आदित्य जयावह
आदित्य जयावह
सूर्य की महिमा का सब जगह वर्णन है। गायत्री मंत्र में सूर्य से ही सद्बुद्धि देने की, प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है जिससे सब कामों में सफलता मिले। वाल्मीकि रामायण में भी "आदित्य स्तोत्र " का वर्णन है जो महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को रावण पर विजय प्राप्त करने के लिये दिया था।
श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। वे वानरों से कह रहे थे-" मेरे राज्य का विनाश, वन का निवास, दण्डकारण्य की दौड़धूप, विदेहकुमारी सीता का राक्षस द्वारा अपहरण तथा राक्षसों के साथ संग्राम—इन सबके कारण मुझे महाघोर दु:ख सहना पड़ा है; किन्तु रणभूमि में रावण का वध करके मैं सारे दु:खों से छुटकारा पा जाऊँगा। जिसके लिये मैं वानरों की यह विशाल सेना साथ लाया हूँ,जिसके कारण मैंनें युद्ध में वाली का वध करके सुग्रीव को राज्य पर बैठाया है तथा जिसके उद्देश्य से समुद्र पर पुल बॉंधा और उसे पार किया। मेरे दृष्टिपथ में आकर अब यह रावण जीवित रहने योग्य नहीं है। "
श्रीराम ने यह सच्ची प्रतिज्ञा करके कहा कि कुछ ही देर में यह संसार रावण से रहित दिखाई देगा। श्रीराम के इस दृढ़ संकल्प के कारण उन्हें सब और से सहायता मिली। लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो वैद्य सुषेण और हनुमानजी ने सहायता की। श्रीराम और रावण के युद्ध के समय श्रीराम पैदल भूमि पर खड़े थे और वह राक्षस रथपर बैठा हुआ था; यह देखकर वहॉं आकाश में खड़े हुए देवताओं ने कहा-"ऐसी दशा में यह युद्ध बराबर का नहीं है।" उनकी यह बात सुनकर तेजस्वी देवराज इन्द्र ने अपने सारथि मातलि को बुलाकर अपना रथ श्रीराम की सेवा मे भेजा। मातलि के आने पर श्रीराम उस रथ की परिक्रमा कर और उसे प्रणाम कर उस पर सवार हुए।
श्रीराम रावण का भयंकर संग्राम हुआ। श्रीराम द्वारा रावण अत्यन्त पीड़ित हो गया। श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से उसका सारा शरीर अत्यन्त घायल और लहूलुहान हो गया। तो रावण ने कुपित होकर सहस्रों बाणधाराओं की वृष्टि से श्रीराम को आच्छादित कर दिया। उन बाणों से घायल हुए श्रीराम रक्त से नहा उठे और जंगल में खिले हुए पलाश के महान् वृक्ष की भॉंति दिखाई देने लगे।
पर श्रीरघुनाथजी इससे विचलित नहीं हुए क्योंकि वे महान् पर्वत का भॉंति अचल थे।
रावण के बाणों का निराकरण कर वे स्थिर भाव से खड़े रहे। श्रीराम ने रावण से हँसते हुए कठोर वाणी में कहा-"नीच राक्षस ! तू मेरे अनजान में जनस्थान से मेरी असहाय भार्या को हर लाया है इसलिये तू बलवान् या पराक्रमी तो कदापि नहीं है। अभिमानपूर्वक किये गये उन निन्दित और अहितकर पापकर्म का जो महान् फल है उसे तू आज अभी प्राप्त कर ले। सीता को चोर की तरह चुराते हुए तुझे तनिक भी लज्जा नहीं आई। "
ऐसा कहते हुए श्रीराम ने रावण पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। शत्रुवध की इच्छा रखनेवाले श्रीराम का बल , पराक्रम ,उत्साह और अस्त्र-बल बढ़कर दूना हो गया। श्रीराम के छोड़े हुए बाणों की वर्षा से आहत होकर रावण का हृदय व्याकुल और विभ्रान्त हो उठा। रावण में शस्त्र उठाने, धनुष को खींचने और श्रीराम के पराक्रम का सामना करने की शक्ति नहीं रह गई, तब उसकी ऐसी अवस्था देख उसका रथचालक सारथि उसके रथ को युद्धभूमि से दूर हटा ले गया और समर भूमि से बाहर निकल गया।
