chandraprabha kumar

Classics

3.2  

chandraprabha kumar

Classics

आर्ता कुन्ती माता

आर्ता कुन्ती माता

6 mins
417


  

     कुन्ती का एक नाम पृथा भी था। इसी से अर्जुन का एक नाम पार्थ भी है और श्रीकृष्ण पार्थसारथि कहलाये। कुन्ती ने जीवन भर दुःख ही दुःख उठाये, ऐसा महाभारत की कथा से पता चलता है। जब श्रीकृष्ण कौरवों के साथ सन्धि की बातचीत के लिये हस्तिनापुर जा रहे थे,तो उनको उस समय युधिष्ठिर ने जो कहा उससे पता चलता है कि कुन्ती का जीवन दुःखमय रहा। श्रीकृष्ण कुन्ती के भाई वसुदेव के पुत्र थे और अर्जुन के सखा थे। 

       युधिष्ठिर ने उस समय श्रीकृष्ण से कहा-" मेरी पुत्रवत्सला माता ने हमारे कारण सदा दुःख ही भोगे हैं। उसने अबला होकर भी बाल्यकाल से ही हमें पाल पोस कर बड़ा किया है ,उपवास और तपस्या में वह सदा संलग्न रहती है। हम पाँचों भाइयों के प्रति उसका अत्यंत प्रेम है ,उसने दुर्योधन के भय से हमारी रक्षा की है जैसे नौका मनुष्य को समुद्र में डूबने से बचाती है उसी प्रकार उसने मृत्यु के महान् संकट से हमारा उद्धार किया है।पुत्रशोक से पीड़ित मेरी माता को आश्वासन दीजियेगा।"

        युधिष्ठिर ने आगे यह भी कहा -" उसने विवाह करने के बाद से ही अपने श्वसुर के घर में आकर नाना प्रकार के दुःख और कष्ट ही देखे तथा अनुभव किए हैं और इस समय भी वह कष्ट ही भोगती है। क्या वह समय आएगा जब हम लोग दुख में पड़ी हुई अपनी माता को सुख दे सकेंगे ? यह निश्चित नहीं है कि मनुष्य दुःखों से घबराकर मर ही जाता हो। यदि वह कदाचित् जीवित हो ,तो भी पुत्रों की चिंता से अत्यंत पीड़ित ही होगी।"

         इससे पता चलता है कि बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास में पाण्डवों को अपनी माता कुन्ती का कोई समाचार नहीं मिल पाया था। 

            श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाकर विदुर के घर में रह रही माता कुन्ती से भी मिले। श्रीकृष्ण के आते देखकर कुन्ती देवी उनके गले से लगकर अपने पुत्रों को याद कर फूट- फूटकर रोने लगी। दीर्घकाल के पश्चात् गोविन्द को देखकर कुन्ती देवी ऑंसुओं की वर्षा करने लगीं। उन्होंने कृष्ण का अतिथि सत्कार किया और जब वे आसन पर विराजमान हुए तो अश्रुपूरित कण्ठ से कुन्ती देवी ने कहा- 

       " मेरे पुत्र शत्रुओं की शठता के शिकार होकर राज्य से हाथ धो बैठे और निर्जन वन में चले गये। शत्रुओं के अन्याय से विवश हो सुख भोग से मुँह मोड़ मुझे रोती बिलखती छोड़. वे वन की ओर चल दिये। वे बचपन में ही पिता के प्यार से वंचित हो गए थे ।मैंने ही सदा उनका लालन पालन किया। वे सिंह व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए विशाल वन में कैसे रहे होंगे ? इतने दिनों से उन्हें न देखकर भी मैं जी रही हूँ ।"

  " सभा में कौरवों के समीप धृतराष्ट्र के पुत्रों ने द्रौपदी को जो कष्ट पहुँचाया है ,जिससे किसी का मंगल नहीं हो सकता ,वह अपमान मेरे हृदय को दग्ध करता रहता है। पुत्रों के साथ मुझे इतना महान् क्लेश प्राप्त नहीं होना चाहिये था। हमें दुःख के बाद सुख मिलना चाहिये।"

     कुन्ती राजा शूरसेन की पुत्री और वसुदेवजी की बहिन थी। शूरसेन ने अग्नि के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी पहली संतान अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को दे दूँगा। उनके यहाँ पहले पृथा का ही जन्म हुआ इसलिए उन्होंने उसे कुन्तीभोज को दे दिया। जिस समय पृथा छोटी थी, अपने पिता कुन्तिभोज के यहॉं रहती थी और अतिथियों का सेवा सत्कार करती थी। 

         एक बार पृथा ने दुर्वासा ऋषि की बड़ी सेवा की। उसकी सेवा से ऋषि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने पृथा को एक मन्त्र बतलाया और कहा कि -"इस मन्त्र से तुम जिस देवता का आवाहन करोगी, उसके कृपाप्रसाद से तुम्हें पुत्र होगा।" 

       उनकी बात सुनकर पृथा ( कुन्ती) को बड़ा कुतूहल हुआ। उसने सूर्य भगवान् का आवाहन किया, उनसे उसे कवच कुण्डल पहने तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। क्लंक से भयभीत होकर कुन्ती ने उस बालक को छिपाकर नदी में बहा दिया, वही पीछे कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 

