सोचता हूँ•••••
सोचता हूँ•••••
" एक दिन में ट्रेन में यात्रा कर रहा था, डिब्बे में बैठा ही था।
कि एक लड़की आयी और बोली - "भैया मेरी बैग पकड़ना, मैं थोड़ी देर में आई।"
मैंने बैग पकड़ ली और बैठ गया, करीब 15 मिनट तक वो वापिस नहीं आयी और ट्रेन चलने को तैयार थी।
मुझे थोड़ी घबराहट महसूस होने लगी क्योंकि अनजान बैग था। ज्यों ही ट्रेन चल पड़ी।
आवाज आई - "भैया मैं आ गई"
मुझे तस्सली हुई, चलो बैग का मालिक मिल गया।
मैंने पूछा - आप किधर जा रही हैं।
" मामा के यहाँ - पूरे दो साल बाद"
मैंने आश्चर्य से व्यंग्य की दृष्टि से फिर पूछा - "क्यों झगड़ा हो गया था क्या।"
थोड़े से दुःखी मन से बोली - " हाँ "
अब इतना तक ठीक था, लेकिन मेरे मन में एक जिज्ञासा थी कि झगड़ा कैसे हुआ।
और आगे पूछूँ तो कहीं मुझे गलत न समझ ले।
मैं अपनी जिज्ञासा को दबाकर बैठ गया - और मोबाइल देखने लग गया।
थोड़ी देर बाद बोली - " पानी पिओगे "
"मैंने हामी भर ली।"
पानी पीने के बाद उसने पूछा - " आपने पूछा क्यों नहीं "
"क्या ?
" अरे, झगड़े की वजह "
" ओहो मुझे लगा कि अगर मैं बार -बार सवाल करूँगा, तो शायद आप बुरा मान जायेंगे इसलिए "
इसमें बुरा मानने वाली क्या बात है - " मैं भी अकेली हूँ और आप भी, अगर आपको सुनने में इंटरेस्ट है तो बताऊँ "
" मैंने हाँ कह दिया "
तो उसने छोटी सी कहानी बताई कि - मैं 10वीं बहुत होशियार थी और अच्छी रेंक पाई थी लेकिन मुझे साइंस और कॉमर्स सब्जेक्ट में कोई दिलचस्पी नहीं थी , इसीलिए मैंने आर्ट्स फैकल्टी जॉइन की, और बात पर झगड़ा हुआ था, कि तुमने हमारा कहना नहीं माना।"
मैं दो साल के लिए दिल्ली चली गई और मामाजी विदेश चले गए। आज मैं भी आ गई और मामाजी भी तो मिलूँगी और सॉरी बोलूँगी। "
"मुझे यह सुनकर थोड़ी हंसी आ गई कि पता नहीं रिश्तेदारों की कौन सी नुक्स है जो अधूरी रहती है आप अपना करियर किस तरह से ऑब्जर्व करोगे।
अब अपनी पसंद तो अपनी है ना "
"मैं सिर्फ सोच रहा था पर बताया नहीं "
<p>उसने पूछा - "आप कुछ कहना चाहते हैं "
मैंने मना कर दिया।
तो बोली--" नहीं नहीं आप कुछ कहना तो चाहते है लेकिन कह नहीं पा रहे है , कहिये ना , अब मैंने अपनी कहानी बता दी तो फर्ज बनता है आप भी कुछ बताओ "
" अरे , नहीं मैं तो यह सोच रहा था कि - ये रिश्तेदार भी ना अपनी पसंद का काम नहीं करने देते है। पता नहीं कौन सी खुजल•••••••
पूरी बात होने से पहले ही बोल पड़ी - खबरदार मेरे रिश्तेदारों के बारे में कुछ कहा तो•••
अरे नहीं मैं सिर्फ तुम्हारे रिश्तेदारों के बारे में बात नहीं कर रहा हूँ। सभी रिश्तेदारों के बारे में बतिया रहा हूँ।
" कुछ भी कहो मुझे बुरा लगा " उसके जवाब ने मुझे विवश कर दिया "
क्या मैं रिश्तों को समझता नहीं हूँ या मुझे कदर नहीं है।
अगर कभी किसी के विरुद्ध बात कर लें तो कहीं वो घृणा का तो संकेत नहीं है। "
मेरी गुनगुनाहट को समझ कर बोली -" ऐसा नहीं है कि मैं अपने रिश्तेदारों के खिलाफ नहीं बोलती हूँ , मुझे अच्छा नहीं लगता कोई और कहे। "
यही नोकझोंक है जो कड़ी की तरह बंधन को जोड़े रखती है।
और यही होता है, आप अपने रिश्तों को कितना भी कोस लो लेकिन अगर कोई दूसरा कहे तो अच्छा नहीं लगता है।
और सही मायने में यही होना चाहिये कि आप अगर कभी कहते है तो शायद हालात हो लेकिन और कहे तो आपकी हालत नहीं बननी चाहिए।
इतने में ट्रेन रुकी और मैं उतर गया, उतरते समय मेरा नाम पूछा मैंने अपना नाम बताया और फिर उसने अपना
मुझे वो नाम अधूरा ही सुनाई दिया - प्रिय••••••
हो सकता है प्रियंका हो या फिर प्रिया हो या फिर प्रियांशी हो या प्रियनंदना हो वो मेरा काम था कि उस नाम को पूरा करूँ और किस नजरिये से ,
मुझे भगवान से एक शिकायत है और हर रोज रहेगी कि मुझे बहन का प्यार नसीब नहीं हुआ, अब कितनी परछाई में कौन सा किरदार सही होगा मेरे लिए कितना मुश्किल है।
भाई - बहन पवित्र रिश्ता है, लेकिन इसमें भी अगर पवित्रता ढूंढ़नी पड़े , तो सही मायनों का ही अंत हो जायेगा।