझ पर एक मनोवैज्ञानिक दवाब बनने लगा। मां बाप को भी मुझसे बहुत उम्मीदें थीं कि बेटा हमारा ऊंचा नाम करेगा, जग में ऐसा काम करेगा पर सब कुछ इतना आसान नहीं होता। इसी जद्दोजहद में मैने दिल्ली जाने की सोची,सोचा वहां जाकर अपना एक मुकाम बनाऊंगा। दिल्ली पहुंच तो गया पर करूंगा क्या..? ये प्रश्न मेरे मन मस्तिष्क में घूमने लगा,फिर सोचा पहले भागती दौड़ती दुनिया के साथ कांधे से कांधा मिलाकर चलना है तो कम्प्यूटर प्रशिक्षण लेना बनता है क्यों कि हर क्षेत्र में इसकी अपनी ही उपयोगिता है,फिर क्या था मैंने एनआईआईटी से कंप्यूटर में डिप्लोमा हासिल कर लिया ये सोचकर की इसके साथ असली जिंदगी में उतरना आसान होगा। काफी समय तक मैं दिल्ली में एक अदद नौकरी के लिए यहां वहां भटका,कई जगह मैने अपना बायोडाटा भेजे पर कहीं से कोई आशा की किरण नही मिली, हर जगह निराशा के बादल मंडरा रहे थे और मैं धीरे धीरे उस निराशा में घुलने लगा था। इसी दौरान मैंने लाइब्रेरियन के लिए भी कुछ स्कूल में अप्लाई किया परंतु वहां भी निराशा हाथ लगी। अब समय बीता जा रहा था और पैसों की तंगी होने लगी थी। घरवालों से भी किस मुंह से और पैसे मांगता,इसी सोच में परेशान हो गया था। पिछले छः महीने से नौकरी के लिए मारा मारा फिर रहा था लेकिन बिना अनुभव के नौकरी मिलती भी तो कैसे और ऊपर से अनजाने शहर में जहां कोई अपना नहीं था। फिर एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे फार्मा कंपनियों में आवेदन करने का सुझाव दिया क्यों कि मैं एम एस सी था और इस क्षेत्र में विज्ञान के छात्रों के लिए काफी स्कोप रहता है।मैने फौरन उसकी बात मानते हुए कई कंपनियों में आवेदन किया, परीक्षा दिया साक्षात्कार दिए और वहां मेरी मेहनत रंग लाई मेरा भारत की टॉप फार्मा कंपनी एफडीसी में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव के लिए चयन हो गया। कंपनी ने मुझे दिल्ली के सबसे डिस्टर्ब क्षेत्र (सेल के आधार पर) पूर्वी दिल्ली में कार्य हेतु चुना। ये क्षेत्र कंपनी के लिए एक चुनौती भरा था पिछले कई वर्षों से इस क्षेत्र में कंपनी अच्छा व्यवसाय नही कर पा रही थी और बार बार अपने प्रतिनिधियों को हटा रही थी। जब मैने ये सब सुना तो काफी घबरा गया था क्यों कि मुझे दवाइयों के व्यवसाय का कुछ भी अनुभव नहीं था।

पैसे की तंगी के कारण मन मारकर मैने ये ऑफर स्वीकार किया और पूरी लगन मेहनत से कार्य करने लगा। मेरे मैनेजर का भी मुझे बहुत सहयोग मिला उन्होंने मुझे बहुत प्रेरणा दी और इस फील्ड में कुछ तकनीकी पहलुओं की जानकारी समय समय पर देते रहे साथ ही मुझे दवाइयों उनके गुणधर्मों के बारे में ज्यादा से ज्यादा पढ़ने और नियमित अंग्रेजी के अभ्यास के लिए प्रोत्साहित किया। धीरे धीरे परिणाम आने लगे और कंपनी की सेल उस क्षेत्र में बढ़ने लगी।मेरे दो साल के अथक प्रयासों से मैने कंपनी के सारे उत्पाद को ऊंचाइयां प्रदान की। इसका परिणाम ये हुआ कि मुझे इंसेंटिव मिलना शुरू हो गया,सैलरी भी बढ़ गई।मेरी जीवन यापन में बदलाव आने लगा । पूर्वी दिल्ली में काम करते करते मुझे अब चार साल हो गए थे और इसी बीच कंपनी ने देहरादून और गढ़वाल में अपने उत्पादों की मार्केटिंग के लिए मुझे प्रोमोशन दिया और एरिया मैनेजर बना कर देहरादून भेज दिया। मैने पूरी मेहनत से इस क्षेत्र में भी अपना काम करना प्रारंभ किया लेकिन यहां मुझे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। ये क्षेत्र मेरे लिए काफी जाना पहचाना था। पहाड़ से ज्यादत्तर लोग पलायन करके यहां बस चुके थे। अक्सर मेरा अपने चिर परिचितों से मुलाकात हो जाती थी। इस क्षेत्र में मार्केटिंग अब भी अच्छा व्यवसाय नही समझा जाता था।अपने मेरे ऊपर अक्सर टीका टिप्पणी करने लगे। कोई कहता भाई तू तो पढ़ा लिखा है क्यों इस तरह की नौकरी कर रहा है,इसमें कोई भविष्य नहीं है,अभी तो जवान है बुढ़ापे में कैसे हो पाएगा। कोई कहता एमएससी कर के क्या यही नौकरी मिली। इस तरह रोज रोज के टिप्पणियो से मेरा मन उचटने लगा। मैं वैसे तो पूरी लगन से काम करता था पर लोगों की बातों को सुन कर मुझे भी इस तरह के कार्य करने से शर्मिंदिगी होने लगी और भविष्य के लिए चिंता सताने लगी । मैने अपने आपको काफी समझाया कि लोग तो बोलते हैं उन्हें बोलने से कोई थोड़े रोक सकता है पर धीरे धीरे काम के प्रति मैं लापरवाह होने लगा। यहां देहरादून में सरकारी नौकरियों का बड़ा क्रेज था,ज्यादततर बच्चे पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरियों के लिए यहां आकर कोचिंग करते और हो भी क्यों ना आखिर सरकारी नौकरियों सुरक्षित होती है साथ ही सामाजिक प्रतिष्ठा भी है वर्तमान और भविष्य दोनो के लिए आनंदमय भी।