  इसी बात को स्मरण कर कुन्ती श्रीकृष्ण से कहती हैं-" मैं जो कष्ट भोग रही हूँ, इसके लिये न अपने को दोष देती हूँ, न दुर्योधन को ; अपितु अपने पिता की ही निन्दा करती हूँ, जिन्होंने मुझे राजा कुन्तिभोज के हाथ में उसी प्रकार दे दिया, जैसे विख्यात दानी पुरुष याचक को साधारण धन देते हैं।मैं अभी बालिका थी ; उसी अवस्था में तुम्हारे पितामह ने मित्र धर्म का पालन करते हुए अपने सखा कुन्तिभोज के हाथ में मुझे दे दिया। मेरे पिता ने मेरे साथ वंचनापूर्ण बर्ताव किया।"

         इससे पता चलता है कि कुन्ती को कर्ण को लोकनिन्दा के भय से बहा देने का पछतावा था और वह इस बात को किसी पर प्रकट भी नहीं कर सकती थी। 

          इसके अलावा ससुराल में आकर भी वह सुखी नहीं थी, जैसा कि उनकी श्री कृष्ण से कही बात से पता चलता है। कुन्ती ने कहा-" परंतप श्रीकृष्ण ! मेरे श्वसुर ने भी मेरे साथ वंचनापूर्ण बर्ताव किया। मेरे पिता ने तो मेरे साथ वंचना पूर्ण बर्ताव किया ही था। इससे मैं अत्यन्त दुःखी हूँ, मेरे जीवित रहने से क्या लाभ है ?"

           यहॉं लगता है कि कुन्ती उस बात को स्मरण कर रही हैं जब भीष्म पितामह ने पाण्डु का एक और विवाह मद्रराज शल्य की बहिन साध्वी माद्री से करा दिया था और इसके लिये वे चतुरंगिणी सेना ले मद्रराज की राजधानी में पहुँच गये थे। 

        कुन्ती ने तो स्वयंवर में पाण्डु का वरण किया था। लेकिन माद्री भीष्म पितामह के कारण उनकी सौत बनकर आई। कुन्ती की सहमति से पाण्डु का यह दूसरा विवाह नहीं हुआ था। 

              कुन्ती श्रीकृष्ण के सामने रोकर यहॉं तक कहती हैं-"वासुदेव ! जो स्त्री दूसरों के आश्रित होकर जीवन - निर्वाह करती है, उसे धिक्कार है। दीनता को प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा मर जाना ही उत्तम है।"

      कुन्ती को महारानी होने के बाद भी पाण्डवों के वनगमन के बाद विदुर के यहॉं रहकर जीवन यापन करना पड़ रहा था। और उन्होंने अपना दुःख स्पष्ट व्यक्त किया। 

         कुन्ती ने पाण्डवों के लिये सन्देश दिया -"श्रीकृष्ण! तुम भीम तथा अर्जुन से कहना कि क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिये पुत्र उत्पन्न करती है, उसे पूरा करने का यह समय आ गया है। यदि ऐसा समय आने पर भी तुम युद्ध नहीं करोगे तो यह व्यर्थ बीत जायेगा । तुम्हें तो समय आने पर अपने प्राणों को भी त्याग देने के लिये उद्यत रहना चाहिये।माद्रीपुत्र नकुल व सहदेव से भी कहना कि तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी पराक्रम से प्राप्त किये हुए भोगों को ही ग्रहण करना। द्रौपदी का जो अपमान हुआ वह सब भीमसेन और अर्जुन का भी अपमान है। इसका जो फल मिलेगा वह दुर्योधन देखेगा ।"

        "राज्य छिन गया, जुए में हार गये, वन में जाना पड़ा, इससे भी मुझे दुःख नहीं हुआ पर मेरी श्रेष्ठ सर्वांग-सुन्दरी वधू को एक वस्त्र धारण किये जो सभा में जाना पड़ा और दुष्टों की कठोर बातें सुननी पड़ीं, इससे बढ़कर महान् दुःख की बात क्या हो सकती है। वह सनाथ होते हुए भी वहॉं किसी को अपना रक्षक न पा सकी।"

        कुन्ती ने कहा-" मधुसूदन ! बलवानों में श्रेष्ठ मेरे पुत्र हैं, और तुम हमारे रक्षक हो, फिर भी मैं ऐसे ऐसे दुःख सह रही हूँ "।  

          श्रीकृष्ण ने शोक करती हुई अपना बुआ कुन्ती को आश्वासन दिया और कहा-" तुम वीर पत्नी ,वीर जननी हो। तुम एक दिन सर्व कल्याणी महारानी थी। तुम जैसी विवेकशील,समस्त सद्गुणों से सम्पन्न वीर पत्नी और वीर माता को सुख और दुःख चुपचाप सहने चाहियें। पाण्डव सकुशल हैं, स्वस्थ हैं और शीघ्र ही तुम उन्हें शत्रुओं का संहार करके साम्राज्य - लक्ष्मी से युक्त हो शासक पद पर प्रतिष्ठित देखोगी।"

        कुन्ती का चरित्र बहुत सबल सशक्त स्वतंत्र विचार वाली रमणी का है , जो कोई भी अन्याय सहन नहीं कर सकती और स्त्री का दूसरे के आश्रित होकर जीवन निर्वाह करना पसन्द नहीं करती। एक मॉं की व्यथा है जिसने चौदह वर्षों से अपने पुत्रों को नहीं देखा। परिस्थिति वश उसे दुःख उठाने पड़े। पर उन्होंने अपने पुत्रों को वीरता पूर्ण संदेश भेजा। 

    


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics