Shalini Dikshit

Horror

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Shalini Dikshit

Horror

अंधेरा

अंधेरा

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मैं पढ़ रही हूँ, चारों तरफ घना अंधेरा है, एक छोटा सा लैंप जल रहा है जो रजिस्टर के सिर्फ एक पन्ने पर ही रोशनी कर पा रहा है। 

गर्मी हद से ज़्यादा है तो घर के सब लोग छत पर है, रात के खाने के बाद यही होता है हर रोज लाइट आने तक छत पे रहना। 

वैसे तो त्रिगोनोमित्री में मैं इतना डूब जाती हूँ जैसे कोई कवि अपनी कल्पना में डूबा हो...लेकिन आज क्यों बार-बार ध्यान अंधेरे की तरफ़ जा रहा है....हाय राम कितना अंधेरा है मुझे बार बार कोई आहट सी महसूस होती फिर लगता कि ये सब आहट के डरावने सीरियल का असर है।

डर लग रहा है खुद से कहती हूँ.. फिर अगले ही पल न रे डर क्यूँ मम्मी है न ऊपर..डरना ..संभलना फिर डरना फिर संभलना चलता रहता है और पढ़ाई भी ..

माँ का मन भी ठंडी हवा में छत पे लग नहीं रहा है ..आखिर उन की कमजोर दिल शील नीचे अकेली जो है... बार-बार उठती है नीचे चलूँ अब मैं .. भाई बहन हँसने लगते है। 

शील जो नहीं है यहाँ जाना तो है ही आपको .. अरे हम तो यहाँ हैं। 

इधर अचानक मेरा डर बढ़ गया है .. अब मन नहीं लग रहा पढ़ने में। बीच बीच में नजर तिरछी कर के देखती हूँ तो अजीबो गरीब आकृतियां दिखती हैं लेकिन ख़ुद को संभाल आँखें किताब पे गड़ा देती हूं.. 

डर हावी होता जा रहा है .. नजर घुमाई.. ओह माँ जोर से कांप गई लगा कोई खड़ा या खड़ी है .. .. धीरे से उठी ( ताकि जो खड़ा है वो पकड़ न ले) कांपते पैरों से सीढ़ियों की तरफ़ चली फिर तेज .. और तेज .. फिर जोर.. दार …..चीख़... आखिर तुम ने पकड़ ही लिया मुझे, लगभग बेहोश हो के गिरने को थी और तभी.....अरे बेटा मैं हूँ ..मम्मी की प्यार भरी आवाज़ तुम डर रही होगी सोच के मैं नीचे आ रही थी। 

"ओह माँ मुझे लगा वो मुझे दौड़ा रही यही और पकड़ लिया......."

"अब से तुम्हारा आहट देखना बन्द, खुद के आहट गढ़ने लगी हो........ " मम्मी बोली साथ ही लाईट भी आ गई। 

एक ही पल में सारी दहशत सारा डर गायब। 


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