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Shikha Pari

Abstract

2.1  

Shikha Pari

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ज़िन्दगी का झाँसा

ज़िन्दगी का झाँसा

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खामोश सी खामोशी हो गई

कुछ सपने जबसे छोड़कर चले गए

आँखों की स्याही भी अब सूखने लगी है

लाल स्याही आंखों से छूटने लगी है


चेहरे की लकीरें गहरी हो गई है

माथे की लकीरें अब और गहरी है

सपनें जो देखे थे बचपन में 

वो अब धीरे धीरे धुंदले हो गए हैं


अब आँखों के नीचे लकीरें है

जो इस समय ने खींची है 

जवाब अब कोई नहीं देता 

सब ज़िन्दगी सिखा देती है


वो सपनें जो अंदर ही अंदर टूट गए

ज़ख्म दे गए पर निशान नहीं

उनके टूटने से पहले ही 

हम टूट गए फिर से


शामो की ढलती रोशनी

उम्र पर भारी पड़ती है

अब एक और ज़ाया हो गई

घड़ी की टिकटिक 

और ये रूठती ज़िन्दगी।


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