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स्त्री

स्त्री

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स्त्री कोई मात्र मांस

का लोथड़ा नहीं है

वो सिर्फ देह 

उसकी भी कुछ इच्छाये हैं


क्या वो नहीं समझती

अपने अस्तित्व को ?

वो चुप है, उसे रहना पड़ता है


वो जानती है

उसके चुप रहने से

उसके चरित्र पर लगते

दाग हल्के होते हैं

उसके आँचल में

आबरू का भार है


वो लुप्त होती जा रही है

समाज जीतता जा रहा है

वो छुपती है

उसकी आँखों के सामने 

ज़माना है 


शादी के बिना अब वो

और नहीं रह पाती

ये समाज उसे अब

और नहीं रख सकता।


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