किसी की पत्नी थी
किसी की पत्नी थी
खामोश सी नज़रें थी
आँखों के डर से बचती थी
कौन थी नहीं जानती थी
किसी की पत्नी थी
बस खुद को इतना ही पहचानती थी
खोयी सी वो रहती थी
वो हस्ती उसकी मिटी हुई थी
जाने वो क्या थी क्या हो गई थी
कौन थी नहीं जानती थी
किसी की पत्नी थी
बस खुद को इतना ही पहचानती थी
चूल्हा चौका ही उसकी दुनिया थी
धुँए में चेहरे को ढूँढती थी
स्वाद में खुद को खोजती थी
जाने क्या वो सोचती थी
रोटी कच्ची थी पहले उसे सेकती थी
किसी की पत्नी थी
बस खुद को इतना ही पहचानती थी
ख्वाबों के पँखों को अब घर में कैद करती थी
दिवारों के अलग अलग रंगों में दुनिया पहचानती थी
और अब अपने बच्चों में वो ढूँढती अपने ख्वाबों को
कोई न जाने कितने सपने उसने चूल्हे में तोड़े
अब कुछ नहीं पहचानती थी
किसी की पत्नी थी
बस खुद को इतना ही पहचानती थी।