इसी बीच मेरी छोटी बहन का चयन एल टी शिक्षक में हो गया तो मुझे भी लगा मुझे वर्तमान जॉब को छोड़कर सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करना चाहिए। मेरे माता पिता भी यही चाहते थे आखिर हर तरह के दवाब के बीच मैने वर्तमान जॉब छोड़कर बीएड में एडमिशन ले लिया। फार्मा कंपनी में रहते हुए काफी पैसा कमा लिया था तो एडमिशन के लिए किसी से पैसा नही मांगना पड़ा। एक साल बीएड का कोर्स किया लेकिन रिजल्ट देर से आने के कारण मैं प्राथमिक शिक्षक के लिए अप्लाई नही कर पाया तो सोचा शिक्षा के क्षेत्र में ही आगे बढ़ा जाए इसलिए मैने आगे भी पढ़ाई जारी रखी और एम एड में प्रवेश लिया।

२००७ में एम एड का कोर्स करने के उपरांत सरकारी महाविद्यालयों में बी एड पढ़ाने हेतु संविदा पर शिक्षकों की नियुक्ति हेतु विज्ञापन देखा तो मैने आहर्ता होने के कारण अप्लाई कर दिया और सभी चरणों को पास कर मेरा एक महाविद्यालय में चयन हो गया।

चयन होने के उपरांत समस्या ये होने लगी कि पढ़ाने का अनुभव तो है नही तो उन विद्यार्थियों को कैसे पढ़ाए जो खुद स्नातक या उच्च स्तर पास करके बी एड करने आएं हैं।

पर अब मन में ठान लिया था जो होगा जैसा होगा देखा जायेगा अब तो शिक्षक बनना है किसी भी तरह। फिर अपने साथी अनुभवी शिक्षकों की राय ली उनके निर्देशों पर अमल किया और जी जान से खुद को भी अपडेट किया और बी एड में पढ़ाने लगा। शुरुआत में कुछ महीने थोड़ी दिक्कत जरूर हुई तो विद्यार्थियों से लेक्चर के दौरान खूब वार्तालाप किया, विषय संबंधी उनकी विचार जाने,शिक्षा की चुनौतियों पर उनके उपायों पर विचार विमर्श करता रहा और इसी तरह मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ता चला गया। अब तो पढ़ाने में मजा आने लगा,बस इसी उधेड़बुन में लगा रहता कि कैसे और किस तरह नए नए प्रयोगों द्वारा विद्यार्थियों की जिज्ञासा को शांत किया जाए। महाविद्यालय में बीएड की माइक्रो टीचिंग, फील्ड टीचिंग, आदि सभी कार्य बखूबी निभाया। विद्यार्थियों के बीच अपनी पहुंच बढ़ाई और एक लोकप्रिय शिक्षक के रूप में पहचान बनने लगी। अभी बीएड प्रवक्ता के रूप में मुझे मात्र तीन साल ही हुए थे कि अचानक से सरकार ने नए नियम जिसमे बीएड प्रवक्ता हेतु एमएड के साथ नेट या स्लेट की अहर्ता की शर्त जोड़ दिया जिससे मुझे उपरोक्त अहर्ता न होने के कारण अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा और मैं महाविद्यालय छोड़ कर वापस अपने घर देहरादून आ गया। कुछ माह मैं अपने मन को एकाग्र करने के लिए अपनी बाइक से इधर उधर प्राकृतिक सौंदर्य के नजदीक से दर्शन किए। भगवान के दर्शन हेतु मंदिरों में जाकर अपने चित को शांत किया।

फिर कुछ माह पश्चात अपने जीवन की गति बढ़ाते हुए मैने एक निजी बीएड कॉलेज में प्रवक्ता पद पर नौकरी ज्वाइन कर ली। इस कॉलेज में मुझे अपने पसंदीदा विषय मनोविज्ञान पढ़ाने का अवसर मिला। पूर्व के अनुभव को लेकर संस्थान से जुड़े सभी गतिविधियों में प्रतिभाग करना, सेमिनार का आयोजन करवाना, योगा स्काउट गाइड के कैंप लगवाना, बीएड के विद्यार्थियों के लिए शैक्षिक भ्रमण, फील्ड टीचिंग आदि करवाने लगा।

संस्थान में मुझे मेरे कार्यों के लिए बहुत सम्मान मिला और २०१३ में मुझे बीएड विभाग में एचओडी के पद पर प्रमोशन मिला। उसी साल २०१३ में मेरे द्वारा किए अथक प्रयासों से और साथी अनुभवी शिक्षकों की सहयोग से हमारे संस्थान को NAAC में A कैटेगरी का खिताब मिला। हमारा संस्थान शहर का पहला संस्थान था जिसने इतनी बड़ी उपलब्धि हासिल की । संस्थान द्वारा मेरे  इस कार्य के लिए मुझे बेस्ट परफॉर्मेंस ऑफ द टीचर का अवार्ड दिया, जो मेरे लिए मेरे कार्यों के लिए एक बेहतरीन उपहार था,जिससे मुझे भविष्य में और बेहतरीन कार्य करने की प्रेरणा मिली।

संस्थान में रहते हुए मैने खुद के अंदर भी बहुत बदलाव देखे और खुद को हमेशा अपडेट करता रहता था। संस्थान में मुझे अन्य विभागों में भी जैसे बीपीटी, बीएससी एग्रीकल्चर, बीएससी बॉटनी में रूरल सोशियोलॉजी,क्लिनिकल साइकोलॉजी, और डेंड्रोलिजी जैसे विषय भी पढ़ाने का अवसर मिला जिसे मैंने बखूबी ढंग से बच्चों को पढ़ाया। इधर मैं सरकारी नौकरी के लिए भी लगातार प्रयास कर रहा था। इसी बीच मैने सीटेट प्रथम, द्वितीय और राज्य सरकार द्वारा आयोजित यूटेट प्रथम ,द्वितीय दोनो क्वालीफाई कर दिया जो शिक्षक बनने के लिए आवश्यक आहर्ता थी। २०१५ में बेसिक शिक्षा में प्राथमिक शिक्षक भर्ती निकली जिसे मैंने पास कर प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक पद पर नियुक्ति ले ली। अब मैं पूरे जोश से छोटे बच्चों को पढ़ाने लगा हालांकि छोटे बच्चों को पढ़ाना आसान नहीं होता, बहुत एकाग्रता और धैर्य की आवश्यकता होती है पर मैंने अपने अनुभवों को लेकर बच्चों को सरल रोचक ढंग से पढ़ाना उनके लिए नित नए नवाचार करना गतिविधियों द्वारा बच्चों को पाठ में सम्मलित करना, प्रार्थना करवाना,अनुशासन,स्वास्थ्य के बारे में सामान्य ज्ञान देना,बच्चों को कहानी कविता सुनाना उनसे सुनना आदि अनेक गतिविधि करके बच्चों को पढ़ाने लगा। बच्चों ने भी बहुत अच्छा रिस्पॉन्स दिया। इसी क्रम में लगातार कार्य करते हुए मुझे मेरे कार्यों के लिए भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय और अरविंदो सोसाइटी के तत्वधान में राजधानी दिल्ली में एमएचआरडी मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक और पर्यावरण मंत्रालय मंत्री श्री प्रकाश जावेडकर द्वारा शून्य निवेश पर "राष्ट्रीय नवाचारी शिक्षक सम्मान" से सम्मानित किया गया, और सच कहूं ये दिन मेरे लिए बहुत गौरव का दिन था।जीवन के संघर्षों और फिर सफलता का आनंद मैंने इसी दिन लिया और दिल से महसूस किया ।

मैं आज भी बच्चों को उसी जोश खरोश से पढ़ा रहा हूं और नित नए नवाचार अपने बच्चों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में कर रहा हूं । यही जीवन का असली आनंद है जब आप मन से किसी कार्य को करने लगते हैं तो स्वयं के जीवन की सारी समस्याओं का समाधान खुद ब खुद होने लगता है। दूसरों के लिए जीवन समर्पित करने से जो आनंद की अनुभूति होती है उसका कोई मुकाबला नहीं है। बस जिंदगी जीते रहो और ऐसे कार्य करते रहो जिससे दूसरों के चेहरों में मुस्कान बिखरती रहे,यही तो जीवन का सच्चा सुख है। 

जीवन की गाड़ी अनवरत पथ पर अग्रसर है..........!

 


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