रावण ने सारथि पर कोप किया कि शत्रु के सामने से उसका रथ क्यों हटा दिया। रावण की आज्ञा से सारथि ने पुन: रथ लौटाया और वह विशाल रथ युद्ध के मुहाने पर जा पहुँचा।
उधर श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिये उनके सामने उपस्थित हो गया।
यह देख अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने आये थे,श्रीराम के पास जाकर बोले-"महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे। इस गोपनीय स्तोत्र का नाम "आदित्यहृदय " है। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करनेवाला है। इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह परम कल्याणमय स्तोत्र चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।
" भगवान् सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित हैं। ये नित्य उदय होनेवाले,देवताओं और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करनेवाले और संसार के स्वामी हैं। तुम इनको इन नाम मंत्रों द्वारा एकाग्रचित्त होकर पूजन करो। इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे। इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे। " विस्तार से सम्पूर्ण आदित्य स्तोत्र नाम मंत्र बताकर अगस्त्यजी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।
उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंनें प्रसन्नचित्त होकर आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान् सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया। फिर धनुष उठाकर रावण की ओर देखा ,और उत्साह व यत्नपूर्वक विजय पाने के लिये वे आगे बढ़े।
उन्हें सूर्य का आशीर्वाद मिला। सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीराम की ओर देखकर हर्षपूर्वक कहा," अब जल्दी करो।"
इस तरह श्रीराम को देवराज इन्द्र से सहायता मिली, भगवान् अगस्त्य ऋषि से सहायता मिली तथा इन्द्र सारथि मातलि ने भी उन्हें सावधान किया।
श्रीराम और रावण दोनों में बड़ा भारी युद्ध आरम्भ हुआ। युद्ध के समय भयंकर उत्पात होने लगे जो रावण के विनाश और श्रीरामचन्द्रजी के अभ्युदय के सूचक थे।
मातलि ने श्रीराम को कुछ याद दिलाते हुए कहा -"वीरवर ! आप क्यों राक्षस के चलाये अस्त्रों का निवारण मात्र करके रह जाते हैं। आप इसके वध के लिये ब्रह्मा जी के अस्त्र का प्रयोग कीजिये। "
मातलि के इस वाक्य से श्रीराम को उस अस्त्र का स्मरण हो आया। फिर उन्होंने फुफकारते हुए सर्प के समान एक तेजस्वी बाण हाथ में लिया; यह वही बाण था जिसे शक्तिशाली अगस्त्य ऋषि ने श्रीराम को दिया था और ब्रह्मा जी का निर्माण किया हुआ था, युद्ध में अमोघ था।
श्रीराम ने अत्यन्त कुपित हो बड़े यत्न के साथ धनुष को पूर्णरूपेण खींचकर उस मर्मभेदी बाण को रावण की छाती पर चला दिया। उस श्रेष्ठ बाण ने छूटते ही दुरात्मा रावण के हृदय को विदीर्ण कर डाला। रावण के शरीर का अन्त करके वह शोभाशाली बाण विनीत सेवक की भॉंति श्रीरामचन्द्रजी के तरकस में लौट आया।
रावण को पृथ्वी पर पड़ा देख सम्पूर्ण निशाचर भयभीत हो सब ओर भाग गये। आकाश में मधुर स्वर से देवताओं की दुन्दुभियॉं बजने लगीं। वायु दिव्य सुगन्ध बिखेरती हुई मन्द-मन्द गति से प्रवाहित होने लगी। श्रीराम के रथ के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी।