अंधा, गूँगा, बहरा
अंधा, गूँगा, बहरा


देश के राष्ट्रपिता कहलाने वाले महात्मा गांधी के तीन बंदर थे । जो ना कभी गलत देखते थे, ना कभी गलत बोलते थे और ना कभी गलत सुनते थे।
लेकिन आज के समय में ये सब बेकार हो गया। समाज में तीन बंदर तो है लेकिन बदल गए है।
गलत देखते है पर कोई विरोध नहीं करता है। गलत सुनते है लेकिन कोई विरोध नहीं करता है। यहाँ तक कि गलत बोलते भी है।लेकिन कोई खुद को गलत नहीं ठहराता है।
ऐसे लोग जो गलत , बोलते हैं, सुनते हैं और देखते है , देश की भृष्ट व्यवस्था के अंश बन चुके है।
हिसाब बराबर है जो अन्याय को देखकर अन्याय के विरोध में खड़ा नहीं हो सकता है वो भी उस अन्याय का पूर्ण भागीदार है ।
हम विरोध कर नहीं सकते क्योंकि चुप रहना हमारी आदत बन चुकी है। फील्ड में ही नहीं जीवन में भी। और यही कारण है, कि सभी भृष्ट अधिकारी बैठने की तनख्वाह पाते है और काम करने की रिश्वत लेते हैं।
अगर कोई विरोध करता है तो उसे या तो दबा दिया जाता है या फिर जलील कर के निकाल दिया जाता है।
लेकिन जब तक डटकर मुकाबला नहीं किया तो हमारा देश एक बॉल बन जायेगा जिससे अमीर लोग खेलेंगे और हम गरीब सिर्फ ऐसे दर्शक जो न तो हार पर फिक्र कर सकेंगे और ना जीत का जिक्र कर सकेंगे। एक वाक्या सुनाता हूँ जिससे मुझे कुछ लिखना सुझा।
सीधी सी बात है-
हम निम्न श्रेणी के सामाजिक लोग है। हमारा परिवार BPL श्रेणी में आता है। गाँव में जो राशन वितरण किया जाता हैं उसमें हमारे राशन कार्ड में एक समस्या थी (जो गरीबों की तकदीर में लिखी होती है ।) कि परिवार का मुआयना करने के बाद ग्राम प्रधान एक लिखित अनुमति देगा जिसमें लिखा होगा कि ये BPL श्रेणी का है। और इसे राशन दिया जाए लेकिन जब तक नहीं दिया जाता है जब तक क्षेत्रीय तहसील के तहसीलदार उस पर अपने हस्ताक्षर करने के साथ मोहर ना लगा दे।
तो हमारे परिवार में पापा अनपढ़ है तो मुझे साथ ले गए ताकि उनके कोई काम आ सकूँ । जब हम तहसील कार्यालय में पहुँचे और हमारी मुलाकात तहसील महोदय से हुई।
काफी सवाल जवाब करने के बाद उन्होंने हमारा राशनकार्ड और कुछ दस्तावेज थे । फेंक दिए और कहा कि ये सही नहीं है दुबारा आना।
कार्यालय खचाखच भरा था । औऱ ज्यादातर राशन की समस्या लेकर आ रहे थे।
हमसे पहले भी कुछ लोग गए जिन्हें भी यही जवाब मिला था शायद 5-6 को छोड़कर। जब हमारा राशन कार्ड फेंका तो पापा ने शर्म से मुँह नीचा कर लिया। अब जाहिर सी बात है , भरी भीड़ में कोई बेइज्जत करे और भी जब हम एक उम्मीद लेकर आये थे कि शायद इससे हमारी गरीबी हालत को थोड़ा सहारा मिलेगमुझसे ये देखा नही गया और शायद इसीलिए की वो मेरे पापा थे।
मैंने जोर से चिलाकर कहा - "आप ये लिखित में दे सकते है कि मैंने ये कागज फेंके है। "
"ये क्या बकवास है ।"
ये बकवास नहीं सच है।
अगर आप लिखकर दे सकते है कि- " मैंने ये कागज कमी होने की वजह से फेंके हैं। "
तो हम कल दुबारा भी आयेंगे। लेकिन आप लिखकर दो।
और जब तक आप लिखकर नही देते में यहाँ से नहीं जाऊंगा ।
तो कहा कि जितना तू बोल रहा हैं तेरी उम्र नही है ।
मैंने कहा उम्र गयी तेल लेने जब तक लिखकर नहीं दोगे ये बंदा नही हिलेगा ।
मुझे धक्का दिया तो मुझे और भी गुस्सा आ गया ।
और मैंने उनको भी कहा जो वहाँ थे उनसे कहा कि मुझे आपकी मदद की जरूरत है। आप मेरा साथ दो आप का भी काम हो जाएगा और मेरा भी । और इन्हें सबक भी मिलेगा।
जब हम सभी साथ बोले तो शायद वो डर गए होंगे और मुझे बोले ठीक है तुम्हारे कागज लाओ हस्ताक्षर करता हूँ।
मैंने कहा नहीं -"अब तो हस्ताक्षर कोई और ही करेगा।"
हम सिर्फ 15 थे शायद और लोगों कि हिम्मत नही हुई कि वो अधिकारी के खिलाफ जा सके। हम पुलिस अधीक्षक के पास गए और उन्हें आपनी समस्या बताई।
उन्होंने केस के बारें कहा कि - हम जितने भी जिस समस्या को लेकर आये हो समस्या का समाधान हो गया।
समाधान तो हो गया लेकिन हम 15 थे जिनमें से 2 को छोड़कर सभी 18 से 25 की उम्र के थे। हम कलेक्ट्री पहुँचे।
हमारी शिकायत पर अमल किया गया और जल्दी शायद इसलिए कि हम सभी अलग अलग गाँवो से थे।
15 दिन बाद अखबार में एक हेडलाइन देखी।
" फलां तहसीलदार का डार्कजोन में तबादला।"
उस दिन मुझे समझ आया कि जब तक बोलना नहीं सीखोगे लोग जलील करते जाएंगे। और उस मैंने फिर एक कदम बढ़ाया जो मेरे लिए सकारात्मक ऊर्जा का एक पहलू था।