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Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

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Prafulla Kumar Tripathi

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ज़िंदगी का दंश !

ज़िंदगी का दंश !

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अब सहा जाता नहीं है

ज़िंदगी का दंश

काश ! पंछी की तरह

मुझको भी होते पंख


कुछ है तन की

कुछ है मन की

आग बढ़ती है

बदन की


पूर्णता में ढूँढ़ता हूँ

ज़िंदगी का अंश

काश ! पंछी की तरह

मुझको भी होते पंख


पाके खोया

खो के पाया

दूर होती

अपनी छाया


आह जीवन वाह जीवन

क्यों बदलता रंग

काश।


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