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Surendra kumar singh

Tragedy

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Surendra kumar singh

Tragedy

यूं ही

यूं ही

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यूं ही टूट जाती है ब्यवस्थायें

छिन्न भिन्न हो जाती हैं मर्यादायें

जैसे कि संसद में टूटी हैं

और छिन्न भिन्न हो रही हैं मर्यादायें ।

यूं ही बहस चलती रहती है

जैसे कि चल रही है।

सत्ता हो या विपक्ष

मीडिया हो या भारत का बौद्धिक समाज

बहसों में उनकी भागीदारी

आ रहे उनके विचार 

लोकतंत्र में उनके विश्वास 

और उनकी जिम्मेदारी का

पता बता रहें हैं।

कितना सहज है

ब्यवस्था के संवेदनशील प्रबंधन को

तोड़ देना

वो भी तब जब हम अपने को

अभूतपूर्व रुप से

शक्तिशाली होने का दम्भ पाल रहे हैं।

जो भी हो

एक वैधानिक ब्यवस्था में

अराजक ब्यवस्था की घुसपैठ का

आकलन किया जाना चाहिए ।

इस घुसपैठ को स्थायी बनाये रखने की कोशिशें तो

इसे सामान्य बनाये जाने की कोशिश में

पड़ी हुई हैं

और यह निन्दनीय है।


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